Forgotten Indian Freedom Fighters लेख की तेरहवीं कड़ी में आज हम उस वीर क्रांतिकारी नायक के बारे में पढ़ेंगे, जिन्हें अपने ही देश में आज़ादी के बाद भी गुमनामी सी जिंदगी बितानी पड़ी और उन्हें इस बात का अफ़सोस था कि वो मातृभूमि के लिए शहीद क्यों नही हुए।
उन वीर क्रांतिकारी का नाम है – बटुकेश्वर दत्त।

“भगत का साथी”

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर 1910 को बंगाल प्रान्त के वर्धमान जिले में हुआ था।
कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही 1924 में उनकी मुलाकात भगतसिंह से हुई थी, भगतसिंह से प्रभावित होकर वो उनके संगठन ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से जुड़ गए। इस संगठन के माध्यम से बटुकेश्वर ने बम बनाना और हथियार चलाना सीखा।
क्रांतिकारियों द्वारा आगरा में एक बम फैक्ट्री बनाई गई थी जिसमें बटुकेश्वर दत्त ने अहम भूमिका निभाई।

अंग्रेजी सरकार का अत्याचार भारतीय जनता पर प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था और क्रांतिकारी ये सब बर्दाश्त नही कर सकते थे।
ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने के लिए क्रांतिकारियों ने अनेक साहसिक कार्य किए जैसे कि :- काकोरी षड्यंत्र, सांडर्स की हत्या आदि।
इसी क्रम में ब्रिटिश सरकार ने केन्द्रीय असेम्बली में श्रमिकों की हड़ताल को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से एक बिल पेश किया – पब्लिक सेफ्टी एंड ट्रेड डिस्प्यूट बिल।
इस बिल का उद्देश्य था स्वतंत्रता सेनानियों पर नकेल कसने के लिए पुलिस को ज्यादा अधिकार देना।
क्रान्तिकारियों ने निश्चय किया कि वे इस बिल के विरोध में ऐसा क़दम उठायेंगे, जिससे सबका ध्यान इस तरफ जाएगा।

8 अप्रैल 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय असेम्बली के अन्दर बम फेंककर धमाका किया। बम इस तरह से बनाया गया था कि किसी की भी जान न जाए। बम के साथ ही संगठन के पर्चे की प्रतियाँ भी फेंकी गईं, जिनमें बम फेंकने का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था।
इस घटना के कारण ये बिल एक भी वोट से पारित नही हो सका।

HSRA के पर्चे जो असेंबली में फेंके गए थे।

असेम्बली में बम फेंकने के बाद बटुकेश्वर दत्त तथा भगतसिंह ने भागकर बच निकलने का कोई प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि वे अदालत में बयान देकर अपने विचारों से सबको परिचित कराना चाहते थे। साथ ही इस भ्रम को भी समाप्त करना चाहते थे कि काम करके क्रान्तिकारी तो बच निकलते हैं पर अन्य लोगों को पुलिस परेशान करती है।

भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों गिरफ्तार हुए, उन पर मुक़दमा चलाया गया। 6 जुलाई 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अदालत में जो संयुक्त बयान दिया, उसका लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर ‘लाहौर षड़यंत्र केस’ का मुक़दमा चलाया गया। जिसमें भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सज़ा दी गई थी, लेकिन बटुकेश्वर दत्त के विरुद्ध पुलिस कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा काटने के लिए काला पानी जेल अंडमान भेज दिया गया।

बम फेंके जाने की घटना का समाचार

कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे। जेल में जब उन्हें पता चला कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सज़ा सुनाई गई है तो वो काफी निराश हुए। उनकी निराशा इस बात को लेकर नहीं थी कि उनके तीनों साथी अपनी आखिरी सांसें गिन रहे हैं बल्कि उन्हें दुःख था तो सिर्फ इस बात का कि उनको फांसी क्यों नहीं दी गई।

1938 में उनकी रिहाई हो गई, लेकिन जिनकी रगों में देशभक्ति का खून दौड़ रहा हो वो भला कैसे चुप बैठते ।जल्द ही वे महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में कूद पड़े, उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया और चार साल बाद 1945 में वे रिहा हुए।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया।
आज़ादी के बाद बटुकेश्वर दत्त के लिए सबसे बड़ा सवाल था कि अब वे आगे क्या करें, क्योंकि उन्होंने देश को आज़ाद करवाने के सिवा कुछ और सोचा ही नहीं था और अब देश आज़ाद हो चुका था तो वो पशोपेश में थे कि अब आगे क्या ?

नवम्बर 1947 में बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में रहने लगे, लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा। कभी सिगरेट कंपनी एजेंट तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर उन्हें पटना की सड़कों की धूल छाननी पड़ी।
बताते हैं कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे तो बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया, परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं, बटुकेश्वर दत्त के लिए ये दिल तोड़ने वाली बात थी।
हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर दत्त से माफ़ी मांगी थी।
उन्होंने किसी से भी सरकारी मदद नहीं मांगी, लेकिन 1963 में उन्हें विधान परिषद सदस्य बना दिया गया, फिर भी उनकी स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं आया।

अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे बटुकेश्वर दत्त 1964 में बीमार पड़ गए। उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया।
उनको इस हालत में देखकर उनके मित्र चमनलाल आज़ाद ने एक लेख में लिखा,
“क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी गलती की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है”

अखबारों में इस लेख के छपने के बाद सत्ता के गलियारों में हलचल हुई। पंजाब सरकार उनकी मदद के लिए सामने आई और बिहार सरकार भी हरकत में आई, लेकिन तब तक बटुकेश्वर की हालत काफी बिगड़ चुकी थी और उन्हें 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया।

दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि,
“मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था, वहाँ एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाऊंगा”

पहले उन्हें सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया और फिर वहाँ से एम्स ले जाया गया।
जांच में पता चला कि उन्हें कैंसर है और बस कुछ ही दिन उनके पास बचे है।
जब भगत सिंह की मां विद्यावती जी अस्पताल में बटुकेश्वर दत्त से उनके आखिरी पलों में मिलने आईं तो उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जताते हुए कहा कि उनका दाह संस्कार भी उनके मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।

20 जुलाई 1965 की रात 01 बजकर 50 मिनट पर भारत माँ के इस महान सपूत ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के ही अनुसार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के पास किया गया।

बटुकेश्वर दत्त ने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया लेकिन शायद ही किसी देशवासी को इनके बारे में पता होगा।
ऐसे महान वीर क्रांतिकारी को शत् शत् नमन।।
जय हिंद
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