लेखक- बलबीर पुंज
“जबरन मतांतरण करना न केवल मजहबी स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है, अपितु यह देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा हो सकता है।” यह वक्तव्य न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है और न ही किसी भाजपा नेता या फिर मोदी सरकार का। यह टिप्पणी 14 नवंबर को सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश एमआर शाह और न्यायाधीश हिमा कोहली की खंडपीठ ने एक संबंधित याचिका पर सुनवाई करते हुए की है।
मतांतरण पर बहस एक शताब्दी से अधिक पुरानी है। इसके समर्थक इस विषय ‘आस्था की स्वतंत्रता’ के अधिकार से जोड़कर देखते है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अन्य मानवाधिकारों की तरह पसंदीदा पूजा-पद्धति अपनाने का अधिकार भी अक्षुण्ण होता है। इन अधिकारों को जहां कई घोषित इस्लामी-ईसाई गणराज्यों के साथ चीन रूपी वामपंथी देशों में चुनौती मिलती है, वही भारत में उसकी अनंतकालीन बहुलतावादी सनातन संस्कृति के अनुरूप सभी प्रकार के मानवाधिकारों के साथ पसंदीदा पूजा-पद्धति अपनाने की स्वतंत्रता है। परंतु ‘आस्था के अधिकार’ का उपयोग छल-कपट या लालच-लोभ से किसी का मजहब परिवर्तन करना, क्या सभ्य समाज को स्वीकार्य होगा?— वह भी भारत जैसे देश में, जिसे मजहब के नाम पर 75 वर्ष पहले तीन हिस्सों में बांट दिया गया था।
पाकिस्तान-बांग्लादेश अस्तित्व में क्यों आए? क्योंकि अविभाजित भारत की जनसंख्या के एक बड़े भाग ने यह कहकर विभाजन की मांग कर दी कि उनकी सभी पहचानों (राष्ट्रीयता सहित) में से मुस्लिम पहचान सर्वोच्च है और इसलिए वे यहां की मूल सनातन संस्कृति में विश्वास रखने वालों के साथ बराबरी का दर्जा लिए नहीं रह सकते। उसी मजहबी पहचान ने देश तोड़ दिया। आज वही टूटा हिस्सा— पाकिस्तान न केवल खंडित भारत को अपना घोषित शत्रु मानता है, अपितु उसे ‘हजारों घाव देकर मौत के घाट उतारने’ की नीतिगत योजना भी बनाता रहता है। इस मानसिकता को स्वामी विवेकानंद ने वर्ष 1899 में रेखांकित किया था। उन्होंने तब ‘प्रबुद्ध भारत’ पत्रिका से बात करते हुए कहा था, “जब हिंदू समाज का एक सदस्य मतांतरण करता है, तो समाज की एक संख्या कम नहीं होती, बल्कि हिंदू समाज का एक शत्रु बढ़ जाता है।” इसी भावना को सर्वोच्च न्यायालय ने दूसरे शब्दों में दोहराया है।
जिस मोहम्मद अली जिन्नाह ने ब्रितानियों और वामपंथियों के साथ मिलकर सैयद अहमद खान के ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ को मूर्त रूप देकर पाकिस्तान को जन्म दिया था—उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि गुजराती हिंदू थी। मोहम्मद इकबाल, जिन्होंने 1931 में पाकिस्तान का भूगौलिक खाका खींचा था— उनके पूर्वज कश्मीरी हिंदू थे। पाकिस्तान के लिए तब जितने भी मुस्लिम आंदोलित रहे, उनमें से अधिकांश के पूर्वज हिंदू थे। मजहब बदला, निष्ठा बदली और देश टूट गया। कश्मीर को इस्लाम के नाम पर संकट में झोंकने वालों में शामिल शेख अब्दुल्ला के पूर्वज भी हिंदू थे।
