जय जवान जय किसान बोल बोल के सारे भारतीयों के मन में किसानों के प्रति एक भगवान रूपी भाव बना दिया है। पर ये ऐसा भाव है जो कि किसानों की सबसे बड़ी समस्या बन पड़ा है। कारण सीधा सा है। किसानों को बेचारा, निरीह, निर्धन बनाकर उनके विषय में कभी बुद्धि से निर्णय नहीं लिया जाता। निर्णय वोट के लालच से लिया जाता है।
भारत के विषय में ये जानना आवश्यक है कि अंग्रेजों ने भारत में जो अत्याचार किए उसमे सबसे बड़ी मार देश के किसानों को ही पड़ी, विशेषकर तब जब शहरों के कामगारों को भी काम न मिलने से गाँव को वापस आना पड़ा और किसानों की संख्या आवश्यकता से अधिक हो गई। ये समस्या आज भी जस की तस है। भारतीय समाज का, विशेषकर गाँवों का सत्यानाश करने में खून चूसने वाले कर पहले दिल्ली सल्तनत ने फिर मुगलों ने और फिर अंग्रेजों ने लगाए। ऊपर से अपने जमीनदार, जागीरदार बैठा दिए जिसके कारण किसान इन ज़मींदारों के और साहुकारों के बीच एक फुटबाल बन कर रह गए। देखने वाली बात ये है की चाणक्य के समय के मौर्य साम्राज्य की बात हो, गुप्त साम्राज्य की बात हो या विजयनगर साम्राज्य की बात हो, ये सारे कालखंडों और साम्राज्यों में न केवल किसान खुशहाल थे अपितु विभिन्न संगठनों से अनेकानेक व्यापार भी करते थे। कहने का अर्थ की किसान बहुआयामी थे। अपनी फसल स्वयं उगाते, अपने हिसाब से बेचते, भूमि की भी आवश्यकता अनुसार सेवा और देखभाल करते, पशुपालन करते और लगभग १६ प्रतिशत कर भी देते। ये कर सल्तनत में ३३ प्रतिशत से अधिक हो गए और किसानों की स्वतंत्रता और कईयों की तो भूमि भी छीन गई। ऊपर से जजिया जैसे करों ने उत्तर भारतीय समाज को निर्धनता के गर्त में धकेल दिया। यही हाल मुगलों के काल में रहा। बहुत से मराठा योद्धा तो स्वयं किसान भी थे। तो किसानों ने योद्धा और क्षत्रिय बन कर राज भी किया। पर अंग्रेजों ने जो सत्यानाश किया उसके दीर्घकालीन परिमाण हुए जिनसे आज भी भारतीय कृषक उबर नहीं पाया। कारण कि भारत में समाजवाद के नाम पर बनाई गई नीतियों ने विभिन्न व्यापारिक अवसर जो एक स्वतंत्र भारत में भारतीय नागरिकों को मिलने चाहिए थे, वो देने के बजाय छिन लिए। १९९१ के बाद कम से कम व्यापारिक स्वतंत्रता भारतीयों को मिलने लगी और उसका परिणाम भी दिखने लगा।

परंतु ये स्वतंत्रता भारतीय किसानों को नहीं मिली। आज भी उन्हें मंडी में जाके फसल बेचनी पड़ती है। बिचौलियों से मेल भाव करना होता है। और ऐसा भी नहीं की वो किसी और मंडी में चले जाएं। इसके अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण किसान केवल गिनी चुनी फ़सलों को ही उगाने लगा जिसमें धान सबसे प्रमुख है। धान एक पानी खाने वाली फसल है जिसको आवश्यकता से अधिक उगाना न केवल पानी की बर्बादी है बल्कि भूमि के लिय भी हानिकारक है। ये बात पंजाब जैसे राज्य के लिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां ऐसे भी पानी की समस्या है ऊपर से किसान धान उगाते हैं, फिर पराली भी जलाते हैं। तो ना केवल भूमि और पानी का नुकसान होता है अपितु पूरे उत्तर भारत को वायु प्रदूषण की गम्भीर मार झेलनी पड़ती है। प्रति वर्ष भारत में १६ लाख से अधिक लोगों की मौत वायु प्रदूषण से होती है!

