ऋग्वेद में वर्णित एक युद्ध है जिसे दाशराज्ञ युद्ध या दस राजन युद्ध कहते है। विश्व के युद्ध के रेकॉर्ड में ये सबसे प्राचीन(रामायण और महाभारत से भी) युद्ध है। ऋग्वेद के 7 मण्डल के 18, 33 और 83(मंत्र 4 से 8) सूक्तों के मंत्रों में इस युद्ध का वर्णन मिलता है। इस युद्ध को अब ऐतिहासिक द्रष्टि कोण से देखा जाता है क्योंकि अब Aryan Invasion और Aryan Migration जैसी थियरी Debunk हो चुकी है ये बात राखी गढ़ी के डीएनए जांच से साबित हो चुकी है। तो चलिए सबसे पहले नीचे दिये गए ऋग्वेद की ऋचाओं को देखते है।

दा॒श॒रा॒ज्ञे परि॑यत्ताय वि॒श्वत॑: सु॒दास॑ इन्द्रावरुणावशिक्षतम् ।
श्वि॒त्यञ्चो॒ यत्र॒ नम॑सा कप॒र्दिनो॑ धि॒या धीव॑न्तो॒ अस॑पन्त॒ तृत्स॑वः ॥

ऋग्वेद: मण्डल-7, सूक्त-83, ऋचा-8

भावार्थ: (यत्र) जिस युद्ध में (नमसा) प्रभुता से (कपर्दिनः) उत्तम अलंकारयुक्त (धीवन्तः) बुद्धिमान् (तृत्सवः) कर्मकाण्डी (श्वित्यञ्चः) सदाचारी (असपन्त) युद्ध्रूप कर्म में (धिया) बुद्धिपूर्वक प्रवृत्त होता है, उस युद्ध में (विश्वतः) सब ओर से (दाशराज्ञे, परियत्ताय) दश राजाओं के आक्रमण करने पर (सुदासे) वेदानुयायी राजा को (इन्द्रावरुणौ) हे अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में कुशल विद्वानों ! (अशिक्षतं) बल प्रदान करो॥

ऊपर के मंत्र से पता चलता है की ऋग्वेद के समय में एक महान युद्ध हुआ था। अब प्रश्न यह है की ये युद्ध किन किन राजाओं के बीच हुआ था? तो हम महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र के द्वंद्व के बारे में जानते ही है। पहले विश्वामित्र सुदास के पुरोहित थे लेकिन सुदास ने वशिष्ठ को अपना पुरोहित बनाया इसीलिए दोनों में द्वंद्व छिड़ गया और नतीजा दस राजाओं का युद्ध हुआ। ये युद्ध इन दो ऋषि के मार्गदर्शन में युद्ध हुआ था। जिन में महर्षि वशिष्ठ ऋषि की ओर से राजा सुदास थे जो तृत्सु नामक वंश के थे। और महर्षि विश्वामित्र की ओर पुरू वंश के संवरण राजा थे जिसने एक संगठन बनाया था जिसमें नौ राजा थे। जिन के नाम है अलीन, अनु, भृगु, भालन, द्रुह्यु, मत्स्य, परसु, पुरू और पणि थे। यह युद्ध पुरुष्णि याने रावी नदी के तट पर हुआ था। कुल मिलकर दस राजाओं ने युद्ध में हिस्सा लिया था। युद्ध में वशिष्ठ ऋषि के मार्गदर्शन में लड़ रहे सुदास विजयी रहे और विश्वामित्र के मार्गदर्शन में लड़ रहे राजाओं की हार हुई और महर्षि विश्वामित्र को भूगर्भ में जाना पड़ा। कुछ वर्ष पश्चात विश्वामित्र महा शक्तिशाली बन के बाहर आए।

