बिहार की राजनीति को जितना समझने का प्रयास किया जाय उतना ही उसका सिरा हाथों से छूट जाता है। आम बिहारी राजनीति में गहरी रुचि रखता है। बिहार के चौक-चौराहों-चौपालों पर होने वाली परिचर्चाओं का सामान्य विषय देश-दुनिया की प्रमुख राजनीतिक गतिविधियाँ ही होती हैं। उन परिचर्चाओं में अपने अजब-गज़ब तर्कों से लोग सामने वाले को हतप्रभ करने की कला में माहिर होते हैं। बिहारी स्वाभावतः विद्रोही होता है। लीक छोड़कर चलना उसकी फ़ितरत होती है। प्रायः बिहारी मुखर होते हैं। उनका प्रेम और उनकी घृणा दोनों मुखर होती है। कहा जाता है कि बिहारी परिवर्तन के वाहक होते हैं। पर विडंबना यह है कि हर परिवर्तन सुंदर-सुखद नहीं होता। और हर नारा और दावा हक़ीक़त नहीं। जिस बिहार ने मगध का उत्कर्ष देखा, जो बिहार बुद्ध-महावीर-चाणक्य की कर्मस्थली रहा, जिसने चंद्रगुप्त और अशोक जैसे शासकों को रचा-गढ़ा, जो स्वातंत्र्य-आंदोलन में गाँधी के उदय की पूर्व-पीठिका बना, जो आपातकाल थोपे जाने के विरुद्ध छेड़े गए संपूर्ण क्रांति का सशक्त संवाहक और सूत्रधार बना, उसी बिहार ने लालटेन का अपराध और अंधकार-युग भी झेला। कहा जा सकता है कि स्वातन्त्र्योत्तर बिहार राजनीति के अभिशापों का शिकार अधिक रहा। गऱीबी, हिंसा, अपहरण, अपराध, अराजकता, बेरोज़गारी, भदेसपन, मसखरापन ही बिहारियों की पहचान बना दी गई और भोले-भाले, मेहनतकश बिहारी उसी पहचान को अपना भाग्य मान अपनाते चले गए। जो उस पहचान से असहमत थे या स्वयं को उसमें मिसफ़िट पा रहे थे, उन्होंने पलायन को सुअवसर मान किनारा कर लिया। 


भारतीय राजनीति विचारधारा से अधिक चेहरों पर केंद्रित होती है। बिहार ने भी राजनीति के कई चेहरों को माँजा-चमकाया। चेहरे तो चमके, ख़ूब चमके, मय परिवार चमके, पर बिहार अपनी चमक खोता चला गया। ऐसे चेहरों में सबसे बड़ा चेहरा लालू यादव का रहा।आज भले लालू का तिलिस्म टूट रहा हो, पर एक दौर में उनका जादू लोगों के सर चढ़कर बोलता था। जहाँ अपने समर्थकों के लिए वे सामाजिक न्याय के अग्रदूत और गरीबों के मसीहा थे वहीं विरोधियों के लिए वे राजनीति के कलंक और अंधकार युग के जनक और प्रवर्त्तक रहे। एक साथ इतना धुर समर्थन और इतना धुर विरोध शायद ही किसी अन्य राजनीतिज्ञ को झेलना पड़ा हो।


