इस्लामिक देशों में बदलाव की बयार और भारत में जगती उम्मीदें

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। युगीन आवश्यकता एवं वर्तमान परिस्थिति-परिवेश के अनुकूल परिवर्तन सतत चलते रहना चाहिए। इसी में अखिल मानवता और जगती का कल्याण निहित है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया चारों दिशाओं और सभी पंथों-मज़हबों में देखने को मिलती रही है। इतना अवश्य है कि कहीं यह प्रक्रिया तीव्र है तो कहीं थोड़ी मद्धिम, पर यदि हम जीवित हैं तो परिवर्तन निश्चित एवं अपरिहार्य है।


इस्लाम में यह प्रक्रिया धीमी अवश्य है, पर सतह के नीचे वहाँ भी परिवर्तन की तीव्र कामना और बेचैन कसमसाहट पल रही है। निःसंदेह वह एक बंद मज़हब है। एक ग्रंथ, एक पंथ, एक प्रतीक, एक पैग़ंबर को लेकर उसका आग्रह न केवल प्रबल रहा है, बल्कि वह अन्य मतावलंबियों एवं धर्मों के प्रति अत्यंत असहिष्णु एवं आक्रामक भी रहा है। वह ताक़त या तलवार के बल पर अपना प्रसार करता रहा है। उसकी यह आक्रामकता एवं असहिष्णुता वर्तमान से लेकर इतिहास तक देखने को मिलती है। उसने अन्य मतों-पंथों में विश्वास रखने वाले लोगों का क़त्लेआम तो किया ही, ज्ञान एवं आस्था के तमाम केंद्रों को भी ध्वस्त किया, मठ-मंदिर-पुस्तकालय तक उसके विध्वंसक हमलों के शिकार हुए। ज्ञान से किसी का क्या वैर? पर इस्लाम का है। उसकी इस ज़िद, ज़ुनून और संकीर्णता के कारण कि जो कुछ ज्ञान और सत्य है वह केवल एक आसमानी किताब तक सीमित है, और उसके अलावा किसी और के अस्तित्व का कोई औचित्य नहीं, आज की दुनिया बहुत-सी ज्ञान-राशियों, अनेकानेक ऐतिहासिक धरोहरों और तमाम सभ्यता-केंद्रों से वंचित रह गई।

मानव-सभ्यता के तमाम अमूल्य धरोहर और विपुल विरासत इस्लामिक ज़िहाद की भेंट चढ़ गए। घोर आश्चर्य है कि कोई सत्य को अंतिम व एकमेव कैसे घोषित कर सकता है? कोई किसी एक कालखंड में सारे ज्ञान-विज्ञान-अविष्कार को कैसे सीमित कर सकता है? कोई सोचने तक पर कैसे पाबंदी लगा सकता है? कोई समय की सुई को किसी एक ही कालबिंदु पर कैसे स्थिर कर सकता है? पर इस्लाम यह सब करने-कराने की ज़िद पाले बैठा रहा। तभी तो वह किसी एक ग्रंथ को मानने या शरीयत के क़ानून का पालन कराने की हठधर्मिता दिखाता है। वह चाहता है कि लोग वहीं तक सोचें, जहाँ तक छठी शताब्दी में लिखा गया एक ग्रंथ इजाज़त देता है। ऐसे में तो सारी मनुष्यता दम तोड़ देगी। अन्य मतावलंबियों की चिंताएँ और आशंकाएँ तो दूर, इन बंदिशों एवं पाबंदियों के कारण उसको मानने वाले अनुयायी तक खुली हवा, खिली धूप में साँस लेने के लिए तड़प उठते हों तो कोई आश्चर्य नहीं! स्वाभाविक है कि तमाम इस्लामिक देशों और उनके अनुयायियों के दिल और दिमाग़ में जमी सदियों पुरानी काई आज कुछ-कुछ छँटने लगी है, उनके ज़ेहन के बंद-अँधेरे कोने में सुधार, बदलाव और उदारता की उजली किरणें दस्तक देने लगी हैं। संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे देशों में पिछले कुछ वर्षों में आए बदलाव की बयार इसकी पुष्टि करते हैं।

