हम एक ऐसे समाज मे रहते हैं जहाँ चंद मुट्ठी भर लोग निश्चित करते हैं कि पूरा देश किस बात पर चर्चा करे। उस बात को किस नजरिये से देखे।

कहने से हमारे देश की साक्षरता लगभग 72% है पर क्या सच मे हम साक्षर कहलाने योग्य हैं?

सुबह TV अगर सुशांत सिंह के मर्डर की खबर चल गई तो हम अपने मित्रों से अपने घर पर उसी की बात करेंगे। अगर बॉलीवुड का ड्रग्स कनेक्सशन कहीं पढ़ लिया तो ऑफिस में उसी की बात करेंगे। आखिर कब तक हम यूँही भेड़चाल में जिएंगे? आजादी का सही अर्थ कब समझेंगे?

आज सुबह से मीडिया हाथरस में हुए गैंग रेप को कवर कर रही है। पर गैंगरेप हुआ 19 सितंबर को पहला आरोपी पकड़ा गया 21 सितंबर को और चौथा पकड़ा गया 26 को। पर आज से पहले जहाँ मीडिया रिया, दीपिका और कंगना में व्यस्त थी वहीं हम IPL में व्यस्त थे।

आज जैसे उन चंद लोगों ने सू बोला हम बॉलीवुड की चकाचौंध से बाहर निकले और IPL छोड़ महिलाओं के सम्मान का अलाप रागने लगे, कैंडल लेकर निकल आये। हमारे देश मे ना ये पहला रेप केस है और ना ही आखरी, ना हमारे खामोश बैठने से कुछ बदलेगा और ना ही कैंडल लेकर बाहर निकलने से।

हमें सोचना होगा कि आखिर क्यों एक इंसान हैवान बन जाता है? जिस देश मे हमारे पैरों के नीचे चींटी भी दिख जाये तो हम रास्ता बदल देते हैं वहां कोई बलात्कार और हत्या जैसा घिनौना कृत्य कैसे कर सकता है?

हम जो सीखते हैं वो अपने घर से, विद्यालय से या समाज से सीखते हैं। तो क्यों ना अपने बच्चों को घर पर महिलाओं के प्रति सम्मान करना सिखाया जाए? क्यों ना किताबों के सिलेबस से अय्याश शाहजहां और हत्यारे औरंगजेब को निकालकर गुरुनानक, गौतम बुद्ध आदि को पढ़ाया जाए? क्यों ना एक ऐसा समाज बनाया जाए जहाँ महिलाएं सुरक्षित हों और हम दूसरों के सू करने पर नहीं अपने स्वविवेक से फैसले लें? देश तो हमारा आजाद हो गया पर क्या हम मानसिक/वैचारिक रूप से आजाद हुए?

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