जो बिहार कभी अपनी समृद्ध विरासत, गौरवशाली अतीत और अधुनातन बौद्धिकता के अग्रदूत के रूप में जाना-पहचाना जाता रहा, उसे लालू ने अपने अलहदा अंदाज़, अनगढ़ मुहावरे और नित नवीन मसखरेबाजी से न केवल भिन्न एवं परंपरा से इतर पहचान दिलाई बल्कि संपूर्ण देश में ‘बिहारियों’ को भी इस नई पहचान का पर्याय बना डाला। जिन्हें इस पहचान से आपत्ति थी, उनके लिए ‘बिहारी’ होना धीरे-धीरे शर्म और ‘उपहास’ का विषय बनता चला गया। एक ऐसा भी दौर आया जब यह संबोधन पिछड़ेपन एवं जाहिलता के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा, जिसके दबाव में रोजी-रोटी की तलाश में राज्य से बाहर आए मार-तमाम लोग आनन-फानन में दिल्ली-हरियाणा शैली की हिंदी बोल अपनी ‘बिहारी’ पहचान को छुपाने की असफल चेष्टा करने लगे। कामकाजी दुनिया में ‘बिहारी’ लोगों को कभी सीधे ‘लालू’ बोलकर तो कभी उन जैसी हिंदी बोलकर चिढ़ाया जाने लगा। अपनी पहचान, अपनी अस्मिता के गाली बन जाने की बेचैनी और अकुलाहट को केवल वही समझ सकता है, जिसने इसे झेला और भोगा हो। बिहारियों के लिए उपेक्षा, उपहास और अपमान का अभियान चलाने वाली स्वार्थी-क्षेत्रवादी मानसिकता की पड़ताल फिर कभी, किंतु आज यह जानना आवश्यक है कि लालू-राज के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष परिणाम क्या-क्या हुए, उसका तत्कालीन एवं परवर्त्ती सामाजिक-मनोवैज्ञानिक प्रभाव कैसा रहा?


बिहार मुख्यतः अपनी बौद्धिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियता एवं सजगता के लिए जाना जाता रहा है। परंतु यह वह दौर था, जब जातीय घृणा की फसल को भरपूर बोया गया, खाद-पानी देकर बड़ा किया गया और उसे बार-बार काटा गया; यह वह दौर था, जब विकास का पहिया प्रतिगामी गति से घुमाया गया। जो बिहार को जानते-देखते रहे हैं, उन्हें अच्छी तरह याद होगा कि तब लोग सूर्यास्त होते ही अपने-अपने घरों में दुबककर बैठे रहना पसंद करते थे, अंधेरा होते-होते दुकानों के शटर गिरने लगते थे, थोड़ी भी देर होने पर परिजनों के चेहरों पर चिंता की लकीरें खिंचने लगती थीं, अपहरण कुटीर उद्योगों की तरह बिहार के शहर-शहर, गली-गली में विस्तार पाने लगा था, जब स्टेशनों, बस अड्डों, चौक-चौराहों, घरों-दफ़्तरों-दुकानों में देश-दुनिया की चर्चा की बजाय किसी-न-किसी उभरते रंगबाज़, गैंगस्टर, क्रिमिनल की चर्चा होती थी और सबसे ख़तरनाक स्थिति यह थी कि बड़े होते बच्चे किसी सुंदर-सलोने-स्वस्थ सपनों को सँजोने, कुछ मानवीय, कुछ बेहतर करने के बजाय एक रंगबाज़, गैंगस्टर या अपराधी बनने का सपना पालने लगे थे। किसी समाज के पतन की यह पराकाष्ठा होती है कि वह अपराधियों में नायकत्व की छवि देखने और तलाशने लगे। उस दौर में सभी जातियों के अपने-अपने अपराधी-नायक थे, समाज उन अपराधियों के पीछे बँटता और लामबंद होता चला जा रहा था। लोगों को लालू यादव में भी एक नेता की कम, एक दबंग जातीय सरगना की छवि अधिक दिखाई देती थी। लालू भी ”भूरा बाल साफ करो” जैसे नारे उछाल भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला(कायस्थ) जैसी जातियों पर सीधे हमला बोल रहे थे। उनके स्वजातीय दबंगों एवं अपराधी प्रवृत्ति को लगने लगा था कि इन जातियों को प्रताड़ित कर वे सूबे के मुख्यमंत्री के कृपा-पात्र बन जाएँगें। यहाँ तक कि उस दौर में हर गाँव, हर इलाके में कुछ दबंग यादव नेता उभरे। जिनकी हनक और धमक, रौब और रुतबा पुलिस-प्रशासन से भी अधिक हुआ करता था। नेता और अपराधी का भेद मिटने लगा था।


