राजनीति में सही समय पर सही दांव चलना,‌ मौका देख कर कुछ करना , स्थिति के अनुसार कुछ ना करना ये सब महत्वपुर्ण है इन्ही दांवपेंचों से किसी नेता व पार्टी की राजनीति चमक जाती है तो किसी और की चौपट‌ हो जाती है। इन सब घोटईया चाली के बीच लोकतंत्र दिशाहीन होने लगा है।

26 जनवरी के दिन अर्थात गणतंत्र दिवस के दिन लाल किले पर जो हुआ वो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि जब सरकार राजनिति के चक्कर में अकर्मण्यता दिखाती है तो कैसे देशविरोधी ताकते लोकतंत्र और भारत की अस्मिता के मस्तक पर चढ़ कर भद्दा नाच करती हैं।

लेफ़्ट विंग और राईट विंग के बीच विवाद चल रहा है कि जो झंडा फहराया वो खालिस्तानी झंडा था या निशान साहिब। मेरा कहना है कि कोई और झंडा फहराना बाद की बात है, कोई आतंकी वहां पहुंचकर तिरंगा उतार दिया,‌तिरंगा उतारना ही घोर अपमान था। सारे देश ने जो जो स्वयं को लज्जित और असहाय महसूस किया है वो लंबे समय तक याद रहेगा।

पर इतना सब कांड होने की नौबत ही क्यों आई? ये तथाकथित आंदोलन आचानक तो शुरू नहीं हुआ, ट्रक्टर मार्च अचानक तो नहींं की गयी। जब योगेन्द्र यादव टाईप फर्जी किसान नेता किसानों को भड़का रहे थे तब सरकार सो रही थी क्या? सरकार‌ का‌ सबकुछ छीछालेदर हो जाने तक कोई ठोस एक्शन ना लेना राजनैतिक घोटईया चाली का ही हिस्सा है। शाहीनबाग के दौरान भी केंद्र सरकार ने कुछ ऐसा ही किया था अर्थात बहुत समय तक कुछ नहीं किया था और देशविरोधी ताकतें तंबू,‌बिरयानी व अन्य ताम झाम के साथ राजधानी दिल्ली को बंधक बना रही थी। अब जिस कृषी बिल पर सुप्रीम कोर्ट पहले ही‌ स्टे लगा चुकी हो उससेे किसानों को तो कोई नुकसान हो नहींं सकता, तो वो तथाकथित आंदोलनकारी दिल्ली में क्यों घुसने दिए गए? सरकार को भी पता है कि सिख फौर जस्टिस जैसे खालिस्तानी संगठन किसान आंदोलन में घुस चुके हैं तो कड़ाई‌ से क्यों नहीं निपटा गया। केंद्र सरकार को बहुत कोस लिया अब बात दिल्ली सरकार और मुख्ममंत्री अरविंद केजरीवाल की, पर उनकी बात क्या कर सकते हैं जब उन्होने कुछ कहा या किया ही नहीं!केजरीवाल की हमेशा ही यही स्ट्रैटजी रही है कि दंगा हो या प्रोटेस्ट सबको पीछे से, चुप्पी वाला समर्थन दो, सारा ब्लेम केंद्र सरकार पर डालो और खुद को मजबूर दिखाओ।

सरकारों व पार्टियों के इस खेल के बीच राजधानी के मान सम्मान पर जो बार बार हमला हो रहा है वो शर्मनाक तो है ही साथ ही साथ देश की अंतरास्ट्रीय बेज्जती भी करवाता है। फिर पाकिस्तान जैसे गिद्ध पड़ोसी तो होते ही हैं ऐसे मौकों की खोज में। अब मान लीजिये पुलिस बहुत कठोर कारवाई कर भी दे सब आतंकियों को जेल में ठूस भी तो जो तिरंगा उतारने की तस्वीर दुनिया ने देखी वो मिटेगी?

इन सब के बीच क्या राजधानी दिल्ली कमजोर नहीं हो रही? कितान आसान हो गया है लाल किले तक पहुँचना , पुलिस क्या करे जब फ्री हैंड नहीं मिलता। राजधानी किसी भी देश का गौरव होती है, राजधानी अभेद्य होनी चाहिए। जब तक हम सब ये नहीं समझेंगे ये सब चलता रहेगा।

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