एक कहानी है कि एक झगड़ालू पति को अण्डे बहुत पसन्द थे पर उसे पत्नी को डाँटना भी था। उसने एक तरकीब निकाली। वह रोज अण्डे लाता और पत्नी उसका मनपसन्द कभी एग करी तो कभी अण्डे की भुर्ज़ी बना देती। पर पति को खाना भी था और पत्नी को कोसना भी था। तो एग करी बनने पर वह कहता कि इस अण्डे की तो भुर्ज़ी ठीक बनती और भुर्ज़ी बनाये जाने पर कहता कि इस अण्डे से एग करी हीं बनना चाहिये था। पत्नी परेशान… तो पत्नी की किसी सहेली ने बताया कि थोड़ा थोड़ा दोनों बना दो। अब पति देव के लिये दोनों डिशेज़ उपलब्ध थीं … और डाँटें तो किस मुद्दे पर । पर डाँट पड़ी कि जिस अण्डे से एग करी बनानी थी उसकी भुर्ज़ी बना दी और जिस अण्डे की भुर्ज़ी बनानी थी उसकी तुमने एग करी बना दी । तुम सुधर नहीं सकती हो।
कथा में पति का फोकस्ड होना आपको कचोटेगा, और पत्नी की विवशता आपको नैराश्य पूर्ण क्रोध के निकट लाएगी।
चलिये अब शीर्षक पर ध्यान धरते हैं कि आखिर इस बुराई की वज़ह क्या है तो वह है तटस्थ दिखने की बुद्धिजीवी भारतीयों और भारतीय मीडिया की पुरज़ोर कोशिश। कारण भी है कि कहीं भारतीयता से सराबोर दिख दिख गये तो मोदी मीडिया कहलाने ना लगें।
एक चर्चित अखबार ने अपने कार्टूनों के माध्यम से क्वार्टर फ़ाइनल की जीत के बाद सेमी फ़ाइनल में हार पर उपहास किया था। सोशल मीडिया पर प्रधानमन्त्री की खिलाड़ियों से बातचीत को अटेन्शनजीवीत्व कहा गया तो कभी उनके मैच देखने पर संयोग से हुई भारतीय टीम की हार के लिये उसी प्रधान मन्त्री को सोशल पनौती के रूप में भी ट्रेण्ड किया गया।
मज़े की बात यह है कि कांस्यपदक विजय वाले मैच में उसी शख्स के मैच ना देखने को भी उस जीत का कारण बताया गया और उसके लिये उन्हें व्यंग्यात्मक आभार भी समर्पित किया गया।
समस्या ये नहीं है कि सत्ता प्रमुख का मज़ाक बनाया गया या कुछ दुःखद संयोगों पर प्रधानमंत्री की उपस्थिति का उपहास उड़ाया गया.. अगर थोड़ी सकारात्मकता को भी मीडिया में जगह मिलती तो बेहतर होता।
सारी गन्दगी के साथ अगर ये ख़बर भी अखबार में अपना जगह बनापाती तो कुछ सकारात्मकता भी उत्पन्न की जा सकती थी जैसे – उड़न सिख मिल्खा सिंह की जीत के बाद एक औपचारिक पार्टी में नेहरू द्वारा मिल्खा के आग्रह पर घोषित एक दिन का अवकास तो फ़िल्मों में भी जगह दर्ज़ कर चुका है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओलम्पिक पदक विजेताओं के साथ शालीन मुलाकात तो अखबारों में दर्ज़ है पर इस प्रधानमन्त्री के ओलम्पिक खेलों के लिये जा रहे खिलाड़ियों से औपचारिक बातचीत और हर हार या जीत के बाद खिलाड़ियों की हौसला अफ़ज़ाई या सान्त्वना के स्वरों भी यदि किसी कोने में जगह मिलती तो क्या बात होती !

पर अफ़सोस बुद्धिजीवियों का दो-मुँहाँ चरित्र सचमुच आला दरज़े की है। खेलों में हार के बाद बने कार्टून या कांस्यपदक विजेता पुरुष खिलाड़ियों की हँसती आँखों के बदले पराजित महिला खिलाड़ियों की डबडबाती आँखों की बड़ी बड़ी तस्वीरें एक आम सहज भारतीयों को ये बताने के लिये काफी है कि भारतीय बुद्धिजीवी आज भी लाशों को कन्धा देने के बदले , तैरती लाशों की तस्वीरें खींचने को सच्ची पत्रकारिता मानता है या कोरोना से पीड़ित समाज में परोपकाररत जान गँवाते कोरोना वारियर्स के बदले कोरोना की दूसरी लहर में आन्दोलनजीवियों को बिरयानी परोसने वाले ज्यादा सुर्ख़ियाँ बटोर जाते हैं।
अगर खेल चल रहा हो तो खिलाड़ियों की पराजय के कार्टून बनाना या निराशावादी खबरों का प्रकाशन एक नैतिक अपराध घोषित होते तो बेहतर होता।
क्योंकि हार या जीत आपके लिये एक खबर है पर खिलाड़ियों के लिये आक्सीजन सप्लाइ है। मीडिया और बुद्धिजीवियों की दोगलई का प्रमाण हैं ये खबरें जो सिर्फ़ अवसाद के प्रचार प्रसार को हीं बुद्धिजीवित्व मानती हैं।

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