आज से दशकों पूर्व एक अनजान शहर, अनजान गली, अनजान सड़कें, चकाचौंध और कौतुक से भरे राजमार्ग आतंकित अधिक कर रहे थे, आशवस्त कम; वैसे भी पगडंडी की रपटीली राहों पर चलने वाले कदम राजमार्गों पर लड़खड़ा ही जाते हैं। हालाँकि उन दिनों दिल्ली सचमुच दिलवालों की ही थी, वह आज के जैसी भागती-दौड़ती, स्वार्थांध-आत्मकेंद्रित दिल्ली कदाचित नहीं थी। लोग व्यस्त होते थे, पर अपनों के लिए थोड़ा अवसर और समय निकाल लेते थे। यही कोई सुबह के चार बजे का समय रहा होगा। मेरे पास उस समय मोबाइल भी नहीं हुआ करता था। एक डायरी थी, जिसमें कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक लोगों के लैंडलाइन नंबर्स थे, तब शायद मोबाईल होना बड़ी बात थी। उधर सूरज ने अपनी लालिमा से उषा का शृंगार किया, इधर मेरी व्यग्रता कुछ कम हुई। यही कोई 4.30-5.00 बजे का समय रहा होगा, मैंने बड़े संकोच और द्वन्द्व के साथ एक टेलीफोन बूथ पर जाकर लैंडलाइन नंबर डायल किया, उधर से जो आवाज आई, उसकी आत्मीयता और अपनेपन ने मेरी सारी झिझक, सारा संकोच क्षण में दूर कर दिया। उन्होंने बड़ी आश्वस्ति के साथ मुझे पता बताया, समझाया और मिलने की व्यग्रता दर्शायी। मैं ऑटो कर निर्दिष्ट स्थान पर लगभग 45 मिनट बाद पहुँच गया, कॉल बेल बजाते ही दरवाजा खुला, दरवाजा खोलने वाले व्यक्ति ने भींचकर मुझे अपने गले से लगा लिया, उनसे मेरी यह दूसरी मुलाकात थी, पर वे जिस आत्मीयता से मिले, ऐसा लगा जैसे वे मुझे वर्षों से जानते हों। पता था आज का 11, अशोका रोड और व्यक्ति थे भाजपा के तत्कालीन महासचिव श्री के.एन गोविंदाचार्य जी।
उनके स्नेह और वात्सल्य का सिलसिला वहीं नहीं थमा, कुछ मिनटों की बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे कहा- “चलो प्रणय, मैं तुम्हें अध्यक्ष जी से मिलाकर लाता हूँ!” नंगे पाँव (क्योंकि उनके पैर में चोट लगी थी) एक सफेद रंग की मारुति वैन ख़ुद ही ड्राइव करते हुए वे मुझे तत्कालीन अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे जी के यहाँ ले गए। वहाँ हम लगभग चार घंटे से भी अधिक बैठे और उन्हीं के यहाँ जलपान किया। सोचिए, किसी की पहली दिल्ली-यात्रा और ऐसी आव-भगत, ऐसा लग रहा था जैसे उस अनजान शहर और अज़नबी लोगों के बीच एक नहीं बल्कि पूरा विचार-परिवार ही पलक-पाँवड़े बिछाए बैठा हो, गोविंद जी के साथ मारुति वैन की उस यात्रा में इतिहास-दर्शन-शिक्षा-साहित्य से लेकर जीवन और जगत् से जुड़े तमाम मुद्दों पर गहन चर्चा हुई और वह एक दिन मेरी ज़िन्दगी का सबसे ख़ास दिन बन गया! ऐसा जो मेरी स्मृतियों में स्पंदन बन आज भी धड़कता है। गोविंद जी से जो एक बार मिल ले, उनका होकर रह जाय। उनसे हुई दूसरी भेंट के पश्चात मेरी उनसे तीन-चार बार और भेंट हुई। हर भेंट हमारी प्रगाढ़ता को और बढ़ाती गई। ऐसा निस्पृह, निश्छल, आत्मीय व्यक्तित्व आज राजनीति क्या सार्वजनिक जीवन में ही दुर्लभ है। और उनके जैसी वैचारिक प्रखरता, ज्ञान-गंगा कदाचित इस कालखंड में कोई और न हो। उनसे हुई नाम मात्र की चर्चा भी पथ प्रशस्त करती है, दृष्टि-पथ से धुंध हटाती है।
जो लोग संघ-विचार परिवार से जुड़े हैं उन्हें पता है कि उस दौर में संघ रूपी मौक्तिक कोष में ऐसे एक-से-बढ़कर एक चमकदार नगीने थे। उनमें से कुछ की समय के साथ चमक धीमी पड़ी,कुछ वैसे ही जगमगाते रहे। वह दौर शायद मेरा भी निर्माण-काल था। विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान पूज्य रज्जू भैया, सुदर्शन जी, भागवत जी, स्व.अधीश जी, स्व ज्योति जी, स्व कृष्णचन्द्र गाँधी जी, स्वर्गीय भिड़े जी, स्वर्गीय ओमप्रकाश जी, माननीय दिनेश जी, माननीय स्वांतरंजन जी, माननीय अशोक जी बेरी, माननीय नवल जी, माननीय अशोक जी बेरी, माननीय संजय जी जैसे सामाजिक क्षेत्र के दिग्दर्शकों से लेकर आडवाणी जी, जोशी जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, कैलाशपति मिश्र जी, कल्याण सिंह जी, राजनाथ जी जैसे राजनीतिज्ञों से भी यदा-कदा भेंट हो जाया करती थी। इन्हीं चिंतकों-व्यक्तित्वों का परिणाम है कि आज तक राष्ट्र और हिंदुत्व के प्रति मेरी निष्ठा अक्षुण्ण रही है। मुझे संघ-पथ पर अग्रसर कराने वाले कई अग्रजों तक ने राह बदल ली, पर मेरी निष्ठा सनातन मूल्यों के प्रति दिन-प्रतिदिन बलवती होती गई, संगठन-भाव भी पहले की तुलना में आज और पुष्ट ही हुआ है।
आज कभी-कभी कैसे-कैसे संदर्भों में मन को यह बात कचोट जाती है कि क्या ईश्वर ने वे साँचे ही बनाने बंद कर दिए जिसमें ऐसे दृढ़ एवं प्रतिबद्ध चरित्र ढ़ला करते थे। जैसे-जैसे दिन बदले, दौर बदले सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र के प्रतिमान भी बदलते चले गए। सादगी-सरलता के स्थान पर बाहरी चमक-दमक पर अधिक ज़ोर दिया जाने लगा, भव्यता का आडंबर सबको भाने लगा, आत्मीयता का स्थान औपचारिकता ने ले लिया। शेष राजनीतिक पार्टियों के लिए तो कदाचित यह बदलाव स्वाभाविक भी रहा हो, पर भिन्न संस्कृति की बात करने वाली, प्रतिबद्धता पर मर मिटने वाली विचारधारा आधारित पार्टी के लिए बदलाव की यह बयार कुछ नई-सी है।
प्रणय कुमार
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