संस्थाओं का जातीयकरण होता गया और जातिवाद की आड़ में भ्र्ष्टाचार को एक संस्कृति बना दी गई। भिन्न जाति वालों से विशेष वसूली को सामाजिक न्याय का ज़ामा पहनाकर महिमामंडित किया जाता रहा। कोढ़ में खाज का काम इस वामपंथी नैरेटिव ने किया कि जिनके पास पैसा और ज़मीन है वे लूटे-ख़सूटे जाने लायक ही हैं। भ्र्ष्टाचार और जातीयता एक-दूसरे के पर्याय बन गए और उनका संस्थानीकरण होता चला गया। भ्र्ष्टाचार एक नियामक और मान्य सत्ता बनती गई और गरीबों के मसीहा व उनके स्वजातीय अनुयायी एक नवीन-उदीयमान शोषक सत्ता के रूप में रूपांतरित व स्थापित होते चले गए। जिसका परिणाम यह हुआ कि उद्योग-धंधे बंद होते चले गए, बड़े व्यापारी राज्य छोड़कर अन्यत्र चले गए, सक्षम-प्रतिभाशाली लोग पलायन कर गए और जो बचे वे या तो छोटे-मंझोले कृषक या श्रमिक समाज से थे। कालांतर में रोज़ी-रोटी के लिए बड़ी संख्या में उन मजदूरों का भी बिहार से पलायन हुआ। होते-होते एक दिन ऐसा भी आया कि यादवों और मुस्लिमों (भाजपा विरोध की हठधर्मिता के कारण) को छोड़कर बिहार की सभी जातियों का उनसे मोहभंग हो गया। और लालू का सामाजिक न्याय जाति से  होता हुआ अंततः परिवार तक सिमटकर रह गया। 


अचरज नहीं कि जैसे हर युग का अवसान होता है, सो लालू-युग का भी अवसान हुआ। काठ की हांडी जैसे बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती, वैसे जातिवाद की राजनीति भी हमेशा सत्ता नहीं दिलाती। यादव और मुस्लिम समाज में मज़बूत पैठ बनाने के बावजूद लालू जी को अपदस्थ होना पड़ा।  नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक नई सरकार बनी, जिसके पहले कार्य-काल में बहुत-से अच्छे काम हुए, उम्मीद जगी, उन पर विश्वास भी बढ़ता गया। संगठित अपराध पर लगाम लगा। उद्योग की तरह पनपा अपहरण बिहार के लिए बीते दिनों की बात हो गई। सड़क एवं यातायात व्यवस्था में आमूल-चूल सुधार हुआ। उनका दूसरा कार्यकाल औसत रहा। उनके तीसरे कार्यकाल का पहला वर्ष गठबंधन की बेमेल राजनीति की भेंट चढ़ गया। और शेष वर्षों में भी सरकार के प्रदर्शन ने प्रभावित करने के स्थान पर निराश ही अधिक किया। हाँ, यह अवश्य है कि गठबंधन का घटक होने के नाते केंद्र की नीतियों, कल्याणकारी  योजनाओं एवं कार्यक्रमों का लाभ स्वाभाविक रूप से बिहार के सत्तारूढ़ दल को भी मिलेगा। मुख्यतया सड़क, बिजली, पानी पर केंद्र सरकार द्वारा किए गए कार्य का सीधा लाभ नीतीश कुमार को मिलता रहा है और इस बार भी मिलेगा। जिस मोदी को रोकने के लिए कभी नीतीश ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया था, आज वही उनके चुनावी रथ को विजय की ओर ले जाने वाले मुख्य सारथी हैं।