अब हम प्रत्येक राजा के बारे में थोड़ा संक्षेप में देखे।

  • सुदास: तृत्सु वंश के राजा थे जो महर्षि वशिष्ठ के मार्गदर्शन में युद्ध लड़े थे और दशराज्ञ युद्ध के विजेता थे। जिसका वर्णन ऋग्वेद मण्डल7 के सूक्त 18, मण्डल-7 के सूक्त 33 और मण्डल 7 के सूक्त 83 में ऋचा 4 से 8 में मिलता है। अब महर्षि विश्वामित्र की ओर से युद्ध करने वाले राजाओं के बारे में जानते है।
  • अलीन: इस वंश का उल्लेख चीनी तीर्थ यात्री हुएन त्सांग ने भी क्या है। हुएन त्सांग के अनुसार ये लोग आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान के नूरिस्तान क्षेत्र से पूर्वोत्तर में रहते थे । उस जगह पर इनकी गृह भूमि होने का उल्लेख किया था।
  • अनु: इस वंश के लोग भारत के पश्चिमोत्तर भाग में बसते थे। उनका उल्लेख ऋग्वेद में उनका उल्लेख द्रुह्यु वंश के लोगो के साथ आता है।
  • भृगु: महर्षि भृगु के वंशज जो विश्वामित्र की ओर से लड़े थे।
  • भालन: इस वंश के बारे में बहुत सारे इतिहासकार मानते है की ये लोग आधुनिक बलोचिस्तान के बोलन दर्रे क्षेत्र में रहते थे।
  • द्रुह्यु: इनका वर्णन ऋग्वेद में अनु समुदाय के साथ आता है। ये मूलतः गांधार के निवासी थे और राजा का नाम अंगार जानने को मिलता है। लेकिन कहा जाता है की इस युद्ध के बाद इन्हें मध्य एशिया की तरफ खदेड़ दिया गया। इस वंश के इतिहास से साबित होता है की भारत से आर्य बाहर चले गए थे।
  • मत्स्य : इस वंश के बारे में केवल एक बार ही ऋग्वेद के मण्डल-7 के सूक्त 18 के ऋचा-6 में ही बताया गया है। लेकिन बाद में में इनका शाल्व के सम्बन्ध में भी उल्लेख मिलता है।
  • परसु: यह निर्विवाद पारसी है जो युद्ध हारने के बाद अपनी भूमि छोड़ पश्चिम दिशा में जाकर पारसिक देश बसाया जो आज का ईरान है।
  • पुरु: इस वंश के बारे में ज्यादा लिखने की जरूर ही नहीं है क्योंकि कई पुराणो में इनके बारे में लिखा गया है।
  • पणि: हमारे प्राचीन धर्मग्रंथो में इन्हें दानवों की श्रेणी में रखा गया है। लेकिन अभी इतिहासकार इसे स्किथी Scythians) के साथ जोड़ते है।

अब भारत से बाहर लोग कैसे गए होगे ये रिसर्च का विषय है। जब आर्यन इन्वेसन | आर्यन माइग्रेशन थियरी फ्लॉप हो चुकी है तो अब नए सिरे से ये रिसर्च करने की जरूरत है। जैसे द्रुह्यु और परसु का भारत के बाहर जाना वैसे ही अलीन वंश से ही लोग बाहर गए हो सकते है जैसे ग्रीस में हेलेन या अलन लोगों की कहानी है।

या फिर पठान जिसे पखतों कहा गया है या पार्थव कहा गया है।

युवां नरा पश्यमानास आप्यं प्राचा गव्यन्तः पृथुपर्शवो ययुः ।
दासा च वृत्रा हतमार्याणि च सुदासमिन्द्रावरुणावसावतम् ॥

ऋग्वेद: मण्डल-7, सूक्त-83, ऋचा-1

आ पक्थासो भलानसो भनन्तालिनासो विषाणिनः शिवासः ।
आ योऽनयत्सधमा आर्यस्य गव्या तृत्सुभ्यो अजगन्युधा नॄन् ॥

ऋग्वेद: मण्डल-7, सूक्त-18, ऋचा-7

या फिर भृगु भारत से बाहर गए हो उनको Phyrgians से जोड़ा जा सकता है।

पुरोळा इत्तुर्वशो यक्षुरासीद्राये मत्स्यासो निशिता अपीव ।
श्रुष्टिं चक्रुर्भृगवो द्रुह्यवश्च सखा सखायमतरद्विषूचोः ॥

ऋग्वेद: मण्डल-7, सूक्त-18, ऋचा-6

इस तरह से हम देख सकते है की भारत से मध्य एशिया या ईरान लोग गए थे। अब इतिहास को नए सिरे से देखने की जरूरत है।

