राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है|कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है||

राम केवल एक नाम भर नहीं , बल्कि वे जन-जन के कंठहार हैं, मन-प्राण हैं, जीवन-आधार हैं। उनसे भारत अर्थ पाता है। वे भारत के प्रतिरूप हैं और भारत उनका। उनमें कोटि-कोटि जन जीवन की सार्थकता पाता है। भारत का कोटि-कोटि जन उनकी आँखों से जग-जीवन को देखता है। उनके दृष्टिकोण से जीवन के संदर्भों-परिप्रेक्ष्यों-स्थितियों-परिस्थितियों-घटनाओं-प्रतिघटनाओं का मूल्यांकन-विश्लेषण करता है। भारत से राम और राम से भारत को विलग करने के भले कितने कुचक्र-कलंक रचे जाएँ, भले कितनी वामी-विदेशी चालें चली जायँ, यह संभव होता नहीं दिखता। क्योंकि राम भारत की आत्मा हैं, राम भारत के पर्याय हैं, राम निर्विकल्प हैं। उनका कोई विकल्प नहीं।जिस प्रकार आत्मा को शरीर से और शरीर को आत्मा से कोई विलग नहीं कर सकता, उसी प्रकार राम को भारत से विलग नहीं किया जा सकता। राम के सुख में भारत के जन-जन का सुख आश्रय पाता है, उनके दुःख में भारत का कोटि-कोटि जन आँसुओं के सागर में डूबने लगता है। और वे अश्रु-धार भी ऐसे परम-पुनीत हैं कि तन-मन को निर्मल बना जाते हैं। अश्रुओं की उस निर्मल-अविरल धारा में न कोई ईर्ष्या शेष रहती है, न कोई अहंकार, न कोई लोभ, न कोई मोह, न कोई अपना, न कोई पराया। कैसा अद्भुत है यह चरित-काव्य, जिसे बार-बार सुनकर भी और सुनने की चाह बची रहती है और रसपान की प्यास बनी की बनी रह जाती है! कैसा अद्भुत है यह नाम जिसके स्मरण मात्र से नयन-चकोर उस मुख-चंद्र की ओर टकटकी लगाए एकटक निहारते रह जाते हैं! उस चरित्र को अभिनीत करने वाले, उस चरित्र को जीने वाले, लिखने वाले हमारी आत्यंतिक श्रद्धा के सर्वोच्च केंद्रबिंदु बन जाते हैं, वे हमारे स्वाभाविक नायक बन जाते हैं। उनके सुख-दुःख, हार-जीत, मान-अपमान में हमें अपना सुख-दुःख, हार-जीत, मान-अपमान प्रतीत होने लगता है। उनकी प्रसन्नता में सारा जग हँसता प्रतीत होता है और उसके विषाद में सारा जग रोता| टेलीविजन पर रामायण के प्रसारण के दौरान अनेक बार मेरे चित्त की ऐसा दशा हुई कि वर्णन नहीं कर सकता| बस इतना कह सकता हूँ कि स्मरण नहीं, इससे पूर्व कब-कब इन नयनों की कोरों से अश्रुओं की ऐसी धार उमगी-उमड़ी थी! रामायण धारावाहिक में  लव-कुश द्वारा रामायण का भावपूर्ण सस्वर गायन सुनकर लाख प्रयासों के पश्चात भी परिजनों की दृष्टि से अश्रुओं को ओझल न रख पाया था, भावनाओं के ऐसे तीव्रतम वेग का अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। और क्या यह केवल मेरे चित्त की अवस्था है? क्या यह करोड़ों लोगों की दशा-अवस्था नहीं? क्या करोड़ों लोग आज भी इस सीरियल के प्रसारण को टकटकी लगाकर नहीं देखते, उसे देख-देख भाव-विह्वल नहीं होते? भाव-जगत में विचरने वालों को आँकड़ों का मायाजाल भला कब लुभा पाता है! पर कहते हैं कि रिकॉर्ड 72 करोड़ से भी अधिक लोगों ने रामायण के पुनर्प्रसारण पर अपने भाग्य को बार-बार सराहा। और प्रथम प्रसारण के अवसर पर तो पूरी सड़कें, बाज़ार सब सूने पड़ जाते थे। चूँकि उस समय टेलीविजन बहुत कम घरों में हुआ करते थे, इसलिए जो अपने घर में मुहल्ले वालों को वह सीरियल देखने देते थे, वे अपने मुहल्ले के नायक हुआ करते थे। उस महानायक ने न जाने कितनों को नायक बना दिया। बल्कि इस सीरियल ने टेलीविजन को भारत के घर-घर में पहुँचा दिया।


