कोविड की चुनौती से लगभग पूरा देश ही उबरकर आगे बढ़ चला था। टीकाकरण के क्रमबद्ध एवं प्रभावी क्रियान्वयन से भी जनजीवन के पटरी पर लौट आने की उम्मीद बँधी थी। स्कूल-कॉलेज भी खुलने लगे थे और धीरे-धीरे पढ़ाई भी नियमित होने लगी थी। महीनों से ठहरी पड़ी यात्राओं को भी तीव्र गति मिलने लगी थी। पर्यटन स्थलों पर सैलानियों और मंदिरों में श्रद्धालुओं की संख्या जुटने लगी थी। बाज़ार एवं अर्थव्यवस्था रफ़्तार पकड़ने लगी थी। गाँवों को गए हुए प्रवासी मजदूर शहरों में वापस लौटने लगे थे और कारोबारी-उद्यमी उन्हें ससम्मान वापस काम पर रख भी रहे थे। परंतु कोविड की दूसरी लहर और बढ़ते आँकड़ों ने एक बार पुनः भय मिश्रित चिंताओं एवं आशंकाओं को हवा दी है। अफ़वाहों के बाज़ार को गर्म किया है। सीमित संसाधन, भिन्न भौगोलिक संरचना एवं वायुमंडल और विशाल व सघन आबादी के बावजूद भारत ने जिस आत्मविश्वास एवं सफलता के साथ कोविड-19 से लड़ाई लड़ी, वह अपने आप में एक गौरवशाली-अविस्मरणीय इतिहास है। भारत उन चुनिंदा देशों में अग्रणी है, जिसने न केवल स्वयं इस महामारी से लड़ाई लड़ी, बल्कि दुनिया के अन्य तमाम देशों की भी मुक्तहस्त मदद की। भारत इस कोविड-काल में दुनिया का भरोसेमंद साथी बनकर उभरा। ब्राजील के राष्‍ट्रपति जेयर बोलसोनारो ने तो हनुमान जी की तस्वीर ट्वीट करके भारत को धन्‍यवाद दिया। यह भारतीय संस्कृति, परंपरा एवं लोकमान्यता के प्रति भी उनका कृतज्ञता भरा आदर था।

पर कोविड की इस दूसरी लहर ने हमारी गौरवपूर्ण उपलब्धि के इस चमकीले पृष्ठ को थोड़ा धुंधला किया है। हमारी लापरवाही कहीं अपने चिकित्सकों-वैज्ञानिकों, सरकारी-गैर सरकारी विभागों के मुस्तैद अधिकारियों-कर्मचारियों तथा प्रबुद्ध एवं जागरूक नागरिक-समाज के परिश्रम पर पानी न फेर दे। उन्होंने अपने परिश्रम-पुरुषार्थ से कोविड से संघर्ष के मोर्चे पर देश को जो वैश्विक बढ़त दिलाई, हमारी लापरवाही कहीं उसे पीछे न धकेल दे। लोग बिना मास्क लगाए बाजारों में आ-जा रहे हैं, चौक-चौराहे पर अकारण बैठ रहे हैं, शारीरिक दूरी और सैनेटाइजेशन का पालन नहीं कर रहे हैं। शादियों-उत्सवों, सार्वजनिक कार्यक्रमों एवं त्योहारों में कोविड-19 से बचने हेतु वे पर्याप्त सावधानी एवं सतर्कता नहीं बरत रहे। हवाई-यात्रा को छोड़कर यातायात के अन्य साधनों का उपयोग करते हुए भी वे सतर्कता एवं सावधानियों का ध्यान नहीं रख रहे।

यह सत्य है कि टीकाकरण के पश्चात अब न तो लॉक डाउन लगाया जा सकता है, न ही बाजार, जनजीवन एवं अर्थव्यवस्था को ही बाधित किया जा सकता है। ऐसे फैसलों से समाज के बड़े तबके के समक्ष आजीविका का संकट तो खड़ा हो ही जाएगा। इसके साथ-साथ मूडीज-फिच जैसी वैश्विक रेटिंग संस्थाओं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे प्रामाणिक वैश्विक संगठनों ने वित्त वर्ष 2021-22 में देश की भावी विकास दर दहाई अंकों में रहने की जो चमकदार संभावना जताई है, वह भी प्रभावित एवं धूमिल हो जाएगी। वैसे ही लॉकडाउन एवं कोविडकाल बहुतों के लिए मुसीबत का सबब बना है। वे अभी तक उससे उबर नहीं पाए हैं।