धान की अन्धाधुन्ध खेती से भारत दुनिया का सबसे अधिक धान निर्यातक देश बन गया है। इसका अर्थ ये है कि भारत प्रति वर्ष अरबों खरबों लीटर पानी भी निर्यात कर रहा है जिसकी भारत में सर्वाधिक आवश्यकता है। अगर भारत के धान उत्पादक यदि धान उत्पादन में ३० प्रतिशत कटौती कर दें तो भारत का भला ही होगा। धान के स्टाक सरकारी गोदामों में आवश्यकता से दुगने से भी अधिक हैं। ऐसे में समर्थन मूल्य पर धान खरीदी वास्तव में करदाता के पैसों का दुरुपयोग ही है।

तो इस समस्या से निकले कैसे? सरकार ने जो तीन नए कृषि कानून लाए थे वो इसी लिए थे। किसानों को संपूर्ण स्वतंत्रता अपना फसल बेचने की और व्यापारी को भी सम्पूर्ण स्वतंत्रता फ़सलों को खरीदने की और खुलकर व्यापार करने की। इस व्यवस्था के पूर्ण रूप में लागू होने से देश के गांवों में नए नवीन आयाम खुलेंगे। कई किसान व्यापारी बनेंगे, कई व्यापारी किसान बनेंगे, कई छात्र-छात्राएं और युवा भी किसानी को अपनाएंगे। परंतु किसानों को जब तक पूर्ण स्वतंत्रता नहीं मिलती वो निरीह, निर्धन ही रहेंगे। उनके गले से बिचौलियों का और सरकारी तंत्र के मकड़जाल का फंदा निकालना ही होगा। ऐसा होने पर देश के करदाताओं के धन का दुरुपयोग बंद होगा, किसानों का वोट बैंक के रूप में प्रयोग बंद होगा, भूमि का रखरखाव बढ़ेगा, पानी की बचत होगी और किसानों को वाकई पूर्ण स्वतंत्रता मिलेगी। और जो ये लम्पट समाजवादी तथाकथित किसान नेता ज्ञान दे रहे हैं, दंगे कर रहे हैं, इनको देश, मीडिया, और विशेषकर किसान भाव देना बंद करें। अन्नदाता बोल कर कोई गुंडागर्दी कर के बच नहीं सकता। किसानों में भी कितने नालायक, धूर्त, नशेड़ी, शराबी, भ्रष्ट होते हैं ये देश के किसी भी गाँव में जाके किसी ही किसान से पूछ लो, वो स्वयं ऐसे दर्जनों दुर्जनों को गिनवा देगा। तो किसानों में भी ऐसे धूर्त होते हैं और ऐसे धूर्त ही किसान नेता बने बैठे हैं जो कि आज के समय न केवल किसानों के बल्कि सामन्य नागरिकों, करदाताओं और भारत के शत्रु बने बैठे हैं। इनसे भारत को केवल सच्चे परिश्रमी किसान ही बचा सकते हैं। ऐसे किसानों को भी अपनी आवाज उठानी होगी और इस बात को समझना होगा कि बिना स्वतंत्रता व्यापार नहीं हो सकता और बिना व्यापार धन नहीं आ सकता। इतनी सी बात समझ आ गई और लागू हो गई तो वो दिन दूर नहीं जब भारतीय किसान स्वयं कर देने आगे आयेंगे और देश की प्रगति में और भी बड़ी और निर्णायक भूमिका निभाएंगे जबकि समाज अब तक उन्हें केवल एक निरीह वोट बैंक के रूप में देखता आया है।

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