महिलाओं को कार चलाने की आजादी देने वाला मजहबी देश -सऊदी अरब


यह सुखद है कि हाल ही में कई इस्लामिक देशों में कुछ ऐसे बदलाव हुए जो सुधार एवं परिवर्तन, उदारता एवं सहिष्णुता, सहयोग एवं समन्वय की उम्मीद जगाते हैं।   2015 में  सऊदी अरब में महिलाओं को मत देने का अधिकार सौंपा गया तो पूरी दुनिया में उसकी प्रशंसा हुई।सऊदी अरब सबसे अंत में महिलाओं को मताधिकार सौंपने वाला देश बना। वर्ष 2018 में जब उसने महिलाओं को कार चलाने की इजाज़त दी तो उसकी भी चारों ओर प्रशंसा हुई। ऐसे अनेक सुधार पिछले कुछ महीनों-वर्षों से वहाँ देखने को मिल रहे हैं। चाहे महिलाओं के अकेले यात्रा करने का मुद्दा हो या अपनी रुचि एवं मर्ज़ी के परिधान पहनने का, ये सभी बदलाव इस्लाम के युग विशेष से आगे बढ़ने की ओर संकेत करते हैं। क़बीलाई एवं मध्य युगीन मानसिकता से बाहर आना इस्लाम की सबसे बड़ी चुनौती है। सुखद है कि इस्लामिक देशों में सुधार और बदलाव की मंद-मद्धिम बयार बहने लगी है। इसमें जो सबसे ताजा एवं उल्लेखनीय बदलाव है- वह है कुछ दिनों पूर्व सऊदी अरब के विभिन्न मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकरों पर नमाज के वक्त ऊँची आवाज़ में दिए जाने वाले अज़ान पर कुछ शर्त्तों और पाबंदियों का लगना। एक वहाबी विचारधारा वाले देश में ऐसी पाबन्दियाँ एवं शर्त्तें एक युगांतकारी निर्णय एवं घटना है। इसमें भविष्य के उजले संकेत निहित हैं। इस तर्क में दम है कि क्या अल्लाह लाऊड स्पीकर से दिए जाने वाले अजान को ही स्वीकार करता है? कबीर, जिनकी विरासत पर भारत के मुसलमान भी अपना दावा करते हैं, ने तो बहुत पहले उन्हें सचेत करते हुए कहा था कि – ”कंकड़ पत्थर जोड़ि के, मस्ज़िद लियो बनाई।ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ ख़ुदाय।।”

 
सोचने वाली बात है कि पैग़ंबर मोहम्मद के समय तो लाउडस्पीकर का आविष्कार भी नहीं हुआ होगा? तब लोग कैसे नमाज और अज़ान पढ़ते होंगें? तब कैसे नमाज़ी घरों से मस्ज़िदों तक बुलाए जाते होंगें। आश्चर्य है कि जो इस्लाम विज्ञान एवं तकनीक को लगभग अस्पृश्य-सा समझता है, साहित्य, संगीत, कला और अभिव्यक्ति पर तमाम प्रकार के पहरे लगाता है, वह नमाज एवं अज़ान के लिए वैज्ञानिक उपकरणों एवं अविष्कारों के प्रयोग से परहेज़ नहीं करता! असली तार्किकता एवं वैज्ञानिकता समय के साथ चलने में है। यह सऊदी अरब की सरकार का बिलकुल उचित एवं समयानुकूल फ़ैसला है कि एक निश्चित समय के बाद एवं निश्चित ध्वनि से ऊँची आवाज़ में मस्जिदों पर लाउडस्पीकर न बजाई जाय। कितने बुजूर्ग-बीमार, बूढ़े-बच्चे, स्त्री-पुरुष मस्ज़िदों में बजने वाले लाउडस्पीकरों की ऊँची आवाज़ से अनिद्रा एवं अवसाद के शिकार हो जाते हैं। इससे बच्चों की पढ़ाई में अत्यधिक बाधा पहुँचती है। अलग-अलग शिफ़्ट में काम करने वाले लोग दो पल चैन की नींद नहीं ले पाते।

भारत जैसे देश, जहाँ रोज नई-नई मस्ज़िदों की कतारें खड़ी होती जा रही हैं, वहाँ की स्थितियाँ तो और भयावह एवं कष्टप्रद हैं। वैसे ही यहाँ अधिकांश लोग अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हैं। ऊपर से आए दिन होने वाले जलसे-जनाज़े, धरने-प्रदर्शन, हड़ताल-आंदोलन ने उनके दिन का चैन और रातों की नींद पहले ही छीन रखी है, जो थोड़ा-बहुत सुकून रात्रि के अंतिम प्रहर और भोर की शांत-स्निग्ध वेला में नसीब होती है, मस्जिदों पर बजने वाले लाउडस्पीकर उनसे वह भी छीन लेते हैं। और यदि किसी ने पुलिस-प्रशासन में शिकायत भी की, तो अव्वल तो उसकी शिक़ायत दर्ज ही नहीं की जाती और कहीं जो वह मीडिया के माध्यम से सुखियाँ बन जायँ तो बात दंगे-फ़साद, मार-काट, फ़तवे-फ़रमान तक पहुँच जाती है। शिक़ायत दर्ज कराने वाला या विरोध का वैध स्वर बुलंद करने वाला स्वयं को एकाकी-असहाय महसूस करता है। कथित बौद्धिक एवं नकली धर्मनिरपेक्षतावादी वर्ग उसका सहयोग करने के स्थान पर सुपारी किलर की भूमिका में अधिक नज़र आता है। पूरा इस्लामिक आर्थिक-सामाजिक तंत्र (ईको-सिस्टम) हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाता है।