बच्चों और बूढ़ों के स्वास्थ्य एवं स्वभाव पर इसका बड़ा गहरा, व्यापक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा है। वृद्ध पहले से भी अधिक एकाकी हुए हैं। उनका पार्कों-क्लबों-समारोहों में आग्रहपूर्वक जाने का वर्षों पुराना अभ्यास एवं सामान्य चलन बाधित हुआ है। बच्चों में असामाजिकता की भावना घर कर गई है। उनका सहज-स्वाभाविक बचपन दाँव पर लगा है। वे या तो अकेले रहना पसंद करने लगे हैं या मोबाइल एवं गैजेट्स पर उनकी निर्भरता बहुत अधिक बढ़ गई है। यहाँ तक कि वे अपने घर आने-जाने वाले मेहमानों-परिचितों से भी आमने-सामने का संवाद नहीं करना चाहते। मुक्त हाव-भाव-व्यवहार से भरा बचपन दुर्लभ हो गया है। खिंचे-खिंचे, चिढ़े-कुढ़े रहना उनका स्वभाव बनता जा रहा है। चिंता, तनाव, अवसाद, मोटापा, चिड़चिड़ापन आदि इस लॉकडाउन एवं कोविड-काल के सह-उत्पाद हैं। बच्चे इन बीमारियों एवं परेशानियों के आसान एवं सर्वाधिक शिकार हैं। वे प्रकृति एवं परिवेश से कटे-छँटे केवल आभासीय व कृत्रिम संसार में फँसकर रह गए हैं। ऑनलाइन शिक्षा इस चुनौतीपूर्ण कालखंड में एक विकल्प बनकर तो अवश्य उभरी, पर उसकी कुछ सीमाएँ हैं। इंटरनेट ज्ञान एवं सूचनाओं के उस अथाह-अनंत सागर की तरह है, जिसमें डूब जाने का ख़तरा अधिक है और पार उतरने की संभावना कम। चंद विरले ही उस सागर में गहरे पैठ कर ज्ञान के मोती निकाल लाने की समझ व सामर्थ्य रखते हैं। टैब-लैपटॉप-मोबाइल पर ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर रहे नन्हे-अबोध-अपरिपक्व बच्चे की हर क्लिक पर एक नई, रोचक एवं आकर्षक दुनिया खुलती है। यदि वह उत्सुकतावश भी उसमें रुचि ले गया तो फिर वापस लौटने की संभावना क्षीण हो जाती है। वहाँ चयन के विवेक का नियम व तर्क नहीं चल सकता। उनसे ऐसे विवेक की अपेक्षा करना बेमानी व ज़्यादती है। अधिकांश माता-पिता के पास समय नहीं है, बड़े-बुजुर्गों की बात बच्चे यों टाल जाते हैं कि ये तो बस यों ही पुराने राग आलापते रहते हैं। जिनके पास समय है, उनमें ऐसी तकनीक-सिद्धता एवं समझ नहीं है कि अनावश्यक सामग्रियों से बच्चों को बचा सकें या उन पर पाबंदी लगा सकें। इसलिए ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर इंटरनेट पर पड़ी अश्लील सामग्रियों का दुरुपयोग इन दिनों आम चलन है। क्या यह सत्य नहीं कि ऑनलाइन शिक्षा स्कूल में होने वाले सामाजीकरण की विस्तृत प्रक्रिया एवं विद्यार्थियों के व्यक्तित्व के समग्र विकास का माध्यम और विकल्प नहीं बन सकती? वैसे भी शिक्षा केवल सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं, वह व्यक्तित्व का अंतर्बाह्य रूपांतरण है। बच्चों पर शिक्षकों के व्यवहार, व्यक्तित्व, ज्ञान व अभिरुचियों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। जिस देश में ” स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः” की धारणा और भावना पलती हो, वहाँ ऑनलाइन शिक्षा कितनी और कहाँ तक कारगर होगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में निहित है? इसलिए स्वयं समेत अपने बच्चों, बुजुर्गों, परिजनों, पास-पड़ोस के स्वास्थ्य एवं भविष्य को बचाने के लिए हमें आवश्यक सावधानियाँ बरतनी चाहिए, बताए गए नियमों-निर्देशों का अक्षरशः पालन करना चाहिए। कोविड- 19 से संबंधित दिशानिर्देशों एवं सावधानियों को दैनिक जीवनचर्या का अभिन्न अंग बना लेना चाहिए। यह हमारी महती आवश्यकता भी है और राष्ट्रीय जिम्मेदारी भी।

प्रणय कुमार

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