आजकल फेक न्यूज़ की हवा चल रही है | मानसिक रूप से कमजोर इंसान जिससे नफरत करता है वह उसके खिलाफ प्रचारित होने वाले सभी लेखो को पढ़ने के बाद संतुष्टि प्राप्त कर लेता है और समझता है की मैंने इतिहास पढ़ लिया | अरे भाई इतिहास सिर्फ यूट्यूब के कुछ विषैले और भ्रान्ति से लिप्त वीडियो या फेसबुक और गूगल में लिखे पोस्ट नहीं होते | यूट्यूब के वीडियो आप भी बना सकते है और मै भी , किसी वेबसाइट के पोस्ट मै भी लिख सकता हु और आप भी | पर जरुरी तो नहीं की वह सब सही ही हो | सभी व्यक्ति अपने चैनल और वेबसाइट से कमाने के लालच में ऐसे वीडियो या पोस्ट लिखना पसंद करते है जिसे लोग पढ़े | उन्हें यह फर्क नहीं पढता की उनके पोस्ट का आम लोगो पर क्या प्रभाव पड़ेगा उनका लक्ष्य सिर्फ ट्रैफिक बटोरना है | अब मान लीजिये आपने कहा की चंद्रशेखर जी की मौत अल्फ्रेड पार्क में हुयी थी तब सिर्फ 10 % लोग उस लेख को पढ़ना पसंद करेंगे | लेकिन जब आप झूठ लिखेंगे की नेहरू के कारन चंद्रशेखर आजाद की मौत हुयी थी तब नेहरू जी से नफरत करने वाले लाखो लोग उस लेख को पढ़कर नेहरू के प्रति यह नफरत अपने दिमाग में स्टोर करना चाहेंगे और मानेंगे की हमे सत्य मिल गया , और अपने इस झूठे ज्ञान को प्रचारित भी करेंगे | इतिहास की मोटी मोटी पुस्तक पढ़ने के बाद , दस वर्षो तक गहन शोध करने के बाद निष्पक्ष पुस्तक लिखने वाला इतिहासकार भी जब पुस्तक लिखता है तब भी वह अपनी पुस्तक को पूर्ण सत्य नहीं ठहराता | इतिहासकार के पास भूतकाल देखने की शक्ति तो है नहीं की वह नेहरू या आजाद की गुप्त बाते देख या सुन सके और फिर इतिहास लिखे | नेहरू और आजाद के बीच हुयी बातो के लिए प्रमाण तो वही है जो आजाद ने लिखा हो या नेहरू ने या जो वहा उनकी बाते सुन रहा हो या प्रत्यक्षदर्शी या घनिष्ठ मित्र हो जो उस समय उनके साथ था वही सच बता सकता है |
खैर मेरा यह लम्बा चौड़ा लेख लिखने का अभिप्राय यह नहीं है की मै आजाद और नेहरू जी के बारे में सही ही लिख रहा हु या गलत | मै यहाँ जो कुछ लिख रहा हु उसके साक्ष्य मौजूद है | उन्हें देख समझ के आप यह निर्णय ले सकते है की यह लेख सही है या गलत |
“नेहरू जी ने आजाद की मुखबिरी करवाई थी जिसके कारन आजाद की मृत्यु हुयी” कई अंधभक्त और अनपढ़ बुद्धि वाले यह कहते मिल जाएंगे | लेकिन जब आप उनसे उनकी कही यह बात कहने के लिए साक्ष्य मांगेंगे तो आपको शुद्ध देसी गालिया तो जरूर मिल जाएंगी लेकिन साक्ष्य नहीं मिलेंगे | हो सके तो आप एक बार मांग के देखिएगा जरूर |
इस लेख मे आगे अब पढ़िए नेहरू और आजाद के रिश्तो की कहानी नेहरू और सोहन (आजाद के दोस्त , चंद्रशेखर आजाद के बाद नेहरू इनसे भी मिले थे ) की जुबानी :-
नेहरू अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी ” में आजाद के बारे में लिखते है –
“भगत सिंह की फांसी की सजा रद्द करने के लिए गांधीजी ने जो जोरदार पैरवी की उसको भी सरकार ने मंजूर नहीं किया | उसका भी समझौते से कोई सम्बन्ध नहीं था | गांधीजी ने इस पर भी अलहदा तौर पर जोर इसीलिए दिया की इस विषय पर भारत में बहुत तीर्व लोक भावना थी | मगर उनकी पैरवी बेकार गयी |”
