श्रीमद्भगवद्गीता :यथार्थ गीता
प्रथम अध्याय निष्कर्ष
गीता क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के युद्ध का निरूपण है। यह ईश्वरीय विभूतियों से संपन्न भगवतस्वरूप को दिखाने वाला गायन है।यह गायन जिस क्षेत्र में होता है, वह युद्ध क्षेत्र शरीर है। जिसमें दो प्रवृत्तियां हैं…. धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र। उन सेनाओं का स्वरूप और उनके बल का आधार बताया, शंखध्वनि से उनके पराक्रम की जानकारी मिली। तदनंतर जिस सेना से लड़ना है, उसका निरीक्षण हुआ। जिसकी गणना अठारह अक्षौहिणी( लगभग साढे छ:अरब) कहीं जाती है, किंतु वस्तुतःवे अनंत हैं। प्रकृति के दृष्टिकोण दो है- एक इष्टोन्मुखी प्रवृत्ति “दैवी संपद” दूसरी बहिर्मुखी प्रवृत्ति “आसुरी संपद” दोनों प्रकृति ही हैँ। एक इष्ट की ओर उन्मुख करती है, परमधर्म परमात्मा की ओर ले जाती है, और दूसरी प्रकृति में विश्वास दिलाती है। पहले दैवी संपद को साधकर आसुरी संपद का अंत किया जाता है, फिर सास्वत सनातन परब्रह्म के दिग्दर्शन और उसमें स्थिति के साथ दैवी संपद की आवश्यकता शेष हो जाती है, युद्ध का परिणाम निकल आता है।
अर्जुन को सैन्य निरीक्षण में अपना परिवार ही दिखाई पड़ता है, जिसे मारना है। जहां तक संबंध है उतना ही जगत है। अनुराग के प्रथम चरण में पारिवारिक मोह बाधक बनता है। साधक जब देखता है कि मधुर संबंधों से इतना विच्छेद हो जाएगा, जैसे वे थे ही नहीं, तो उसे घबराहट होने लगती है।स्वजनासक्ति को मारने में उसे अकल्याण दिखाई देने लगता है। वह प्रचलित रूढ़ियों में अपना बचाव ढूंढने लगता है, जैसा अर्जुन ने किया। उसने कहा “कुलधर्म ही सनातन धर्म है। इस युद्ध से सनातन धर्म नष्ट हो जाएगा, कुल की स्त्रियां दूषित होंगी, वर्णसंकर पैदा होगा, जो कुल और कुलघातियों को अनंतकाल तक नरक में ले जाने के लिए ही होता है। अर्जुन अपनी समझ से “सनातन धर्म” की रक्षा के लिए विकल है। उसने श्री कृष्ण से अनुरोध किया कि हम लोग समझदार होकर भी यह महान पाप क्यों करें?अर्थात श्री कृष्ण भी पाप करने जा रहे हैं। अंततोगत्वा पाप से बचने के लिए “मैं युद्ध नहीं करूंगा-ऐसा कहता हुआ हताश अर्जुन रथ के पिछले भाग में बैठ गया। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संघर्ष से पीछे हट गया।टीकाकारों ने इस अध्याय को “अर्जुन विषाद योग” कहा है। अर्जुन अनुराग का प्रतीक है। सनातन धर्म के लिए विकल होने वाले अनुरागी का विषाद योग का कारण बनता है। यही विषाद मनु को हुआ था।”हृदय बहुत दुख लाग, जनम गए हरि भगति बिनु।’ (रामचरितमानस, १/१४२) संशय में पड़कर ही मनुष्य विषाद करता है। उसे संदेह था कि वर्णसंकर पैदा होगा, जो नरक में ले जाएगा सनातन धर्म के नष्ट होने का भी उसे विषाद था। अतः संशय-विषाद योग’ का सामान्य नामकरण इस अध्याय के लिए उपयुक्त है।
अतः इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानंदजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानंद कृत ‘श्रीमदभगवतगीता’ के भाष्य ‘यथार्थ गीता’ में ‘संशय-विषाद योग’ नामक पहला अध्याय समाप्त होता है।
।। हरि:ॐ तत्सत।।
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