एक चुटकुला है कि एक चोर चोरी करने के घर में घुसा। उसने वहां देखा कि तिजोरी सामने है और उसके ऊपर लिखा हुआ है कि तिजोरी बहुत कीमती है । इसे तोड़ने की कोशिश ना करें । सामने लगा हुआ हत्था घुमाएँ और तिजोरी खुल जाएगी। चोर ने वैसा ही किया परंतु तिजोरी खुलने के बदले सायरन बज गया और पुलिस आ गई। पछताते हुए चोर ने कहा कि आज मेरा इंसानियत पर से भरोसा उठ गया।
इस चुटकुले में तिजोरी पर मैसेज लिखने वाला आदमी मुझे एक आम दिखाई देता है और चोर बुद्धिजीवी। तिजोरी के ऊपर लिखा हुआ मैसेज संविधान है और तिजोरी पूरा देश।
मजबूरी यह है कि चोर को शिकायत है कि मैसेज लिखने के बाद भी तिजोरी का मालिक इतनी बड़ी चीटिंग कैसे कर सकता है। आगे इंसानियत की कोई चीज है, है कि नहीं?

दरअसल बात तब शुरू हुई जब मैंने अपने एक लेख में दोगला शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में किया। जैसा कि सर्वविदित है दोगला शब्द अगर अकेले प्रयोग किया जाए अर्थात संज्ञा के रूप में तो वर्णसंकर संतानों का उल्लेख होता है या अनैतिक संबंध से जन्मे शिशु का। इसीलिए संभ्रांत समाज में इसे गाली के रूप में प्रयोग किया जाता है परंतु यही अगर विशेषण के रूप में हो तो दोमुंहे या दो विपरीत विचारों को प्रकट करने वाले (वह भी अपने हित में और खास करके विनाशकारी या निंदनीय कामों में ) लिप्त प्रकृति को दिखाता है। जैसे चीन की दोगली नीतियां, सास का बहू और बेटी के साथ दोगला व्यवहार आदि आदि। सबसे पहले दोगले शब्द का प्रयोग मैक्सवेल्स के ड्यूअल बिहेवियर ऑफ लाइट में समझ आया। इस ड्यूअल बिहेवियर का शाब्दिक अर्थ है दोगला व्यवहार। अगर हम इसे प्रकाश के दो-मुँहे व्यवहार की बात करेंगे तो अर्थ स्पष्ट नहीं होगा और। गलती
मुझसे भी हुई, मैंने भी इसी दो-मुंहे व्यवहार के लिए दोगला शब्द का प्रयोग किया। प्रिय अनुज ने आपत्ति जताई और मैंने भी उसका समायोजन खेदप्रकटीकरण के साथ कर लिया।
एक सवाल आज भी ज्वलंत है कि अगर किसी लेखक पत्रकार या समालोचक ने समकालीन सत्ता की किसी एक नीति का समर्थन कर दिया या उसका पक्ष ले लिया तो बुद्धिजीवियों का एक धड़ा उसे भक्त कहने में देर नहीं लगाता है और भक्त-भक्त करने लगता है परंतु ना उसे नमाजी कहा जाता है ना मौलवी ना लामा ना ग्रंथी, न पादरी ना रब्बी। आखिर भक्त क्यों।


भक्त भी इसीलिए क्योंकि भक्त वाला कुनवा कायर है सुविधा- भोगी है और मूर्ख है साथ साथ सेकूलर भी है।
एक शार्ली एब्दो या ऑस्ट्रेलियाई मस्जिद का धमाका इस्लाम और ईसाइयत के खिलाफ उंगली उठाना तो दूर कूँचियाँ भी चलाने भी नहीं देता। इजराइल की ताकत यहूदियों के सिनेगाग की तरफ बुरी नजरें उठाने से पहले मनचली निगाहों को हजार बार सोचने की नसीहत दे दे देता है। सिखों के कृपाण ने बड़े-बड़े सूरमाओं से मत्थे पिटवाए हैं। आपने बकरीद सुनी होगी कभी शेरईद सुनी है।
परंतु हिंदू तो बकरी के बच्चे हैं। चाहे तो बलि दे दो चाहे हलाल कर दो चाहे कुर्बान करो। बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी। जिन सेक्यूलरों को मेरे द्वारा उद्धृत शब्द बुद्धिजीवी में गाली का एहसास होता है उन्हें अगर भक्त संबोधन में भी गाली का एहसास होता तो आज बुद्धिजीवी शब्द मेरी क्या मेरे जैसे हजारों की नजरों में सचमुच जीवित रहता और वह भी बुद्धि और शुद्धि के साथ।
परंतु आधुनिकता की होली में सनातनियों की भक्ति गरीब की जोरू की तरह सब की भौजाई बनी हुई है।

एक-दो दिन पहले की खबर थी कि एक नामचीन साहब को भारतीय फिल्मों में हीरोइन के कर्नल पिता के खडूस दिखने पर आपत्ति है। यह बात उन्होंने एक नामचीन एक स्थान पर अतिथि के रूप में भाषण देते हुए कहा और यह सच भी है। फिल्मों में दिखाए गए कर्नल (यदि वह युद्ध गाथा ना हो ) तो ज्यादातर विदूषक ही दिखते हैं। परंतु उसी साहब को सारे पुलिस अफसरों का भ्रष्ट दिखना या खलनायकों का साथ देना कभी अनुचित नहीं लगा, ब्राह्मणों , पुरोहितों और पंडों का विदूषक जैसा दिखना बुरा नहीं लगा , नेताओं का भ्रष्ट दिखना बुरा नहीं लगा । जब इतनी चीजें बुरी नहीं लगी तो एक आर्मी मैन का जोकर दिखना बुरा क्यों लग रहा है ? जो आज किसी एक के साथ हो रहा है यकीन मानिए कल वह आपके साथ भी होगा क्योंकि अन्याय बुरे लोगों के शक्तिशाली होने की वजह से नहीं बढ़ता है बल्कि अच्छे लोगों के सेकुलर , सहिष्णु या बुद्धिजीवी बन जाने से बढ़ जाता है। अगर आप रामायण महाभारत सीरियल काल के दर्शक हैं तो आपको वह विज्ञापन भी याद होगा जिसमें एक दंत मंजन के विज्ञापन में एक शिक्षक का मजाक उड़ाया जाता है और इन दिनों पानी का एक ब्रांड ऊंटों के द्वारा शिक्षकों का मजाक उड़ा रहा है परंतु साहब को उस पर भी आपत्ति नहीं है।


मैं अपने अनुजो की चिंता समझता हूँ और उनकी सदाशयता की कद्र भी करता हूँ। उन साहब का उदाहरण देकर मैंने सिर्फ यह बताने की कोशिश की है कि सामर्थ्यवान लोग भी अपने हिस्से में फैले हुए अन्याय को देखकर व्यथित होते हैं परंतु कई ऐसे अन्यायों के मामले में आंखें मीच लेते हैं तो यकीन मानिए डॉ राहत इंदौरी साहब का का यह शेर आपको बहुत कुछ समझा देगा जो मैं लिख नहीं पा रहा हूं।

लगेगी आग तो आएंगे सभी घर ज़द में,
यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।।

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