संपुर्ण संदर्भ: ऋग्वेद मण्डल ७

त्वे ह यत्पितरश्चिन्न इन्द्र विश्वा वामा जरितारो असन्वन् ।
त्वे गावः सुदुघास्त्वे ह्यश्वास्त्वं वसु देवयते वनिष्ठः ॥१॥
राजेव हि जनिभिः क्षेष्येवाव द्युभिरभि विदुष्कविः सन् ।
पिशा गिरो मघवन्गोभिरश्वैस्त्वायतः शिशीहि राये अस्मान् ॥२॥
इमा उ त्वा पस्पृधानासो अत्र मन्द्रा गिरो देवयन्तीरुप स्थुः ।
अर्वाची ते पथ्या राय एतु स्याम ते सुमताविन्द्र शर्मन् ॥३॥
धेनुं न त्वा सूयवसे दुदुक्षन्नुप ब्रह्माणि ससृजे वसिष्ठः ।
त्वामिन्मे गोपतिं विश्व आहा न इन्द्रः सुमतिं गन्त्वच्छ ॥४॥
अर्णांसि चित्पप्रथाना सुदास इन्द्रो गाधान्यकृणोत्सुपारा ।
शर्धन्तं शिम्युमुचथस्य नव्यः शापं सिन्धूनामकृणोदशस्तीः ॥५॥
पुरोळा इत्तुर्वशो यक्षुरासीद्राये मत्स्यासो निशिता अपीव ।
श्रुष्टिं चक्रुर्भृगवो द्रुह्यवश्च सखा सखायमतरद्विषूचोः ॥६॥
आ पक्थासो भलानसो भनन्तालिनासो विषाणिनः शिवासः ।
आ योऽनयत्सधमा आर्यस्य गव्या तृत्सुभ्यो अजगन्युधा नॄन् ॥७॥
दुराध्यो अदितिं स्रेवयन्तोऽचेतसो वि जगृभ्रे परुष्णीम् ।
मह्नाविव्यक्पृथिवीं पत्यमानः पशुष्कविरशयच्चायमानः ॥८॥
ईयुरर्थं न न्यर्थं परुष्णीमाशुश्चनेदभिपित्वं जगाम ।
सुदास इन्द्रः सुतुकाँ अमित्रानरन्धयन्मानुषे वध्रिवाचः ॥९॥
ईयुर्गावो न यवसादगोपा यथाकृतमभि मित्रं चितासः ।
पृश्निगावः पृश्निनिप्रेषितासः श्रुष्टिं चक्रुर्नियुतो रन्तयश्च ॥१०॥
एकं च यो विंशतिं च श्रवस्या वैकर्णयोर्जनान्राजा न्यस्तः ।
दस्मो न सद्मन्नि शिशाति बर्हिः शूरः सर्गमकृणोदिन्द्र एषाम् ॥११॥
अध श्रुतं कवषं वृद्धमप्स्वनु द्रुह्युं नि वृणग्वज्रबाहुः ।
वृणाना अत्र सख्याय सख्यं त्वायन्तो ये अमदन्ननु त्वा ॥१२॥
वि सद्यो विश्वा दृंहितान्येषामिन्द्रः पुरः सहसा सप्त दर्दः ।
व्यानवस्य तृत्सवे गयं भाग्जेष्म पूरुं विदथे मृध्रवाचम् ॥१३॥
नि गव्यवोऽनवो द्रुह्यवश्च षष्टिः शता सुषुपुः षट् सहस्रा ।
षष्टिर्वीरासो अधि षड्दुवोयु विश्वेदिन्द्रस्य वीर्या कृतानि ॥१४॥
इन्द्रेणैते तृत्सवो वेविषाणा आपो न सृष्टा अधवन्त नीचीः ।
दुर्मित्रासः प्रकलविन्मिमाना जहुर्विश्वानि भोजना सुदासे ॥१५॥
अर्धं वीरस्य शृतपामनिन्द्रं परा शर्धन्तं नुनुदे अभि क्षाम् ।
इन्द्रो मन्युं मन्युम्यो मिमाय भेजे पथो वर्तनिं पत्यमानः ॥१६॥
आध्रेण चित्तद्वेकं चकार सिंह्यं चित्पेत्वेना जघान ।
अव स्रक्तीर्वेश्यावृश्चदिन्द्रः प्रायच्छद्विश्वा भोजना सुदासे ॥१७॥
शश्वन्तो हि शत्रवो रारधुष्टे भेदस्य चिच्छर्धतो विन्द रन्धिम् ।
मर्ताँ एन स्तुवतो यः कृणोति तिग्मं तस्मिन्नि जहि वज्रमिन्द्र ॥१८॥
आवदिन्द्रं यमुना तृत्सवश्च प्रात्र भेदं सर्वताता मुषायत् ।
अजासश्च शिग्रवो यक्षवश्च बलिं शीर्षाणि जभ्रुरश्व्यानि ॥१९॥
न त इन्द्र सुमतयो न रायः संचक्षे पूर्वा उषसो न नूत्नाः ।
देवकं चिन्मान्यमानं जघन्थाव त्मना बृहतः शम्बरं भेत् ॥२०॥
प्र ये गृहादममदुस्त्वाया पराशरः शतयातुर्वसिष्ठः ।
न ते भोजस्य सख्यं मृषन्ताधा सूरिभ्यः सुदिना व्युच्छान् ॥२१॥
द्वे नप्तुर्देववतः शते गोर्द्वा रथा वधूमन्ता सुदासः ।
अर्हन्नग्ने पैजवनस्य दानं होतेव सद्म पर्येमि रेभन् ॥२२॥
चत्वारो मा पैजवनस्य दानाः स्मद्दिष्टयः कृशनिनो निरेके ।
ऋज्रासो मा पृथिविष्ठाः सुदासस्तोकं तोकाय श्रवसे वहन्ति ॥२३॥
यस्य श्रवो रोदसी अन्तरुर्वी शीर्ष्णेशीर्ष्णे विबभाजा विभक्ता ।
सप्तेदिन्द्रं न स्रवतो गृणन्ति नि युध्यामधिमशिशादभीके ॥२४॥
इमं नरो मरुतः सश्चतानु दिवोदासं न पितरं सुदासः ।
अविष्टना पैजवनस्य केतं दूणाशं क्षत्रमजरं दुवोयु ॥२५॥