उन्ही दिनों की एक कौतूहलवर्धक घटना मुझे याद है जिसने हिंदुस्तान के आतंकवादियों की मनः स्थिति का आंतरिक परिचय मुझे कराया | मेरे जेल में से छूटने के पहले ही या पिताजी के मरने के पहले या बाद यह घटना घटी | हमारे स्थान पर एक अजनबी मुझसे मिलने आया | मुझसे कहा गया की यह चंद्रशेखर आजाद है | मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा था | हाँ दस वर्ष पहले मैंने उनका नाम जरूर सुना था जब 1929 असहयोग आंदोलन के ज़माने में स्कूल से असहयोग करके वह जेल गया था | उस समय वह कोई 15 बरस का रहा होगा और जेल नियम भंग करने के अपराध में जेल में उसे बेंत लगाए गए थे | बाद को उत्तर भारत में वह आतंकवादियों का एक प्रमुख आदमी बन गया | इसी तरह का कुछ कुछ हाल मैंने सुन रक्खा था | मगर इन अफवाहों में मैंने कोई दिलचस्पी नहीं ली थी | इसीलिए वह आया तो मुझे ताज्जुब हुआ | वह मुझसे इसीलिए मिलने को तैयार हुआ था की हमारे छूट जाने से आमतौर पर ये आशाये बंधने लगी थी की सरकार और कांग्रेस में कुछ न कुछ समझौता होने वाला है | वह मुझसे जानना चाहता था की अगर कोई समझौता होता है तो उनके समूह के लोगो को भी कुछ शांति मिलेगी या नहीं ? क्या उनके साथ तब भी आतंकवादियों का सा बर्ताव किया जायेगा ? जगह जगह उनका पीछा इसी तरह किया जायेगा ? उनके सिरों के लिए इनाम घोषित होते ही रहेंगे और फांसी का तख्ता हमेशा लटकता ही रहा करेगा या उनके लिए भी शांति के साथ काम धंधे में लग जाने की भी कोई सम्भावना होगी ? उसने कहा की मेरा और मेरे दूसरे साथियो का यह विश्वास हो चूका है की आतंकवादी तरीके बिलकुल बेकार है और उनसे कोई लाभ नहीं है | हां लेकिन वह यह मानने को भी तैयार नहीं था की शांतिमय साधनो से ही हिंदुस्तान को आजादी मिल जाएगी | उसने कहा आगे कभी सशस्त्र लड़ाई का मौका आ सकता है | मगर वह आतंकवाद नहीं होगा | हिंदुस्तान की आजादी के लिए उसने आतंकवाद को ख़ारिज ही कर दिया था | पर उसने फिर पूछा की अगर मुझे शांति के साथ रहकर बैठने का मौका ही न दिया जाये रोज रोज मेरा पीछा किया जाये तो मै क्या करूँगा ? उसने कहा इधर हाल ही में जो आतंकवादी घटनाये हुयी है वे ज्यादातर आत्मरक्षा के लिए ही की गयी है |
मुझे आजाद से यह सुनकर ख़ुशी हुयी थी और बाद में उसका और सबुत भी मिल गया था की आतंकवाद पर से उन लोगो का विश्वास टूट गया है | एक दल के विचार के रूप में तो वह अवश्य ही लगभग मर गया है और जो कुछ व्यक्तिगत इक्की दुक्की घटनाये हो जाती है वे किसी कारन बदले के लिए या बचाव के लिए या किसी की व्यक्तिगत लहर के फलस्वरूप हुयी घटनाये है | न की आमधारणा के फलस्वरूप | अवश्य ही इसके यह मानी नहीं है की पुराने आतंकवादी और उनके नये साथी अहिंसा के हामी बन गए है या ब्रिटिश सरकार के भक्त बन गए है । हा , अब वे पहले की तरह आतंकवादियों की भाषा मे नही सोचते। मुझे तो ऐसा मालूम होता है की उनमे सेे बहुतो की मनोवृत्ति निश्चित रूप से फासिस्ट बन गयी थी |
मैंने चंद्रशेखर आजाद को राजनैतिक सिद्धांत समझाने की कोशिश की और यह भी कोशिश की की वह मेरे दृष्टिबिंदु का कायल हो जाए | लेकिन उसके असली सवाल का की “अब मै क्या करू?” का मेरे पास कोई जवाब नहीं था | ऐसी कोई बात होती हुयी नहीं दिखाई देती थी जिससे उसको या उसके जैसो को कोई राहत या शांति मिले | मै तो जो कुछ उसे कह सकता था वह इतना ही था की वह भविष्य में आतंकवादी कार्यो को रोकने की कोशिश करे , क्योकि उससे हमारे बड़े कार्य को तथा खुद उसके दल को भी नुकसान पहुंचेगा |
