आज कल दो विराट व्यक्तित्व हमेशा चर्चा में रहते हैं कि एक ने किसी की तरफ़दारी में देश के टुकड़े करवा दिये तो दूसरे ने असहनीय कालापानी की सज़ा भुगत कर के भी अंग्रेजों से माफ़ी मांग ली। दोनों को लगातार कोसा जाता है परन्तु दोनों की अपनी फ़ैन फ़ोलोइंग है। दोनों के अपने अपने समर्थक बुद्धिजीवी हैं … एक का समर्थक खुद को देशभक्त कहता है और दूसरा राष्ट्रवादी। दोनों अपनी अपनी तरह से देश की सेवा कर रहे हैं और इन दोनों समूहों की वज़ह से देश एक भावनात्मक, राजनैतिक और सामाजिक अतिरेकी दौर में पहुँच चुका है।
महात्मा बुद्ध के मध्यम प्रतिपदा मार्ग पर काँटे उग आये हैं। आखिर क्यों ना हो , जिन रास्तों पर मानवों का आवागमन ना हो वो पगडण्डियाँ अक्सर खो जाती हैं। एक दूसरे का शिकार करने वाले आवारा पशुओं के दौड़ने से पगडण्डियाँ नहीं बनती हैं।
आज की हीं तारीख में एक सामान्य बच्चे का जन्म हुआ था जो सभी मानवीय गलतियों , कुविचारों और भूलों का पुतला था परन्तु सच का मारा था । सच पर टिके रहना जानता था और अपनी गलतियों को भी सच्चे मन से स्वीकारना और लिपिबद्ध करना जानता था। चाहे सिगरेट पीना हो, स्त्रीसंग की अत्यधिक कामना हो या कभी कभी पिता से बोला गया झूठ … उसे सब कुछ स्वीकारना आता था और अपनी एक हीं गलती कभी ना दुहराना भी उसने अपना स्वभाव बना लिया था। उसकी एक बात हमारे राज नेता कभी भी सीख नहीं पाये कि विवेक पर बहुमत कभी भी हावी नहीं हो सकता है।
ये एक ऐसा विराट व्यक्तित्व है कि उसके विद्रोह के तरीके को पूरी दुनियाँ ने स्वीकारा है… यही वज़ह है कि चे ग्वेरा के तरीके से ज़्यादा आपको नेलसन मण्डेला का संघर्ष आकर्षित करेगा।
लेनिन की विजय अपनी स्वर्ण जयन्ती नहीं मना पाई, माओ त्से तुंग का मज़दूरों का हितैषी शासन पूँजीवादियों की रखैल बन चुका है, दास कैपिटल की अवैध सन्तानों की तरह जन्मे जर्मनी , चेकोस्लोवाकिया जैसे देश अपना विभाजन कब का भूल चुके हैं और लेनिनग्राद कब का सेंटपीटर्सवर्ग बन चुका है। सिर्फ़ चीन के पूँजीवादी गिरफ़्त में फँसा वियतनाम, किम जोंग की दादागिरी से दबा उत्तर कोरिया और कास्त्रो की विरासत क्यूबा को छोड़ दें तो नेपाल और भारत का केरल हीं लाल है वरना अब तो लाल के नाम पर मदन लाल ( खुराना ), देवी लाल , वंशी लाल , भजन लाल भी इतिहास हीं हैं परन्तु अहिंसक आन्दोलन से अर्जित हमारी स्वतन्त्रता आज भी अक्षुण्ण है।
तो अब तक आप जान चुके होंगे कि ज़िक्र गान्धी का है जिसका सरनेम से काम चलाने वाले अहिन्दुओं का दत्तात्रेय गोत्र भी हो सकता है और पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी भी। इस नाम का जलवा इतना है कि नोट बन्दी के बाद भी सिर्फ़ इस शख्स की मुंडी इस तरफ से उस तरफ घुमाई गई पर फोटो नहीं हटाई जा सकी । इस शख्स को गोली मारने वाले का अप्रत्यक्ष समर्थन भले हीं किया जाये पर कोई भी विचारधारा उस हत्यारे को अपनी छत्रछाया में नहीं कबूल कर पाई है जैसे अपने सभा में भारत विरोधी नारे लगाने वालों की निन्दा नहीं करने वाले वरिष्ठ छात्र नेता के लाल सलाम को साम्यवादियों की पार्टी भी नहीं झेल पाई और आखिर में उसे उसी पार्टी ने स्वीकारा जिस के नेता कभी ओसामा जी और तो कभी मसूद जी कहकर आतंकवादियों की इज़्ज़तअफ़जाई कर चुके हैं।
