क्या आप को पता है की जिन्ना, आजम खान, गुलाम नबी आजाद, ओवैसी, बुखारी, अब्दुल्लाह, मुफ्ती में क्या समानता है? ये सब ऊंची जाति के मुस्लिम हैं जिन्हें ‘अशरफ’ कहते हैं। मुस्लिमों मे 85% लोग दलित और पिछड़े हैं जिन्हें ‘पसमांदा’ मुस्लिम कहा जाता है। अशरफ अपने को बाहर से आयातित मुस्लिम मानते हैं जो की मुगलों के साथ भारत आए थे। ईसलिए इनके नाम अरबी होते हैं। जबकि पसमांदा खुद को हिन्दुस्तानी मुस्लिम मानते हैं। पसमांदा को देश के रीति रिवाजों से कोई परहेज नहीं हैं। इनके यहाँ महिलाओं का साड़ी पहनना, स्थानीय रिवाजों से निकाह करना, हिन्दू त्योहारों में शामिल होना आदि आम बात है। ये ही वो हिन्दुस्तानी मुसलमान है जिनकी झलक हमको अब्दुल कलाम, अब्दुल हमीद में दिखती है। ये ही वो लोग हैं जिनके आस पास हम आप बड़े हुए हैं। इनमें वो कट्टरता नहीं है क्योंकि ये खुद को विदेशी नहीं मानते, इनमें ये गफलत नहीं हैं की इनके बाप दादा ने हिंदुस्तान पे राज किया था इसलिए ये अशरफ पुत्र हैं जिनको यहाँ राज करना है। ये गजवा -ए -हिन्द का इंतजार नहीं कर रहे हैं।
भारत के मुस्लिमों में तीन प्रकार की जाति या बिरादरी बनाई गई है। सबसे ऊपर ‘अशरफ’ हैं जो सय्यद, शेख, मुग़ल, पठान, और मुस्लिम राजपूत आदि। सय्यद को सबसे उच्च जाति माना गया है। इसके नीचे हैं पिछड़े मुस्लिम जिनको ‘अजलाफ़’ कहा गया है। यह ओबीसी के जैसे हैं। और इनके नीचे हैं ‘अरजाल’। यह दलित मुस्लिम हैं। अजलाफ़ और अरजाल मिलकर 85% मुस्लिम जनसंख्या के बराबर हैं। पिछड़े मुस्लिम में कुंजरे (राईं), जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), दर्जी(इदरिसी), मनिहार(सिद्दीकी), कसाई(कुरैशी), फकीर(अलवी), हज्जाम(सलमानी), मेहतर (हलालखोर ) , धोबी (हवारी), लोहार, बढ़ई(सैफी) आदि शामिल हैं। सारे बड़े ओहदे जैसे की मौलवी, काजी, एमपी , एमएलए सब 95% तक अशरफ ले जाते हैं। भारत की 12% आबादी पसमंदा मूस्लिमों की लेकिन लोक सभा में उनके 1% भी एमपी नहीं हैं। यही स्थिति क्रमशः राज्य सभा और विधान सभाओं में भी मिलती है। आपको जो भी जमींदार, धनी, अगड़ा मुस्लिम दिखता है वो अशरफ है। जावेद अख्तर का हीरो मुसलमान अशरफ है क्योंकि वो खुद अशरफ हैं। पसमांदा की परिस्थिति दलितों से बहुत बदतर है। इनके बारे में अंबेडकर को भी बहुत चिंता थी। अपनी पुस्तकों में उन्होंने कई जगहों पर इसका उल्लेख किया है।
जब कभी पसमांदा चुनाव लड़ने की कोशिश करते हैं, अशरफ उनका जुलाहा, कसाई, दर्जी कहकर मजाक उड़ाते हैं। उनमें शादियाँ नहीं की जातीं। मस्जिद मे इनकी जगह अलग रखी जाती है। आपने वो विडिओ देखा होगा जहां जकात यानि की दान के अशरफ और पसमंदा के अलग डब्बे रखे जातें हैं मस्जिदों में । जब अशरफ को चुनाव में, या कोई दंगा फसाद करना होता है तो वो इस्लाम के नाम पर पसमांदा को अपने साथ लेने का ढोंग करते हैं। ये शोषण सदियों से जारी है और आगे भी जारी रहेगा अगर पसमांदा एकजुट होकर इनका विरोध नहीं करते। काँग्रेस ने मुस्लिम वोट बैंक के लिए इनका शोषण होने दिया। अशरफ को अपने साथ सत्ता में शामिल कर एक तरह से इस शोषण में हिस्सेदार बन गए। और तो और अशरफ के साथ मिलकर इनके पसमांदा आंदोलन को दबा दिया।अशरफ ने इस्लाम का परचम लहरा कर अपने समाज की गंदगी को सुधारने के बजाय इसे ढकने की कामयाब कोशिश की और इससे नुकसान पसमांदा का हुआ।
बदले राजनीतिक समीकरण में पसमांदा आंदोलन नए जोश के साथ अब फिर उठकर सामने आ रहा है। इनका एक संगठन ‘पसमांदा मुस्लिम महाज’ पुरजोर तरीके से ये आवाज उठा रहा है। इनका जोर अपने आंदोलन को सामाजिक रूप देने का है, ना की धार्मिक। यही सही रास्ता है, क्योंकि धर्म का नाम आते ही अशरफ इसे हाइजैक कर लेंगे और जो सहयोग इनको बाकी संस्थाओं से मिलना होगा वो भी नहीं मिलेगा। इन्होंने नारा लगाया है ‘दलित पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’। पसमांदा आंदोलन को जितना सहयोग मिल सके उतना कम है। ये हिन्दुस्तानी मुसलमान है जो अपने मेहनत से, हुनर से अपना घर बार चलाते हैं। गरीबी से जिनका चोली दामन का साथ है। ये वो वर्ग है जिसकी चिंता हम सब को होनी चाहिए। इस वर्ग को सरकारें और समाज मुस्लिम का अंदरूनी मामला कहकर अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते। मुस्लिम पसमांदा भी हमारे दलित और पिछड़े भाई हैं। अशरफ से इनके शोषण का खात्मा हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है। अगर इक्कीसवीं सदी में भी ये गुलामी चलती रहीं तो हमारे लिए शर्म की बात है। पसमांदा को मस्जिद के इमाम, मदरसे के मौलवी, शिक्षा में, चुनाव में मुस्लिम समाज के अंदर आरक्षण देने की व्यवस्था होनी चाहिए। आज की सरकार को इसपर ध्यान देना चाहिए. सामाजिक न्याय की दिन रात दुहाई देने वाले लेफ़्टिस्ट और लिबरल कब पसमांदा के हक में बोलेंगे? क्या रविश कुमार को ये नहीं पूछना चाहिए, “कौन जात हो मियां – अशरफ कि पसमांदा।”
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