एक जमाने में कपड़े धोने के साबुन का विज्ञापन आया करता था; “सफेदी की चमकार, बार-बार लगातार”। यह ’चमकार’ शब्द कुछ अजीब सा था, इसलिए विज्ञापन याद रहा। उस जमाने की बात पुरानी हो गई, पर आजकल यह “बार-बार लगातार, चमकार” काफ़ी झेलनी पड़ रही है, किसी और संदर्भ में। चलिए कुछ उदाहरण देखें:

1) एक सज्जन मेरे “इन्व्हेस्टमेंट एडवाईजर हैं”। सरल शब्दों में कहें तो किस म्युचुअल फंड में या किस डिपोजिट स्कीम में पैसे लगाएँ, यह बताते हैं। जब लॉक डाऊन शुरु हुआ तो उन्होंने एक वेबिनार के लिए आमंत्रित किया, “इन परिस्थितियों में कैसे निवेश” करें, कुछ टिप्स भी भेजी, बड़ा अच्छा लगा, कितना ध्यान रखते हैं।

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पर अब वे रोज एक वेबीनार का आमंत्रण भेजते हैं। रोज ही, उसी पैसे का क्या करें इस विषय पर सलाह भेजते हैं। ऊब गए उनके संदेश झेलते-झेलते, पैसा बढ़ता नहीं, पर सलाहों के ढेर लग गए।

2) एक राष्ट्र्भक्त मित्र हैं, उन्होंने कुछ महीने पहले संदेश भेजा “आज का दिन महत्वपूर्ण है, फ़लाँ फ़लाँ महापुरुष का जन्मदिन है”, उनकी जीवनी भी दी उन्होंने। हम आत्मग्लानि में डूब गए। धिक्कार हैं! कि हम इतने बड़े आदमी के बारे में जानकारी भूल गए?  

पर, अब रोज ही वे किसी महापुरुष के बारे में भेजते हैं, जिसका या तो जन्मदिन होता है या निर्वाण दिन होता है। अब इतने महापुरुष हो गए कि दिमाग में जगह ही नहीं रही। अंततोगत्वा केवल 15 अगस्त, 26 जनवरी और  2 अक्तूबर ही याद रहते हैं।

3) एक कवि मित्र हैं, मेरे जैसे कुछ लोगों ने उनकी रचना की तारीफ़ कर दी। अब उन्होंने अपना एक यू-ट्यूब चैनल बना लिया है, जिस पर कविता पाठ करते हैं। रोज सुबह उनकी एक रचना की लिंक आ जाती है, कभी-कभी तो दो-तीन भी। उस पर अनुरोध यह कि आप लाईक कीजिए और दूसरों के साथ शेयर भी कीजिए।

एक बार होता तो करता भी, पर रोज-रोज? अब पशोपेश में हूँ, कैसे कहूँ कि आप अच्छे है, पर इतने भी नहीं।

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4) एक गाने वाले मित्र हैं, कराओके पर गाने वाले जिस तरह के होते हैं वैसे ही। एक बार उन्होंने फेसबुक पर अपना गाना डाला, लोगों ने उसे लाईक कर दिया। बस क्या था, आजकल हर शाम को वे “वाच पार्टी” करते हैं।  हालांकि उस पार्टी में उपस्थिती दिन ब दिन कम होती जा रही है, पर उनका उत्साह बरकरार है।  

5) आमंत्रण ही आमंत्रण : आजकल मुझे ई-मेल, फोन द्वारा इतने जादा सेमिनार, माफ़ कीजिए वेबिनार के आमंत्रण मिलते हैं कि, लगता है उन्हें वक्ता का समय लेने की जगह, श्रोता यानि मेरा समय लेना चाहिए। हर विषय के इतने विशेषज्ञ हो गए हैं कि ताज्जुब होता है, अब तक कहाँ थे? अगर विषय कोरोना संबंधित हो तो बस पूछिए ही मत।

केवल यह गिने चुने उदाहरण होते तो में लिखता ही नहीं, पर जिस तरह से आजकल ज़ूम वेबिनार, फ़ेस बुक लाईव, यू ट्यूब लाईव की बाढ़ आई हुई है, आपको किसी एन.डी.आर.एफ़. की आवश्यकता पड़ सकती है, बचाने के लिए। सलाह देखें तो,  इतनी सलाह , इतनी सलाह कि आप को कौन सी सलाह मानना चाहिए, इसके लिए भी एक सलाहकार की जरूरत पड़ सकती है।

उसी तरह लगता है मानो लॉक डाऊन, और अब अनलॉक के दौरान लोगों की रचनाधर्मिता में दोगुनी- तिगुनी वृद्धि हो गई हो । अब उसमें सभी पठनीय, श्रवणीय या दर्शनीय हो, यह तो जरूरी नहीं। 

उन लोगों को कैसे समझाया जाए कि जिस चीज़ को पहली बार करने में नवीनता थी, कौतूहल था, वह अब नहीं है। उस पर अगर आप रोज-रोज वेबिनार करें, या कविता लिखें (और कहें) तो वो बात तो नहीं रहेगी। अब अगर बार-बार लगातार उनकी चमकार होती रहे, तो मुश्किल है ।

यह बात अलग है, कि आप मेरे इस लेख के बारे में भी यही बात कह सकते हैं, तो उसके लिये मैं अग्रिम माफ़ी चाहता हूँ।

ऋषिकेश जोशी

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