“दो तीन हफ्ते बाद ही जब गाँधी इरविन बातचीत चल रही थी मैंने दिल्ली में सुना की चंद्रशेखर आजाद पर इलाहाबाद में पुलिस ने गोली चलायी और वह मर गया | दिन के वक़्त एक पार्क में वह पहचाना गया और पुलिस के एक बड़े दल ने आकर उसे घेर लिया | एक पेड़ के पीछे से उसने अपने आपको बचाने की कोशिश की | दोनों तरफ से गोलिया चली | एक दो पुलिसवालों को घायल कर अंत में गोली लगने से वह मर गया | ”
अब हम आगे पढ़ते है उनको जो चंद्रशेखर आजाद के निकटतम मित्र थे , आखिरी समय से कुछ समय पहले तक उनके साथ थे और आजाद जी के नेहरू जी से मिलने के कुछ दिनों बाद नेहरू जी से क्रांतिकारी दलों की भविष्य की योजना के क्रियान्वयन हेतु उनकी बातचीत हुयी थी |
सिंहावलोकन के अध्याय (दल की रक्षा के लिए आजाद के प्रयत्न ) के 67 वे पेज में यशपाल जी लिखते है — “एक दिन आजाद गोलमेज कॉन्फ्रेंस द्वारा समझौते की आशाओ और आशंकाओं के सम्बन्ध में पंडित जी से बात करने आनंद भवन पहुंचे | कुछ ही दिन पूर्व पंडित मोतीलाल नेहरू जी का देहांत हो चूका था | आजाद एक बार मोतीलाल जी से भी मिल चुके थे | पंडित मोतीलाल जी से मिलने का प्रयोजन सैद्धांतिक , राजनैतिक बातचीत नहीं था | मोतीलाल जी बहुत जिंदादिल आदमी थे | स्वयं कांग्रेस के कार्यक्रमों को अपनाकर भी क्रांतिकारियों की सहायता करना वे नैतिकता के विरुद्ध नहीं समझते थे | काकोरी षड्यंत्र के मुक़दमे में अभियुक्तों को क़ानूनी सहायता पहुंचाने के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया था |
यशपाल जी आगे लिखते है…. की मोतीलाल जी ने आजाद को घर बुलाकर खाना खिलाया था और बातचीत भी की थी | उस मुलाकात के समय पंडित जवाहरलाल जी की छोटी बहन कृष्णा भी थी | आजाद कृष्णा के उर्दू उच्चारण की नक़ल करके भी सुनाया करते थे |
जवाहरलाल नेहरू जी से मुलाकात में आजाद ने नेहरू जी से यह विशेष अनुरोध किया था की गांधीजी सरकार से समझौते की शर्तो में लाहौर षड्यंत्र केस के लोगो , भगतसिंह की रिहाई की बात को भी रखे यह मांग केवल आजाद की नहीं थी बल्कि जनता की थी | नेहरूजी ने यह स्पष्ट इंकार कर दिया था गांधीजी ऐसी शर्त नहीं रखेंगे | आजाद को इस बात का बड़ा दुःख था की नेहरूजी ने उन्हें फासिस्ट कहा | आजाद ने कहा – सोहन , एक दिन तुम जाकर पंडितजी से मिलो | मैंने प्रायः फरवरी के दूसरे तीसरे सप्ताह में शिवमूर्ति जी से कहकर नेहरूजी से समय निश्चित किया और संध्या समय आनंद भवन गया | पंडित जी समाचार पाकर बाहर आ गए | हम लोग दिवार के साथ लगे नीबू के पेड़ वृक्षों की बाढ़ के साथ साथ टहलते हुए बात करने लगे | पंडित नेहरू ने आतंकवाद को व्यर्थ बताया | मैंने यही कहा की हम लोग आतंकवादी नहीं है | हम व्यापक सशस्त्र क्रांति का है | हमारा देश की मुक्ति के लिए संघर्ष का ही भाग है | हमारा दृष्टिकोण समाजवादी है आतंकवादी नहीं | इसी प्रसंग में हमने अनुभव प्राप्त करने के लिए रूस जाने की इच्छा का जिक्र किया और उनसे आर्थिक सहायता का अनुरोध भी किया |