अपने देश में पक्ष बदलते ही अभिव्यक्ति के अधिकार के मायने भी बदल जाते हैं। उलटे विरोध या शिकायत दर्ज कराने वाले व्यक्ति की सार्वजनिक छवि को येन-केन-प्रकारेण ध्वस्त करने का कुचक्र व षड्यंत्र रचा जाता है। कुछ वर्षों पूर्व प्रसिद्ध गायक सोनू निगम एवं अभिजीत भट्टाचार्या या हाल के दिनों में कंगना रनौत को ऐसी ही मर्मांतक पीड़ा एवं यातनाओं से गुज़रना पड़ा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संविधान-प्रदत्त अधिकारों का उचित एवं मुद्दा-आधारित उपयोग मात्र करने के कारण उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रॉल का भयानक शिकार होना पड़ा, इमामों-मौलानाओं के फ़तवे-फ़रमान का सामना करना पड़ा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि क़ानून-व्यवस्था से संचालित, संविधान-सम्मत, धर्मनिरपेक्ष देश में कुछ ताक़तवर-मज़हबी लोगों, इमामों-मौलानाओं और समुदायों को ”किसी का गला रेतने, किसी को चैराहे पर टाँगने” जैसे अवैधानिक, बल्कि आपराधिक फ़तवे-फ़रमान ज़ारी करने की खुली छूट मिली हुई है। ऐसे फ़तवे-फ़रमान ज़ारी करने वालों के विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। उलटे नकली धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उनके ज़हरीले बयानों-फ़तवे-फ़रमानों का बचाव किया जाता है, खुलेआम किया जाता है, अख़बारों और टेलीविज़न पर आयोजित प्राइम टाइम बहस में किया जाता है।


यदि इस्लामिक देश सऊदी अरब वर्तमान की आवश्यकता, सभ्य एवं उदार समाज की रचना-स्थापना और अपने नागरिकों के सुविधा-सुरक्षा-स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मस्जिदों में ऊँची आवाज़ में बजने वाले लाउडस्पीकरों पर शर्त्तें और पाबन्दियाँ लगा सकता है तो धर्मनिरपेक्ष देश भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? कुकरमुत्ते की तरह हर गली-चौक-चौराहे-सड़क-बाजार-प्लेटफॉर्म-स्टेशनों-बस अड्डों-सरकारी ज़मीनों पर उग आए मस्ज़िदों और घनी आबादी के कारण यहाँ तो इसकी और अधिक आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि सऊदी अरब के इस्लामिक मामलों के मंत्री डॉक्टर अब्दुल लतीफ़ बिन अब्दुल्ला अज़ीज़ अल-शेख ने अपने आदेश में लिखा, “मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर का प्रयोग सिर्फ़ धर्मावलंबियों को नमाज़ के लिए बुलाने (अज़ान के लिए) और इक़ामत (नमाज़ के लिए लोगों को दूसरी बार पुकारने) के लिए ही किया जाए और उसकी आवाज़ स्पीकर की अधिकतम आवाज़ के एक तिहाई से ज़्यादा ना हो.” उन्होंने यह भी लिखा कि “इस आदेश को ना मानने वालों के ख़िलाफ़ प्रशासन की ओर से कड़ी कार्रवाई की जाएगी.” इस्लामिक मामलों के मंत्रालय ने इस आदेश के पीछे शरीयत की दलील दी है. कहा गया है कि सऊदी प्रशासन का यह आदेश पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद की हिदायतों पर आधारित है जिन्होंने कहा कि “हर इंसान चुपचाप अपने रब को पुकार रहा है. इसलिए किसी दूसरे को परेशान नहीं करना चाहिए और ना ही पाठ में या प्रार्थना में दूसरे की आवाज़ पर आवाज़ उठानी चाहिए.”


सऊदी प्रशासन ने अपने आदेश में तर्क दिया है कि “इमाम नमाज़ शुरू करने वाले हैं, इसका पता मस्जिद में मौजूद लोगों को चलना चाहिए, ना कि पड़ोस के घरों में रहने वाले लोगों को.  बल्कि यह क़ुरान शरीफ़ का अपमान है कि आप उसे लाउडस्पीकर पर चलाएँ और कोई उसे सुने ना या सुनना ना चाहे.”
क्या यह अच्छा नहीं होगा कि भारत के उदार, सहिष्णु, जागरूक एवं प्रबुद्ध मुसलमान बड़ी संख्या में आगे आकर ऐसी माँग रखें, इस्लाम के भीतर ऐसा सुधारवादी आंदोलन चलाएँ  जो उसके उदार एवं सहिष्णु पक्ष को उज़ागर करे! वे इमामों-मौलानाओं-स्कॉलरों को मनाएँ ताकि उनके मज़हबी एवं दकियानूसी रिवाज़ों के कारण बीमारों-वृद्धों-बच्चों-लाचारों को अकारण कोई कष्ट न हो!  और न मानने की स्थिति में वे सरकार से हस्तक्षेप कर क़ानून बनाने की सार्वजनिक अपील करें। जिस दिन भारत में मुसलमानों की ओर से ऐसे स्वर उठने लगेंगें, ऐसी अपीलें ज़ारी होनी लगेंगीं, उस दिन से भारत के मुसलमान सचमुच धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार माने-समझे जाएँगें।


प्रणय कुमार

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