वर्तमान समय में लगता है कि अवसरवादिता और दोगलापन राजनीति का पर्याय हो गया है। काल , स्थान और आवश्यकता के अनुरूप अपना बयान और व्यवहार बदल लेना हीं व्यावहारिकता बन गई है। ज़िक्र है अलवर में एक मूक बधिर अबला किशोरी के साथ लगभग वही अमानवीय कृत्य होने का जो कभी दिल्ली की निर्भया के साथ हुआ था पर उस वक्त निर्भया के साथ दुराचार पर सैकड़ों बुद्धिजीवी नयन भी सजल हो गये थे , गीतकारों के कम्पित अधरों पर मर्मस्पर्शी गीतोंका प्रस्फुटन होने लगा था “ओ री चिरैया , छोटी सी चिड़िया … ” पर अलवर की इस पीड़िता के लिये तो बलात्कार की बात हीं रफ़ा दफ़ा कर देने की प्रशासकीय कोशिश हुई।
हाथरस में हुई घटना पर एक खास पार्टी का हर एक छोटा बड़ा नेता कैम्प लगा कर बैठ गया था अलवर की घटना पर सिर्फ़ टेलीफ़ोन कॉल पर मामला सिमट कर रह गया।
आखिर क्यों?
बलात्कार नारी के देह और मनो मस्तिष्क पर किया गया एक ऐसा आघात है जिसका असर आजीवन रहता है और चाहकर भी कोई स्त्री या बालिका इसका न तो बलात्कारी को यथोचित प्रत्युत्तर दे सकती है और ना हीं बदला ले सकती है। और बदला क्या ले जब कि समाज में उस पर उठने वाली हर निगाह और अनचाहे हीं लगाया जाने वाला लांछन उसका बारम्बार शीलहरण करता रहता है।
और ये निर्भया तो चिल्ला भी नहीं सकती थी ।
इसी का अवांछित लाभ लेकर शायद स्थानीय प्रशासन ने बलात्कार की घटना को हीं रफ़ा दफ़ा करने की कोशिश की । स्थानीय प्रशासन शायद ये भूल गया कि कुछ आततायियों के द्वारा रौंदी गई ये निर्भया जहाँ गाड़ी से फेंकी गई थी वहाँ की धरा उसके रुधिर से से रक्तरंजिता हो चुकी थी और रक्त वहीं से प्रवाहित था जहाँ से मानवता जन्म लेती है।
ये तो हर पाठक मानेगा कि ऊँचाई से गिरने के बाद भी किसी स्त्री या पुरुष के प्राइवेट पार्ट के चोटिल होने की संभावना तब तक नगण्य होती है जब तक कि जान बूझ कर इन अंगोंको निशाना ना बनाया जाये या कोई नुकीली चीज शरीर के इन भागों में संयोग से चुभ ना जाये या जान बूझ कर ना चुभाई जाये। आज तक शिकारियों ने शेरों, बाघों, चीतों और लकड़्बघ्घों आदि को भी अपने अस्त्र शस्त्रों से उनके गुप्तांगोंपर आघात करके शिकार करने में सफलता नहीं पाई है क्योंकि इन अंगों की बनावट स्तनधारी प्राणियों में कुछ ऐसी होती है कि किसी भी परिस्थिति में इन पर आघात ना हो पाये। शायद प्रकृति भी किसी प्रजाति के उद्गम को समाप्त या आहत नहीं होने देना चाहती है पर इस घटना में उस बालिका के साथ हुए बलात्कार को झुठलाने के प्रयास में उत्तरदायी अधिकारियों ने गुप्तांगों और मलद्वार के घावों को कैसे अनदेखा किया होगा ?
ये तो उन बलात्कारियों से भी अधिक निन्दनीय और निर्दयी कृत्य माना जाना चाहिये।
दिल्ली की घटना में मोम बत्तियोंकी रौशनी से दिल्ली नहा गई, हाथरस की घटना में राजनीति के हर चर्चित चेहरे की मंजिल यही छोटा सा कस्वा बन गया था पर अलवर की इस पीड़िता की नीरव चीखों पर बस उस अनिन्द्य सुन्दरी के मोबाइल से एक कॉल की आफिशियल खानापूरी हुई और रावण भी राम की नगरी में चुनावी जोड़ तोड़ की जुगत भिड़ाता रह गया। ना किसी राजनीतिक अम्मा का कोई बयान आया और ना कोई युवराज किसी के धक्के से गिरा ।
कहना पड़ेगा कि हर बलात्कार की किस्मत में दिल्ली और हाथरस जैसी मकबूलियत नहीं होती!
और ये भविष्य में भी होता रहेगा क्योंकि हम ने यौन दुर्व्यवहार पर चीखती भयाक्रान्त आवाज़ों का नाम निर्भया , किसी के यौन दमन की शिकार का नाम दामिनी तो भग्नांगों या विकलांगों का नाम दिव्यांग रखने मेंअपनी राजनैतिक चालबाज़ियों से मुक्त ना होने की कसम खा ली है।
आखिर में ये बात कहनी पड़ेगी कि कहीं पर सत्ता की मलाई फिर से पाने के लिये टैग लाइन है ” लड़की हूँ लड़ सकती हूँ ” परन्तु कहीं पर उसी सत्ता को कायम रखने के लिये अघोषित टैग लाइन है कि ” लड़की है तूँ , क्यूँ लड़ती है?

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