पंडित जी ने हमें बताया की मोतीलाल जी की मृत्यु के बाद से वे अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में स्वयं ही चिंतित है | सोच रहे है की अपने फैले हुए खर्च को कम कर दे | आर्थिक सहायता देना उनके बस की बात नहीं | मैंने कहा – ऐसे मामलो में आप सहायता नहीं करेंगे तो और किस पर भरोसा करे | कुछ सोच कर नेहरू जी ने कहा – आतंकवादी काम के लिए तो मैं कुछ सहायता नहीं करूँगा | हाँ , रूस जाने वाली बात के लिए मैं सोचूंगा | व्यक्तिगत रूप से भी उन्होंने हमें रूस चले जाने की इजाजत दी | उन्होंने पूछा इसके लिए कितना रुपया चाहिए | मैंने अनुमान से 5 – 6 हजार की रकम बता दी | नेहरूजी ने कहा – इतना तो बहुत है पर जो कुछ हो सकेगा करूँगा और शिवमूर्ति सिंह जी की मार्फ़त उत्तर दूंगा |
लौट कर मैंने बातचीत का ब्यौरा आजाद को बताया तो उन्हें काफी संतोष हुआ | उस रात तय हो गया की पहले सोहन और सुरेंद्र पांडे चौधरी , रामधनसिंह द्वारा सीमांत पर तैयार किये सूत्र से रूस चल दे |उसके कुछ समय बाद आजाद रूस के लिए रवाना हो सकेंगे |
लगभग तीसरे दिन शिवमूर्ति सिंह जी ने मुझे 1500 रुपये देकर कहा की शेष के लिए नेहरूजी प्रबंध कर रहे है | कतरे के मकान में लौट कर मैंने यह रुपया आजाद को सौप देना चाहा | उन्होंने कहा नहीं तुम ही रखो | इस विचार से की कही दुर्घटना में सभी रुपया एक साथ न चला जाए , फिर भी 500 मैंने उनकी जेब में डाल ही दिए | उस रात प्रायः रूस जाने के सम्बन्ध में ही चर्चा होती रही | बाद में जब चंद्रशेखर आजाद के मृत्यु के बाद सरकार की ओर से छपी सुचना में यह बात कही गयी थी की आजाद की जेब में 500 रुपये के नोट पाए गए थे यह रुपया पंडित नेहरू से मिले डेढ़ हजार रुपयों में से ही था | ”
यहाँ आप ने हर बात बड़े ध्यान पूर्वक पढ़ी होगी नेहरू जी के बारे में एक अफवाह यह भी उड़ती है की आजाद के खजाने को नेहरूजी ने अपने पास रख लिया और उसके बाद चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी करवाकर उनकी हत्या करवा दी उनके लिए मैं यह बता दू की नेहरू वंश ने हमेशा से ही क्रांतिकारियों की आर्थिक मदद ही नहीं की थी बल्कि आजाद की रूस यात्रा के लिए भी नेहरू जी ने 1500 रुपये अपनी जेब से दिए थे जिसमे से 500 रुपये आजाद की मौत के वक़्त उनके साथ ही थे |वैसे ही आजाद के नेहरू जी से मिलने के तक़रीबन हफ्ते दो हफ्ते बाद अल्फ्रेड पार्क में चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु हुयी | अब आप थोड़ा दिमाग लगाइये और सोचिये क्या नेहरूजी ने अल्फ्रेड पार्क में CCTV कैमरा लगवाया था या कोई GPS चिप आजाद जी की साइकिल में फिट कर दिया था ताकि आजाद जी की लोकेशन की जानकारी नेहरू जी अपने लैपटॉप में देखकर पुलिस को अपने आईफोन से कॉल करके सूचित कर सके की ये देखो यहाँ है आजाद | और अगर आप अंधभक्त नहीं है और ये मानते है की उस समय यह 2020 की सुविधा उपलब्ध नहीं थी तब आप यह कैसे कह सकते है की नेहरू जी ने आजाद के पैसे लूट लिए ? और आजाद की मुखबिरी की ? अनपढ़ और नफरती बुद्धि हमेशा कुतर्क ही कर सकती है | आत्ममंथन कीजिये , पढ़िए , इतिहास को समझिये और फिर सही गलत का निर्णय लीजिये | यूट्यूब या फेसबुक के पोस्ट पढ़कर आप सिर्फ अज्ञान बकेंगे और अपनी बुद्धि को आप और संकुचित कर लेंगे |
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