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                                                      -बलबीर पुंज

कांग्रेस का संकट समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है। जहां छोटे-बड़े चुनावों में लगातार मिलती पराजय उसके जन-कटाव को स्पष्ट कर रहा है, वही पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि राज्यों में पार्टी ईकाई का अंदरुनी सिर-फुटव्वल सड़कों पर है। कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेता, जिन्हें मीडिया ने जी-23 समूह का नाम दिया है- वह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में आमूलचूल परिवर्तन की मांग पहले ही कर चुके है। बीते दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार शिंदे ने भी कहा कि पार्टी में बहस-संवाद की परंपरा खत्म हो गई है और वह अपनी वैचारिक संस्कृति से दूर होती जा रही है। क्या राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का पतन की ओर अग्रसर होने का एकमात्र कारण उसका जीर्ण नेतृत्व है?

यह ठीक है कि परिवारवाद के विष-आलिंगन ने कांग्रेस को सात दशकों से जकड़ा हुआ है। इस दल में नेतृत्व की क्षमता केवल उतनी है, जितनी गांधी-नेहरू परिवार के पास उपलब्ध है। उनकी पसंद-नापसंद से पार्टी की कार्यप्रणाली प्रभावित है। कई राज्यों में कांग्रेस का अंतर्कलह- इसका उदाहरण है। सच तो यह भी है कि गत कई वर्षों से कांग्रेस उस कॉरपोरेट उद्यम की भांति हो गई है, जहां पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा अर्जित करना- एकमात्र उद्देश्य होता है।

दुखद यह भी है कि विगत सात वर्षों से कांग्रेस नेतृत्व का “राजनीतिक संतोष” अपने चुनावी प्रदर्शन के बजाय भाजपा की पराजय या फिर भाजपा की सीटें/मतप्रतिशत घटने तक सिमट गया है। वर्ष 2016 की तुलना में हालिया प.बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें 44 से घटकर 0 हो गई और उसका मतप्रतिशत 12% से गिरकर 3% से भी नीचे चला गया, फिर भी कांग्रेस इस बात से उत्साहित है कि भाजपा सरकार नहीं बना पाई। यह दिलचस्प स्थिति तब है, जब राजनीतिक हिंसा के बीच प.बंगाल में भाजपा की सीटें 3 से बढ़कर 77 हो गई, तो मतप्रतिशत 10% से 38% पर पहुंच गया।

वास्तव में, कांग्रेस की इस संकीर्ण मानसिकता और जनादेश से कटाव का कारण उसकी नीतिगत और वैचारिक शून्यता में छिपा है, जिसने उसके नेतृत्व संकट को कैंसर का फोड़ा बना दिया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार शिंदे पार्टी की जिस वैचारिक संस्कृति की बात कर रहे है, उसे गांधीजी की नृशंस हत्या के बाद तत्कालीन और तब-पश्चात नेतृत्व द्वारा तिलांजलि दे दी गई थी। विडंबना है कि आज जो कांग्रेसी दल में आमूलचूल परिवर्तन की मांग कर रहे है, उनमें से कई संप्रगकाल में मिथक शब्दावली “भगवा-हिंदू आतंकवाद” गढ़ने में अग्रणी रहे है।

आज हम जिस कांग्रेस को देख रहे है, वह अपने व्यवहार और आचारण से राजनीतिक चिंतन और वैचारिक तौर पर अप्रासंगिक होती जा रही है। उसके पास विचारधारा के नाम पर कुछ घिसे-पीटे नारे और जुमले है। अपने मूल सनातन-राष्ट्रवादी चिंतन के आभाव के कारण कांग्रेस की स्थिति ऐसी हो गई कि कई मुद्दों पर उसकी प्रतिक्रिया विमूढ़ है। पार्टी इस विसंगति की प्रत्यक्ष शिकार तब हुई, जब पं.नेहरू के निधन पश्चात इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी मानसिकता ने 1969 में कांग्रेस का विभाजन कर दिया और अपनी राजनीति तथा अल्पमत सरकार को जीवित रखने के लिए उन्होंने वामपंथियों का समर्थन ले लिया, जो वैचारिक और अपने हिंदू विरोधी चिंतन के कारण भारत और उसकी मूल सनातन संस्कृति से स्वयं को जोड़ नहीं पाए थे। इस दृष्टिकोण में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। तब उस अस्वाभाविक गठजोड़ का दुष्परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में सक्रिय कम्युनिस्ट नेताओं-कार्यकर्ताओं ने इंदिरा गुट वाले कांग्रेस में शामिल होकर संपूर्ण कांग्रेस को अपनी “विचार-गोष्ठी” में परिवर्तित कर दिया।