जहाँ तक बिहार भाजपा की बात है तो उसे लेकर बिहार की जनता में एक सकारात्मकता रही है। पर नीतीश के चेहरे को सामने रखने के कारण लालू दौर में जुझारू एवं जीवट नेता के रूप में उभरे सुशील मोदी सत्ता का हिस्सेदार बनने के बाद लगातार अपनी चमक खोते जा रहे हैं। उनकी पार्टी के कार्यकर्त्ताओं को भी लगने लगा है कि अब उनमें पहले जैसी बात नहीं रही। उन पर यह आरोप भी लगता रहा है कि उन्होंने जान-बूझकर नए एवं तेज-तर्रार नेताओं को बिहार भाजपा की राजनीति में उभरने नहीं दिया। बल्कि पिछले चुनावों में उन पर उम्मीदवारों के चयन एवं टिकट-आवंटन को लेकर भी तमाम सवाल उछले थे। वे स्वयं भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के छोटे भाई के रूप में ही स्वयं को स्थापित करते नज़र आते हैं। जाति को ही जनाधार का पर्याय मानने वाले बिहार में उनकी जाति भी उनकी सीमाएँ तय कर देती हैं। भाजपा अब तक बिहार में मुख्यमंत्री का चेहरा गढ़ने व देने में विफल रही है और कदाचित उसे भी इसका भली-भाँति एहसास है।


तेजस्वी यादव जो फ़िलहाल विपक्षी राजनीति के एकमात्र चेहरा हैं, उनकी सबसे बड़ी समस्या उनके पिता के दौर का कुशासन एवं जंगलराज है। बिहार के अधिकांश निवासी लालू-राज को एक भयावह दुःस्वप्न की तरह ही भूल जाना चाहते हैं। इसे कुछ हद तक तेजस्वी यादव समझते भी हैं और इसीलिए उन्होंने राजद के पोस्टर-बैनर से लालू जी को ग़ायब-सा कर रखा है। पर कभी-कभी पिता का अतीत पुत्र के वर्तमान पर भारी पड़ जाता है। स्वयं तेजस्वी नपे-तुले क़दमों से राजनीति में क़दम बढ़ा रहे हैं। वे अपने पिता की तरह निरा मुँहफट नहीं हैं। न ही विषैली-जातिवादी टीका-टिप्पणी करते हैं। उनका परखा जाना अभी शेष है। सत्ता-विरोधी लहर एवं अपेक्षाकृत नए होने का उन्हें लाभ मिल सकता था, पर नीतीश की तुलना में लोगों का उन पर भरोसा कम है। और नीतीश के तीसरे कार्यकाल के पहले वर्ष में तेजी से सिर उठाते अपराध का मुख्य कारण भी लोग उनके साथ को ही मानते हैं। भाजपा, हम और वीआईपी का साथ भी नीतीश के पलड़े का वज़न बढ़ाता है।


रामविलास पासवान राज्य ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति के भी बड़े चेहरे थे। वंचित-दलित समाज में उनकी गहरी पैठ थी। उनके दाह-संस्कार में उमड़ी भीड़ भी इसी की गवाही देती है। बीते कुछ वर्षों से वे अपना जनाधार अन्य पिछड़ी एवं सवर्ण जातियों के बीच भी बढ़ाने के लिए प्रयासरत थे। केंद्र सरकार द्वारा सवर्णों को दिए गए दस प्रतिशत आरक्षण के समर्थन से अगड़ी जातियों में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ी थी। 51 वर्षों के राजनीतिक सफ़र ने उन्हें एक अनुभवी एवं मँजे हुए राजनेता के रूप में स्थापित कर दिया था। केवल लोक जनशक्ति पार्टी ही नहीं बल्कि बिहार भी आसन्न चुनावों में उनकी रिक्तता को शिद्दत से महसूस करेगा। उनके पुत्र चिराग़ पासवान दलित राजनीति के आभिजात्य चेहरों में गिने जाते हैं। यह उनकी सीमा भी है और संभावना भी। सीमा इसलिए कि इस एलीटनेस के कारण ज़मीन पर उनकी वैसी स्वीकार्यता नहीं है। दलितों को लुभाने के लिए तमाम राजनीतिक दल जिस प्रकार की आक्रामक एवं प्रतिक्रियावादी राजनीति करते दिखाई देते हैं, चिराग़ अपनी पृष्ठभूमि एवं एलीटनेस के कारण चाहकर भी वैसा नहीं कर सकते। और यही से उनकी संभावना प्रारंभ होती है। यदि वे अपने परंपरागत मतदाता वर्ग को जोड़े रखने में सफ़ल रहे तो अन्य जातियों के लोग भी उनके साथ सहज महसूस करेंगें और थोड़े अतिरिक्त प्रयासों से वे साथ भी लाए जा सकते हैं। उन्हें इस चुनाव में अपने समर्थक वर्ग की सहानुभूति भी मिल सकती है। यह उनके लिए अधिक लाभप्रद रहता कि वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ते। इससे एनडीए से अधिक उन्हें ही मज़बूती मिलती। यह भी संभव है कि उनका एनडीए से स्वतंत्र एवं पृथक चुनाव लड़ना सत्ता विरोधी मतों के एकपक्षीय ध्रुवीकरण को रोकने में सहायक सिद्ध हो। उनके रुझानों से स्पष्ट है कि पूर्ण बहुमत न मिल पाने की स्थिति में उनका समर्थन एनडीए को ही जाएगा। 


