मैं किसी राजनीतिक दल के समर्थन या विरोध में नही हूं और सिर्फ वो ही बात करना चाहता जो मेरी नजर में देशहित में लगती है। हो सकता है इसे पढ़ने वाला हर व्यक्ति मेरी सोच या लेखनी से सहमति नही रखे ओर राय विभिन्न हो लेकिन ऐसी असहमति का सम्मान हमेशा होना चाहिए। सबके अपने विचार होते है जो एक जैसे सम्भव ही नही है

में यहां बात कुछ समय पहले संसद से पारित होकर बने तीन नए कृषि कानूनों की कर रहा हूं। इनको किसान विरोधी कानून बता हजारों किसान पूर्ण वापसी की मांग को लेकर सर्द रातों में दिल्ली की सरहदों पर डेरा डाले हुए है।।

पहले पूरी तरह इन कानून को सही बताने वाली केंद्र सरकार अब आंदोलन के बाद किसानों की आपत्तियों पर संशोधन को तैयार है तो बिल पूरी तरह वापसी की जिद बेकार है।

सरकार के झुकने के बावजूद पूरी तरह बिल वापस करा सरकार को गलत साबित करने की एकमात्र जिद किसी राजनीतिक एजेंड की ओर इशारा करती है। जोर अपनी आशंकाओं का समाधान कराने पर होना चाहिए न कि मूंछ की लड़ाई बना मोदी सरकार को पराजित सिद्ध करने पर।

आज ये कानून खामियां सुधारने की बजाय पूर्ण रूप से आंदोलन के दबाव में आकर वापस लिए जाते है तो इस बात की गारंटी कौन देंगा की कल इसी तरह पड़ाव दिल्ली की सीमाओं पर डालकर कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने ओर सीएए जैसे कानून वापस लेने की मांग नही होंगी। कानून वापसी एक अंतहीन आंदोलनों की शुरुआत बन सकता।

आपका जोर कानून की जनविरोधी खामियों को दूर करवाने पर होना चाहिए न कि कानून वापस लेने की मांग पर होना चाहिए। बीमार होने पर शरीर का जो अंग खराब हो उसे काटा जाता है पूरा शरीर नही फेंक दिया जाता है।

कृषि कानूनों में कई खामियां हो सकती है लेकिन शत प्रतिशत खराब बता खारिज करने की मांग कतई उचित नही है। यदि नए कृषि कानून वास्तव में किसानों को बर्बाद ओर खेती का नाश करने वाले है तो इन कानून का विरोध पूरे देश की बजाय दो-तीन राज्यो में ही क्यो ज्यादा दिख रहा है।

राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश जैसे जिन राज्यो में गैर भाजपा शासन है वहा के किसान भी क्यो इस तरह आंदोलित नही है। फैसला कुछ राज्यो के किसानों की राय पर नही पूरे देश के किसानों की भावनाओ को जान समग्र हितों का आकलन कर उसी अनुरूप होना चाहिए। ये नही हो कि कुछ को खुश करने के चक्कर मे हम देश के किसानों के बहुमत को नाराज कर दे।

जनमत से चुनी गई सरकार की गलतियों को उजागर कर सुधार करवाने की बजाय उसे घुटने पर देखने की सोच लोकतांत्रिक तो नही हो सकती है।

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