भारत-हिंदू विरोध वामपंथी चिंतन से कांग्रेस और उसका शीर्ष नेतृत्व आज भी चिपका हुआ है। सांप्रदायिक और जातीय आधारित राजनीति करने और आतंकवादियों-अलगाववादियों से सहानुभूति रखने के अतिरिक्त 2007 में करोड़ों हिंदुओं के लिए आस्थावान भगवान श्रीराम को अदालत में काल्पनिक बताना, 2008 में इस्लामी आतंकवाद की सच्चाई को बौना सिद्ध करने हेतु मिथक हिंदू आतंकवाद का प्रपंच बुनना, 2011 में हिंदू विरोधी साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक तैयार करना, 2014 में मंदिर जाने वाले भक्तों को लड़की छेड़ने वाला बताना, 2016 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देशविरोधी नारे लगाने वालों का समर्थन करना, 2017 केरल की सड़क पर कांग्रेसी नेताओं द्वारा “सेकुलरवाद” बचाने के नाम पर दिनदहाड़े सरेआम गाय के बछड़े की हत्या और उसके मांस का सेवन करना, 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम को मुस्लिम विरोधी बताकर लोगों को सड़कों पर हिंसा के लिए उकसाना, 2020-21 में स्वदेशी कंपनी द्वारा निर्मित कोविड वैक्सीन पर संदेह जताना आदि और दोनों दलों का कई अवसरों पर मिलकर चुनाव लड़ना- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

ऐसा ही एक उदाहरण अभी हाल ही में देखने को मिला है। 2018 के भीमा कोरेगांव हिंसा मामले और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के षड़यंत्र रचने के वयोवृद्ध आरोपी- रोमन कैथोलिक चर्च के पादरी स्टेन स्वामी की 5 जुलाई को हृदयाघात से मौत हो गई। वे पार्किंसंस रोग सहित कई बीमारियों से ग्रस्त थे और कोविड से भी संक्रमित हुए थे। अदालती निर्देश के बाद स्टेन का उपचार चर्च प्रेरित निजी अस्पताल में चल रहा था। तब डॉ. इयान डिसूजा ने अदालत में फादर स्टेन की मौत को प्राकृतिक बताया था।

राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एन.आई.ए.) ने स्टेन पर प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) का सदस्य होने का आरोप लगाया था। जांच एजेंसी का कहना था कि वे इसके मुखौटा संगठनों के संयोजक हैं और सक्रिय रूप से इसकी गतिविधियों में शामिल रहते थे। फादर स्टेन को 8 अक्टूबर 2020 को गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के अंतर्गत आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इसी वर्ष मार्च में स्टेन की याचिका पर सुनवाई करते हुए एनआईए की विशेष अदालत ने कहा था, “रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री से प्रथम दृष्टया स्पष्ट है कि आवेदक न केवल प्रतिबंधित संगठन का सदस्य था, अपितु वह उसके उद्देश्य के अनुसार गतिविधियों को आगे बढ़ा रहा था, जो देश के लोकतंत्र को खत्म करने के अलावा और कुछ नहीं है।” इसी कारण अदालत उनकी जमानत याचिका निरस्त कर रही थी।

हिंसक मार्क्सवादी आंदोलन से 1967 को नक्सलवाद/माओवाद का जन्म हुआ था। प्रारंभ से नक्सली आदिवासी या पिछड़े क्षेत्रों में सक्रिय रहे है, जो आज “शहरी नक्सलवाद” का भी रूप ले चुका है। अपने कुकर्मों को न्यायोचित ठहराने के लिए नक्सली शासन-प्रशासन द्वारा तथाकथित उत्पीड़न-शोषण का रोना रोते है। वर्ष 2018 की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, बीते 20 वर्षों में नक्सलियों ने 9,300 निरपराध नागरिकों और 2,700 सुरक्षाबलों को मौत के घाट उतार दिया था। इसी वर्ष छत्तीसगढ़ के सुकमा-बीजापुर में माओवादियों ने 22 सुरक्षाबलों की हत्या कर दी थी। एक अकाट्य सच यह भी है कि स्वघोषित सेकुलरिस्टों, वामपंथियों और उदारवादियों की अनुकंपा से चर्च और ईसाई मिशनरियां दशकों से आदिवासी-पिछड़े क्षेत्रों में अपने घोषित मजहबी कर्तव्य मतांतरण में लिप्त रही है।

नक्सली होने के आरोपों के कारण पादरी स्टेन से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वामपंथी गिरोह की सहानुभूति स्वाभाविक है। भले ही देश की राजनीति में मार्क्सवादी हाशिए पर है और वर्ष 2014 से भारतीय शासन-व्यवस्था वाम-नेहरूवादी जकड़न से बाहर है। किंतु उसके विषाक्त रक्तबीज दशकों से शैक्षणिक, बौद्धिक, साहित्यिक, पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में न केवल सक्रिय है, अपितु बहुत हद तक नैरेटिव को नियंत्रित करने की स्थिति में भी है। इसी कुनबे ने पादरी स्टेन को “आदिवासी क्षेत्र का समाजसेवी” बताकर उनकी गंभीर रोगों से जनित प्राकृतिक मौत को “हत्या” की संज्ञा दी है।

कोई हैरानी नहीं कि विगत पांच दशकों से आउटसोर्स्ड वामपंथी दर्शन से ग्रस्त कांग्रेस के शीर्ष नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी, शशि थरुर, जयराम रमेश आदि की प्रतिक्रिया भी एक विशुद्ध वामपंथी के समान है। विडंबना है कि जो लोग नक्सलियों द्वारा हजारों निरपराधों की हत्या को “क्रांति” का नाम देकर चुप रहते है, वह नक्सली होने के आरोपी वृद्ध स्टेन की प्राकृतिक मौत को “हत्या” बताकर देश के जीवंत लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था को अपने निहित स्वार्थ हेतु कलंकित कर रहे है। स्पष्ट है कि कांग्रेस अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं ले रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस में विदेशी विचारधारा के चंगुल से बाहर निकलने की इच्छा दम तोड़ चुकी है।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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