कई बार मेरा मन पूछता है कि क्यों होता है ऐसा बारंबार? कई बार मेरा मन यह भी पूछता है कि जिन करोड़ों लोगों की आँखें, मन-प्राण, जिस एक चरित्र में बसे-रमे हों, आख़िर किन षड्यंत्रों के अंतर्गत उस चरित्र के नाम और बखान का कुछ लोग विरोध करते हैं? आख़िर किस षड्यंत्र के अंतर्गत उसके होने के प्रमाण माँगे जाते हैं? आखिर किस षड्यंत्र के अंतर्गत उसकी स्मृतियों को उसके जन्मस्थान से मिटाने-हटाने के असंख्य प्रयत्न किए जाते हैं? क्यों तमाम  वामियों-सेकुलरों को केवल राम-मंदिर से ही नहीं, बल्कि राम  के नाम से, चरित से, कहानी से, चर्चाओं से, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसके पक्ष में निर्णय सुनाए जाने से भी परेशानी है ? क्यों उन्हें एक आक्रांता की स्मृति में खड़े गुलामी के प्रतीक से इतना प्यार है?


इनकी खीझ और कुढ़न इस बात से समझी जा सकती है कि इन्होंने लॉकडाउन के दौरान रामायण सीरियल के प्रसारण पर भी पूरा आसमान सिर पर उठा लिया था। क्यों उस समय प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार को सूचना प्रसारण मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर से यह पूछना पड़ा कि ”ये लाखों-करोड़ों लोग कौन हैं जो रामायण के पुनः प्रसारण की माँग कर रहे हैं?”  क्या इस सीरियल को मिली रिकॉर्डतोड़ टीआरपी इसकी लोकप्रियता और इसे चाहने वालों की भारी संख्या बताने के लिए पर्याप्त नहीं? क्यों काँग्रेस-राज में पद्मश्री से नवाजी जा चुकीं प्रसार भारती की पूर्व अध्यक्ष मृणाल पांडे ‘रामायण’ सीरियल के पुनः प्रसारण पर विषवमन करती हुईं ट्वीट करती हैं कि ”Bwahahaha……धन्य हो! घर में नहीं खाना, पर्दे पर रामायण!” क्या यह सत्य नहीं कि श्री राम का चरित्र और जीवन-संघर्ष हमें भी कमोवेश वैसा ही धीरज, साहस, संयम और अनुशासन सिखाता है? क्या मृणाल पांडेय काँग्रेसी उपकार की क़ीमत जन-आस्था पर प्रहार कर चुकाना चाहती थीं? क्यों देश के जाने-माने वकील प्रशांत भूषण को ऐसा लगता है कि ”जब करोड़ों लोग ‘जबरन तालाबंदी’ की वजह से परेशानी झेल रहे हैं तो सरकार बड़ी आबादी को दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत सीरियल्स के नाम पर अफ़ीम पिला रही है!” आम लोगों से सहानुभूति की आड़ में क्यों ये और इन जैसे कथित बुद्धिजीवी बार-बार इस देश की आस्था और विश्वास पर चोट करते हैं? क्योंकि हमारे महानायक, महान चरित्र, हमारे शास्त्र, इनकी दुकानें बंद कराते हैं। ये बाबरी मस्जिद के समर्थन और राम-मंदिर के विरोध में इसलिए रहे क्योंकि आस्था और विश्वास की इस भाव-भूमि पर भारत-विरोध की इनकी विष-बेलें कभी पनप नहीं सकतीं, और यदि पनप भी गईं तो कभी जड़ें नहीं जमा सकतीं। सनातन संस्कृति के विरोध का उनका हर प्रयत्न हमें इसके प्रति और श्रद्धावनत बना जाता है।