ऋग्वेद मण्डल ७ सूक्त १८

श्वित्यञ्चो मा दक्षिणतस्कपर्दा धियंजिन्वासो अभि हि प्रमन्दुः ।
उत्तिष्ठन्वोचे परि बर्हिषो नॄन्न मे दूरादवितवे वसिष्ठाः ॥१॥
दूरादिन्द्रमनयन्ना सुतेन तिरो वैशन्तमति पान्तमुग्रम् ।
पाशद्युम्नस्य वायतस्य सोमात्सुतादिन्द्रोऽवृणीता वसिष्ठान् ॥२॥
एवेन्नु कं सिन्धुमेभिस्ततारेवेन्नु कं भेदमेभिर्जघान ।
एवेन्नु कं दाशराज्ञे सुदासं प्रावदिन्द्रो ब्रह्मणा वो वसिष्ठाः ॥३॥
जुष्टी नरो ब्रह्मणा वः पितॄणामक्षमव्ययं न किला रिषाथ ।
यच्छक्वरीषु बृहता रवेणेन्द्रे शुष्ममदधाता वसिष्ठाः ॥४॥
उद्द्यामिवेत्तृष्णजो नाथितासोऽदीधयुर्दाशराज्ञे वृतासः ।
वसिष्ठस्य स्तुवत इन्द्रो अश्रोदुरुं तृत्सुभ्यो अकृणोदु लोकम् ॥५॥
दण्डा इवेद्गोअजनास आसन्परिच्छिन्ना भरता अर्भकासः ।
अभवच्च पुरएता वसिष्ठ आदित्तृत्सूनां विशो अप्रथन्त ॥६॥
त्रयः कृण्वन्ति भुवनेषु रेतस्तिस्रः प्रजा आर्या ज्योतिरग्राः ।
त्रयो घर्मास उषसं सचन्ते सर्वाँ इत्ताँ अनु विदुर्वसिष्ठाः ॥७॥
सूर्यस्येव वक्षथो ज्योतिरेषां समुद्रस्येव महिमा गभीरः ।
वातस्येव प्रजवो नान्येन स्तोमो वसिष्ठा अन्वेतवे वः ॥८॥
त इन्निण्यं हृदयस्य प्रकेतैः सहस्रवल्शमभि सं चरन्ति ।
यमेन ततं परिधिं वयन्तोऽप्सरस उप सेदुर्वसिष्ठाः ॥९॥
विद्युतो ज्योतिः परि संजिहानं मित्रावरुणा यदपश्यतां त्वा ।
तत्ते जन्मोतैकं वसिष्ठागस्त्यो यत्त्वा विश आजभार ॥१०॥
उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठोर्वश्या ब्रह्मन्मनसोऽधि जातः ।
द्रप्सं स्कन्नं ब्रह्मणा दैव्येन विश्वे देवाः पुष्करे त्वाददन्त ॥११॥
स प्रकेत उभयस्य प्रविद्वान्सहस्रदान उत वा सदानः ।
यमेन ततं परिधिं वयिष्यन्नप्सरसः परि जज्ञे वसिष्ठः ॥१२॥
सत्रे ह जाताविषिता नमोभिः कुम्भे रेतः सिषिचतुः समानम् ।
ततो ह मान उदियाय मध्यात्ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम् ॥१३॥
उक्थभृतं सामभृतं बिभर्ति ग्रावाणं बिभ्रत्प्र वदात्यग्रे ।
उपैनमाध्वं सुमनस्यमाना आ वो गच्छाति प्रतृदो वसिष्ठः ॥१४॥

