भेद है संस्कारों का , मैं अपना सत्य क्यूँ बोलूँ ?
तुम्हारी घृणा का शोर बोलेगा , मैं क्यूँ लब खोलूँ ,
मन्दिर कोई निर्माण नहीं , बस श्रद्धा का प्रतीक है
मेरे बुतों की प्रार्थना से , तू क्यूँ भला भयभीत है ,
हर बुतख़ाना मिटा दो तुम , हरेक तस्वीर तोड़ दो , हर बेटी का शील हरो, हर काफिर का सर फोड़ दो ,
मगर कैसे गिराओगे हृदय के गर्भ गृह को तुम ,
कभी भी छू ना पाओगे कन्हैया के प्रणय को तुम ,
हुईं चौदह सदियाँ समाप्त , मिटा पाए हमें ना तुम,
कोई अदृश्य सी शक्ति , नहीं होने देती हमें गुम ,
खुद ही को कर रहे नंगा , दुनिया के भरे बाज़ार में, हमें तुम क्या भला दोगे, निज लघुता के आधार से ,
जगत का कण कण भी तो, ईश्वर से ही व्याप्त है ,
सनातन धर्म के हेतु बस यही ज्ञान पर्याप्त है ,
तुम्हें बस स्थूल दिखता है ,यही तो एक विवशता है,
हमें बस सूक्ष्म दिखता है, यही निश्चिंतता है ,
तुम्हारी मूर्खता अंत में तुम्हारा घर जलाएगी , सनातन धर्म को जड़ता कभी भी छू ना पाएगी,
घड़ा पापों का फूटेगा , समय ने यही सिखाया है ,
घृणा के विष ने सदा , घर अपना ही जलाया है ,
अविद्या को अभिशप्त हो ,सनातन को गँवाकर तुम,
भयावह अंधकार का श्राप , लाए हो कमाकर तुम ,
समझ आए तो लौट आना , निज धर्म को संध्या ढले , नहीं तो खेलो ख़ून की होली , अब हम हिन्दू घर को चले ,
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