आज की सत्ता भी स्वच्छ भारत अभियान इन्हीं के चश्मे से देख रही है।
परन्तु गान्धी के नाम पर कुछ कर्मकाण्ड आज भी चल रहे हैं जैसे शराबबन्दी की वज़ह से शराब का बैक डोर से अधिक कीमत पर बिक्री या इस दिन कसाईखाने के बन्द होने की वज़ह से १ अक्टूबर को हीं बकरों, बकरियों, मुर्गों आदि की अधिक मात्रा में हत्या और उनका मांस फ़्रिज़ में रख कर उपभोक्ताओं को अधिक कीमत के साथ बिक्री। २ अक्टूबर के इस सरकारी कर्मकाण्ड की अवहेलना का साक्षी लेखक भी रहा है।
वज़ह वही है … हम अतिवादी हो गये हैं।
सावरकर को भला बुरा कह कर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष धड़ा जो गलती कर रहा है, गाँधी को अण्डरएस्टीमेट करके भी वही किया जा रहा है जबकि इन दोनों के जूते में पैर रखकर दो कदम चलने की औकात किसी में नहीं।
गान्धी का अन्धसमर्थन या अन्धविरोध सदैव भारत के लिये हानिकारक रहेगा।
इस विराट व्यक्तित्व के पहाड़ जैसे किरदार के पीछे एक नाम वृष्टिछाया में पड़ गया है और वे हैं हमारे लाल बहादुर शास्त्री जी। शायद गान्धी के अहिंसक आन्दोलन से अर्जित स्वतन्त्रता ने भारत को विश्वपटल पर जो कायर और युद्ध भीरु छवि प्रदान की थी उसे शास्त्री के एक हीं प्रयास ने चकनाचूर कर दिया। “करो या मरो” के नारे ने भारत को अगर आज़ादी की राह पर अटल खड़ा रखा तो ” इस्लामाबाद चलो ” के नारे ने भारतीय शौर्य को एक नई पहचान दी।
यह विडम्बना हीं है कि गान्धी के हत्यारे के विरुद्ध तो पूरा भारत दिखता है पर कोई भी बुद्धिजीवी , राष्ट्रवादी या धर्मनिरपेक्ष भारतीय शास्त्री जी के हत्यारों की बात करना भी पसन्द नहीं करता या कहें तो उसी देश के राजनयिकों के साथ गलबहियाँ डाले हमारे राजनेता दिखाई देते हैं जिस देश में हमारे योद्धा प्रधान मन्त्री की हत्या हुई और इस पर किसी को आपत्ति नहीं चाहे वह सावरकर का समर्थक हो या गान्धी का।
परन्तु एक सामान्य कथन के साथ ये आलेख समाप्त होगा चाहे इसे आप आशावादी मानें या निराशावादी कि भारत के परिप्रेक्ष्य में गान्धी अपरि्हार्य हैं चाहे आप उन्हें पक्षपाती, कामुक, आत्ममुग्ध या दुविधाग्रस्त मानें ।
उनकी मानवता वादी सोच ने उनकी प्रार्थना के स्वरों में “ईश्वर अल्ला तेरो नाम” तो जुड़वा दिया पर न उनसे अल्लाह वाले जुड़ पाये और न हीं ईश्वर वाले। हाँ इस्तेमाल सबने खूब किया और इग्नोर कोई नहीं कर पाया।
और बापू , आपकी हालत पढ़े लिखे बेटों के बाप जैसी हुई जिसकी आखिरी साँसें किसी वॄद्धाश्रम में हीं नीलाम होती हैं… आपकी भी हुई, मारने वाला भी आपको बापू हीं कहता होगा।
हैप्पी बर्थ डे बापू। हैप्पी बर्थ डे शास्त्री जी।
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