ऋग्वेद मण्डल ७ सूक्त ३३

युवां नरा पश्यमानास आप्यं प्राचा गव्यन्तः पृथुपर्शवो ययुः ।
दासा च वृत्रा हतमार्याणि च सुदासमिन्द्रावरुणावसावतम् ॥१॥
यत्रा नरः समयन्ते कृतध्वजो यस्मिन्नाजा भवति किं चन प्रियम् ।
यत्रा भयन्ते भुवना स्वर्दृशस्तत्रा न इन्द्रावरुणाधि वोचतम् ॥२॥
सं भूम्या अन्ता ध्वसिरा अदृक्षतेन्द्रावरुणा दिवि घोष आरुहत् ।
अस्थुर्जनानामुप मामरातयोऽर्वागवसा हवनश्रुता गतम् ॥३॥
इन्द्रावरुणा वधनाभिरप्रति भेदं वन्वन्ता प्र सुदासमावतम् ।
ब्रह्माण्येषां शृणुतं हवीमनि सत्या तृत्सूनामभवत्पुरोहितिः ॥४॥
इन्द्रावरुणावभ्या तपन्ति माघान्यर्यो वनुषामरातयः ।
युवं हि वस्व उभयस्य राजथोऽध स्मा नोऽवतं पार्ये दिवि ॥५॥
युवां हवन्त उभयास आजिष्विन्द्रं च वस्वो वरुणं च सातये ।
यत्र राजभिर्दशभिर्निबाधितं प्र सुदासमावतं तृत्सुभिः सह ॥६॥
दश राजानः समिता अयज्यवः सुदासमिन्द्रावरुणा न युयुधुः ।
सत्या नृणामद्मसदामुपस्तुतिर्देवा एषामभवन्देवहूतिषु ॥७॥
दाशराज्ञे परियत्ताय विश्वतः सुदास इन्द्रावरुणावशिक्षतम् ।
श्वित्यञ्चो यत्र नमसा कपर्दिनो धिया धीवन्तो असपन्त तृत्सवः ॥८॥
वृत्राण्यन्यः समिथेषु जिघ्नते व्रतान्यन्यो अभि रक्षते सदा ।
हवामहे वां वृषणा सुवृक्तिभिरस्मे इन्द्रावरुणा शर्म यच्छतम् ॥९॥
अस्मे इन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा द्युम्नं यच्छन्तु महि शर्म सप्रथः ।
अवध्रं ज्योतिरदितेरृतावृधो देवस्य श्लोकं सवितुर्मनामहे ॥१०॥

ऋग्वेद मण्डल ७ सूक्त ८३

इस युद्ध से हम अंदाजा लगा सकते है कि सनातन सभ्यता पूरे विश्व में कब और कैसे फैलना शुरू हुई होगी और क्यों संस्कृत दुनिया की सारी भाषाओं की जननी है। क्यों भारत से जुड़े रीति रिवाज पूरी दुनिया में पाये जाते है और क्यों हमारी संस्कृति दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है।

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