किसी को लालच देकर मतांतरण हेतु प्रेरित या विवश करना— क्या ‘आस्था की स्वतंत्रता’ होनी चाहिए? सच तो यह है कि इसे ‘आत्मा का व्यापार’ कहा जाता है। जब मनुष्य देह के खरीद-फरोख्त (मानव-तस्करी सहित) को अनैतिक और आपराधिक कहा जाता है, तो ‘आत्मा के व्यापार’ को सभ्य समाज कैसे स्वीकार कर सकता है? 1857 की प्रथम स्वतंत्रता क्रांति में क्या हुआ था? जब हिंदू-मुस्लिम 600 वर्षों के शत्रुभाव को भुलाकर ब्रितानियों के खिलाफ लड़ रहे थे, तब जो एकमात्र भारतीय समाज अंग्रेजों के पक्ष में खड़ा था, वह नव-मतांतरित ईसाई समाज था। इस विकृति का बीजारोपण 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली साम्राज्यवाद के साथ रोमन कैथोलिक चर्च के भारत आगमन, क्रूर फ्रांसिस ज़ेवियर द्वारा प्रतिपादित बीभत्स ‘गोवा इंक्विजीशन’ और ब्रितानियों द्वारा अपने चार्टर में अनुच्छेद जोड़कर चर्च-ईसाई मिशनरियों को मतांतरण में सहयोग ने किया था। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के दशकों बाद वामपंथियों, स्वयंभू सेकुलरिस्टों के आशीर्वाद और विदेशी वित्तपोषित स्वयंसेवी संगठनों के समर्थन से देश के कई भू-भागों में मतांतरण का खेल धड़ल्ले से जारी है।
मतांतरण से स्थानीय संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ता है? विगत 1413 वर्षों में अरब से विश्व के जिस भू-भाग में इस्लाम ने प्रवेश किया— उस क्षेत्र की मूल संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली को कालांतर में तलवार के बल पर या तो बदल दिया गया या फिर उसका प्रयास आज भी हो रहा है? भारतीय उपमहाद्वीप के कई क्षेत्रों के अतिरिक्त ईरान, ईराक, सीरिया, कोसोवो आदि इसके प्रमाण है। इसी प्रकार यूरोपीय महाद्वीप पहली सहस्राब्दी, तो अमेरिकी-अफ्रीकी-ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप दूसरी सहस्राब्दी से पहले ईसाई बहुल नहीं थे। अनुमान लगाना कठिन नहीं कि देशों-महाद्वीपों के मतांतरण हेतु क्या-क्या हथकंडे अपनाए गए होंगे।
यह बहुत दिलचस्प है कि भारत में जो वाम-उदारवादी और स्वघोषित संविधान-रक्षक एकेश्वरवाद प्रेरित मतांतरण का ‘मौन-समर्थन’ करते है और उसके विरोध को ‘मजहबी स्वतंत्रता पर खतरा’, ‘बहुसंख्यकवाद का दमन’ आदि बताकर दूषित नैरेटिव स्थापित करते है, वे यूनाइटेड किंगडम आदि देशों के ‘सेकुलरवाद’ को अनुकरणीय मानते है। क्या ऐसा है? ब्रिटेन में ‘चर्च ऑफ इंग्लैंड’, जिसके संरक्षण हेतु ब्रितानी राजघराना प्रतिबद्ध और शपथबद्ध है— उसके कुल 42 में से 26 बिशप-आर्कबिशपों के लिए ब्रितानी संसद के उच्च सदन ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ में स्थान आरक्षित होता है। शासकीय वरिष्ठता में कैंटरबरी के आर्कबिशप ब्रितानी प्रधानमंत्री से ऊपर होते है। यहां राजकीय खर्चें पर चर्च प्रेरित स्कूलों में लाखों छात्र पढ़ते है। यह सुविधा अन्य मजहबों को प्राप्त नहीं। क्या ऐसा ‘सेकुलरवाद’ आदर्श हो सकता है?
वास्तव में, यह विवाद ‘आस्था की स्वतंत्रता’ का नहीं है। एक ओर भारतीय सनातन संस्कृति है, जिसका मूलमंत्र है— ‘एकं सत विप्रा बहुधा वदंति’— अर्थात, ईश्वर एक है, उस तक पहुंचने के कई मार्ग हो सकते है। दूसरी तरफ एकेश्वरवादी चिंतन है, जिसमें केवल उनका ईश्वर ‘सच्चा’, शेष ‘झूठे’ और ‘फरेब’ होने का सिद्धांत है। इसी तथाकथित ‘झूठ’ और ‘फरेब’ को मिटाने हेतु विश्व में कई मजहबी संघर्ष— क्रूसेड और जिहाद हुए है। इसमें लाखों निरपराध इसलिए मार दिए गए, क्योंकि वे उनके अनुसार ‘सच्चे’ नहीं थे। मानवता विरोधी यह युद्ध आज भी जारी है, जिसका समयानुसार, स्वरूप बदल गया है— बाकी उद्देश्य और एजेंडा अब भी अपरिवर्तित है। विश्व शांति और मानव-कल्याण को इस संकीर्ण मानसिकता से सर्वाधिक खतरा है।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
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