किसान आंदोलन

मैंने इस कानून का ड्राफ़्ट पढा है, क्योंकि मैं मूलतः किसान हूँ। जो लोग दलीलें दे रहे हैं कि सरकार से किसने कहा था कानून लाने के लिए, उन्हें याद रहे कि कार्यपालिका और विधायिका का कार्य सुधार और जनकल्याण की दिशा में क़ानून बनाना ही होता है। वे संसद या विधानसभा में जनता के प्रतिनिधि के रूप में ही उनकी आशाओं-आकांक्षाओं को स्वर देते हैं। भारत स्विट्जरलैंड के समान कोई छोटा या एक जैसे मत-धर्म को मानने वाला देश नहीं है। भारत जैसे विशाल एवं विविधता भरे देश में पहले किसी एक मत पर पहुँचना और फिर क़ानून बनाना संभव ही नहीं है।

उनके तर्क के अनुसार तो आज तक देश में किसी सरकार को कोई क़ानून ही नहीं लाना चाहिए था, न कोई बिल। क्योंकि आज तक पहले जनमत, फिर क़ानून तो लाया नहीं गया है। क्या किसी सरकार ने इससे पूर्व ऐसा किया है? बल्कि भारत की संसदीय प्रणाली में ऐसी व्यवस्था ही नहीं है। यहाँ जन-प्रतिनिधियों के मत को ही जनमत माने-जाने की परंपरा रही है। भारत जैसे विशाल देश में पहले जनमत जुटाना और फिर क़ानून बनाना संभव भी नहीं है।

सनद रहे कि संसदीय कार्यप्रणाली में व्यवधान डालने, लोकतंत्र को अपहृत करने, शहरों-मुहल्लों से लेकर क़ानून-व्यवस्था को बंधक बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति अंततः देश एवं लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध होगी। यदि आप किसी कारण से सरकार से क्षुब्ध हैं तो क्या व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर देंगें? प्रतीक्षा कीजिए और अगले चुनाव में सरकार को सत्ता से बेदख़ल कर दीजिए। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है।

मत भूलिए कि सरकार के समर्थकों के मत का भी महत्त्व होता है। क्या हम ऐसी व्यवस्था और तंत्र की ओर देश को ले जाना चाहते हैं, जहाँ हल्ला-हंगामा करने वाले हुड़दंगियों-उपद्रवियों और अराजक तत्त्वों के मत का महत्त्व शांत-संयत-प्रबुद्ध-अनुशासित-जागरूक नागरिक-समाज से अधिक हो?

और विडंबना देखिए कि जो लोग मोदी सरकार से क़ानून लाने से पूर्व किसानों का मत लेने की अपेक्षा रख रहे हैं या दलीलें दे रहे हैं, वे परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से आपातकाल थोपने वालों का समर्थन कर रहे हैं। क्या उन्होंने देश का बंटवारा करने से पूर्व, धारा 370 और अनुच्छेद 35 A लगाने से पूर्व, अंग्रेजी को प्रकारांतर से भारत की राष्ट्रभाषा बना देने से पूर्व, भारत का नाम इंडिया दैट इज भारत रखने से पूर्व, ननकाना साहब पाकिस्तान के हिस्से में देने से पूर्व, कश्मीर का मुद्दा यूएन में ले जाने से पूर्व देशवासियों का मत जाना था? अरे, इन्होंने तो तुष्टिकरण के लिए आज़ादी का तराना ‘वंदे मातरम” तक को नेशनल एंथम नहीं बनने दिया, जबकि देश ऐसा चाहता था। क्या शाहबानो प्रकरण में समान नागरिक संहिता की धज्जियाँ उड़ाने से पूर्व उन्होंने देशवासियों की राय ली थी?

ग़नीमत मानिए कि केंद्र में एक ऐसी सरकार है जो किसानों से संवाद और सहमति साधने का निरंतर प्रयास कर रही है। उसकी शैली, अंदाज़, भावभंगिमा और मुद्रा किसी में अहंकार और हठधर्मिता देखने को नहीं मिलती।

अन्यथा दिल्ली सल्तनत ने स्वामी रामदेव जैसे संन्यासियों तक की जो दुर्दशा की थी, उसे बीते अधिक दिन नहीं हुए। उन्हें जान बचाने के लिए वेष बदलकर भागना पड़ा था। आज वे संवाद और सहमति का ज्ञान बघार रहे हैं। अवध की नवाबी सत्ता ने अयोध्या में निर्दोष कारसेवकों और उत्तराखंडी मासूम-निरीह स्त्रियों पर जो दनादन गोलियाँ बरसाईं थीं, उसे भी अधिक दिन नहीं हुए। वे भी निर्लज्ज प्रदर्शन कर रहे हैं।

कम-से-कम इस सरकार में इतना बोध तो है कि उसके किसी मंत्री ने अभी तक अपने अधिकृत वक्तव्य में किसानों के इस आंदोलन को राजनीतिक आंदोलन तक की संज्ञा नहीं दी है। किसानों के प्रति इस सरकार के संवेदनशील होने का इससे बड़ा उदाहरण भला और क्या होगा!!

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