कई बार मेरा मन यह भी पूछता है कि जिन करोड़ों लोगों के मन-प्राण जिस एक चरित्र में प्रतिपल लीन हों, भाव-विभोर हों, आख़िर किन षड्यंत्रों के अंतर्गत उसे काल्पनिक बताने का घनघोर अपराध किया जाता रहा है ? पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिस चरित्र को हम एक गौरवशाली थाती के रूप में सहेजते-संभालते आए हों, उसके प्रति शंका के बीज वर्तमान पीढ़ी के हृदय में किसने और क्यों बोए? जो एक चरित्र करोड़ों-करोड़ों लोगों के जीवन का आधार रहा हो, जिसमें करोड़ों-करोड़ों लोगों की साँसें बसी हों, जिससे कोटि-कोटि जन प्रेरणा पाते हों, जिसने हर काल और हर युग के लोगों को संघर्ष और सहनशीलता की प्रेरणा दी हो, जिसके जीवन-संघर्षों के सामने कोटि-कोटि जन को अपना संघर्ष बहुत छोटा प्रतीत होता हो, जिसके दुःखों के पहाड़ के सामने अपना दुःख राई-सा जान पड़ता हो, जिसके चरित की शीतल छाया में कोटि-कोटि जनों के ताप-शाप मिट जाते हों, जिसकी छवि में व्यक्ति-व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी श्रेष्ठ-सुंदर आचार-विचार-साहस-सौगंध-संस्कार-संकल्प सहज प्रतिबिंबित होते हों, जिसका जीवन कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, धर्म-अधर्म का सम्यक बोध कराने वाला आदर्श प्रतिमान हो, जो मनुष्य क्या चराचर प्राणियों को मर्यादा और लोक को आदर्श के सूत्रों में बाँधता-पिरोता हो, जो हर युग और काल के मन-मानस को नए सिरे से मथता हो और मनीषियों के हृदय में नवीन-मौलिक आकार ग्रहण करता हो- ऐसे परम तेजस्वी, ओजस्वी, पराक्रमी, मानवीय श्रीराम को क्या यह राष्ट्र इन कथित बुद्धिजीवियों के तथ्यों-तर्कों की तुला पर तौलने का पाप करेगा? इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के गर्हित वक्तव्य पर कोटि-कोटि जनों के हृदय के स्पंदन, जीवन के उत्थान-पतन; एकमात्र आधार, शक्ति-सामर्थ्य के पारावार- श्रीराम को भी क्या स्वयं आकर निज अस्तित्व का प्रमाण देना होगा? क्या जीवित सभ्यताएँ केवल निष्प्राण और निर्जीव साक्ष्यों-अभिलेखों के सहारे जीवन पाती हैं या जिंदा लोगों की जिंदा धड़कनों व स्मृतियों का भी उसके लिए कोई अर्थ होता है? 


या चिर-परिचित ढिठाई से ये कथित बुद्धिजीवी- ख़ेमेबाज इतिहासकार कहते रहेंगें कि कोटि-कोटि जनों की श्रद्धा-आस्था-विश्वास का उनके लिए कोई अर्थ नहीं, कि चंद सिरफिरों का सत्य कोटि-कोटि जनों के युगानुगत-शास्त्रोक्त-शाश्वत सत्य पर भारी है? फिर ऐसी पापात्माएँ तथ्यों-साक्ष्यों-अभिलेखों का आधार पाकर भी अपने पापों से कहाँ बाज आएँगीं? क्या राम-मंदिर के प्रश्न को वर्षानुवर्ष उलझाए रखने वाले लोग, रामसेतु को कपोल-कल्पना बताने वाले लोग आज प्रायश्चित के लिए तैयार हैं? क्या पाठ्य-पुस्तकों में श्रीराम को काल्पनिक और गल्प बताने वाले बुद्धिजीवी अकादमिक जगत से आज बहिष्कृत कर दिए गए हैं? क्या उन्हें अपने कुकृत्यों के लिए राष्ट्र और संपूर्ण मानवता से क्षमा नहीं माँगनी चाहिए? और यदि किसी को लाज न आए तो क्या उसे लजाना ही छोड़ देना चाहिए? इस देश के कोटि-कोटि जन जो श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं अन्य पौराणिक एवं महान चरित्रों से प्रेरणा पाते हैं, उन्हें अपनी संततियों को यह बताना चाहिए कि जिन्हें विद्वान/बुद्धिजीवी/इतिहासकार/साहित्यकार/शिक्षाविद/कलाकर्मी बताकर तुम्हारे गले उतारा जा रहा है, दरअसल वे लोग किराए के बुद्धिजीवी-साहित्यकार-इतिहासकार-कलाकार हैं, कि वे लोग तुम्हारे पुरखों-पूर्वजों को मूढ़ सिद्ध करने की कुत्सित चेष्टा कर रहे हैं, कि वे लोग निहित स्वार्थों व मतों से संचालित हो लोकमत को असत्य और व्यक्ति-मत को सत्य सिद्ध करने का स्वपक्षीय प्रयास कर रहे हैं, कि उनका सत्य प्रायोजित, आयातित, आरोपित और अलोकतांत्रिक है, कि उनका सत्य देश की चित्ति और चेतना, प्रकृति और संस्कृति के प्रतिकूल है। इसलिए सत्य के उन सूत्रों को मज़बूती से थामे रहो, जो युगों-युगों से काल की कसौटी पर खरा उतरता रहा है| जिनके निकष पर कसकर भारतीय संस्कृति बारंबार दैदीप्यमान होती रही है।


प्रणय कुमार

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