शेष जितने भी चेहरे बिहार की राजनीति के हैं, उनकी पहुँच-पहचान बमुश्किल अपनी जातियों तक सीमित है। जातियाँ भी उनके लिए सत्ता की बंदरबाँट का ज़रिया भर हैं। उपेंद्र कुशवाहा, पप्पू यादव, जीतनराम माँझी आदि विकल्प बनने की हैसियत में न पहले थे, न अब हैं। भाकपा माले या अन्य कम्युनिस्ट पार्टियाँ कतिपय निर्वाचन क्षेत्रों में असर डाल पाने की स्थिति में होंगीं। उनका अपना कोई बुनियादी जनाधार अब बिहार में बचा नहीं है। छोटे-छोटे दलों के मध्य हुए तमाम गठबंधन भी चुनाव-पश्चात होने वाली सत्ता की सौदेबाज़ी की क़वायद अधिक हैं, ठोस एवं भरोसेमंद राजनीतिक विकल्प बनने की पहल व कोशिशें कम।

 
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कोई सत्ता में आए-जाए, शासन-प्रशासन की शैली और कार्यसंस्कृति में बदलाव लाए बिना वहाँ स्थाई परिवर्तन या विकास संभव होता नहीं दिखता। भ्र्ष्टाचार और जातिवाद बिहार को लालू-युग में भी दीमक की तरह खोखला करता रहा और कमोवेश आज भी कर रहा है। बिहार एक व्यापक सामाजिक-राजनीतिक-प्रशासनिक सुधार की अपेक्षा रखता है। केवल सत्ता या व्यक्ति बदलने से तत्काल बिहार का भविष्य बदलता नहीं दिखाई दे रहा। बिहार को यदि अपना भाग्य बदलना है तो उसे सबसे पहले जातीय जंजीरें पिघलानी होंगी। जातिवादी जकड़न से बाहर आकर एक उदार, दूरदर्शी, संवेदनशील, सर्वसमावेशी राजनीतिक नेतृत्व तलाशना होगा। जातिमुक्त, स्वस्थ, सुंदर, उदार, सहयोगी समाज की रचना करनी होगी। शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन और निवेश करने होंगें। पलायन आधारित अर्थरचना की बजाय आत्मनिर्भर और स्वावलंबी व्यवस्था खड़ी करनी होगी। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि बिहार का लालू-कालीन अतीत अंधकारमय रहा है, वर्तमान शिथिल व गतिशून्य तो भविष्य अनिश्चित। परंतु बिहार सदा से नवीन राहों का अन्वेषी एवं युगीन-गतिशील व्यवस्थाओं का पोषक रहा है। सपनों और सरोकारों को साकार करना उसे आता है। घटाटोप अँधेरों के बीच भी आलोक-पथ पर सधे हुए क़दम बढ़ाने का दम-खम उसमें रहा है। राजनीतिक पंडितों के लिए भी यह देखना दिलचस्प होगा कि वह अपने भविष्य का सारथी किसे और क्यों चुनता है? यह भी निश्चित है कि बिहार चुनाव के परिणाम देश की राजनीति की भावी दिशा तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगें।


प्रणय कुमार

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