लेखक-रमेश शर्मा

 

भारत को स्वतंत्रता सरलता से नहीं मिली । इसके लिये असंख्य बलिदान हुये हैं । यह बलिदान दोनों प्रकार के । एक वे जिन्होंने अपने प्राणों का बलिदान दिया और दूसरे वे जिन्होंने देश स्वाधीनता का जन जागरण करने के लिये अपने संपूर्ण जीवन का समर्पण किया । श्यामलाल जी गुप्त ऐसे ही महामना थे जिन्होंने अपना सर्वस्व जीवन इस राष्ट्र और समाज के निर्माण के लिये समर्पित किया । उन्होंने स्वाधीनता आँदोलन में तो सक्रिय भागीदारी की ही साथ ही अपने गीतों और लेखों के माध्यम से जन जागरण किया । सुप्रसिद्ध झंडा गीत-

“विश्व विजयी तिरंगा प्यारा,

झंडा ऊंचा रहे रहे हमारा”

इन्हीं की रचना है । लोग उन्हें भले न जाने पर उनकी रचना को सब जानते हैं । वे केवल रचनाकार ही नहीं थी एक समर्पित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे । वे कुल आठ बार जेल गये और दस साल फरारी में रहे और अपने लेखन से स्वाधीनता की अलख जगाते रहे ।

ऐसे समर्पित श्याम लाल जी गुप्त का जन्म कानपुर में हुआ । इनके पिता विश्वेश्वर प्रसाद जी एक मध्यमवर्गीय व्यापारी थे । माता कौशल्या देवी धार्मिक विचारों की थीं । घर में रामायण का पाठ नियमित होता था । वे जब काम में व्यस्त होतीं तो बालक श्याम को रामायण सुनाने के काम में लगा देतीं थीं । इस कारण श्याम लाल का लगाव रामायण से जीवन रहा वे मानस मर्मज्ञ भी थे ।

उन्हे कविता में रुचि बचपन से थी । पहली रचना पाँचवी कक्षा में लिखी जो सराही गयी । उनकी रचनाएं तीन प्रकार की होतीं थीं एक तो राष्ट्र के लिये समर्पित, दूसरी समाज के लिये और तीसरी रामजी के लिये । वे पढ़ने में भी बहुत कुशाग्र बुद्धि के थे । आठवीं कक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी । पिता इससे से प्रसन्न रहते पर बालक के कविता प्रेम से असंतुष्ट । एक बार उनके पिता ने उनकी सारी रचनायें कुयें में फिकवा दीं थीं । उनका तर्क था कि रचनाकार सदैव दरिद्र रहते हैं । वे अच्छा व्यापार नहीं कर सकते । घर की इस खींचतान से तंग आकर श्यामलाल जी अयोध्या चले गये और दीक्षा लेकर प्रभु सेवा में लग गये । तब परिवार के लोग मना कर लाये वे इसी शर्त पर लौटे की उन्हे टोका टाकी न की जाये । लौटकर आये तो उनका परिचय सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी से हुआ । वे अपनी रचना लेकर उनके पास गये थे । यहाँ से उनके रचनाओं में राष्ट्र सेवा का आयाम जुड़ा ।

श्याम लाल जी गुप्त ने सबसे पहले 1921 के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और गिरफ्तार हुये । उन्हे आगरा जेल में रखा गया । 1930 के नमक सत्याग्रह में भी गिरफ्तार हुये । वे 1921 से 1947 तक कुल आठ बार जेल गये । जबकि 1932 से 1942 तक वे अज्ञातवास में रहे । उन्होंने तीन जिलों कानपुर, फतेहपुर और आगरा में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का संचालन किया । फतेहपुर में बंदी बनाये गये ।

उन्होंने 1921 में जूता चप्पल न पहनने का व्रत लिया और घोषणा की थी कि जब तक देश स्वतंत्र नहीं होगा वे नंगे पाँव ही रहेंगे । और सचमुच उन्होंने 1947 में स्वतंत्रता के बाद ही चप्पलें पहनी । उनका इतिहास प्रसिद्ध गीता झंडा ऊंचा रहे हमारा 13 अप्रैल 1924 को कानपुर अधिवेशन में नेहरू जी के सामने गाया गया ।

स्वतंत्रता के बाद वे समाज सेवा और शिक्षा के प्रसार में लग गये उन्होंने विद्यालय स्वयं भी स्थापित किया और अन्य समाजसेवियो को विद्यालय स्थपना के लिये प्रेरित किया ।

राष्ट्र और संस्कृति को अपना जीवन समर्पित करने वाले गुप्त जी का निधन 10 अगस्त 1977 को कानपुर में हुआ । विनम्र श्रद्धांजलि । शत शत नमन ।

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