आईआईटी खड़गपुर के तथ्यात्मक एवं शोधपरक कैलेंडर पर वामपंथियों ने छेड़ा पुराना राग
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर ने ‘रिकवरी ऑफ़ द फाउंडेशन ऑफ़ इंडियन नॉलेज सिस्टम’ शीर्षक से वर्ष 2022 के लिए एक कैलेंडर जारी किया है, जिसमें आर्यों के आक्रमण को लेकर गढ़े गए मिथक को अकाट्य तर्कों एवं प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर निरस्त किया गया है। इस कैलेंडर में वेदों-पुराणों-महाकाव्यों से तमाम संदर्भों एवं साक्ष्यों को उद्धृत करते हुए हर मास के लिए दिए गए चित्रों-श्लोकों-उद्धरणों आदि के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए, अपितु वे भारत के ही मूल निवासी थे। इसके समर्थन में स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद एवं अन्य मनीषियों के कथनों एवं विज्ञान-सम्मत दृष्टांतों का भी संदर्भ दिया गया है। इसे लेकर तमाम वामपंथी संगठनों एवं शिक्षाविदों ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया है। वे शैक्षिक एवं शोधपरक निष्कर्षों को भी हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार बताकर अप्रासंगिक क़रार देना चाहते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि तमाम नए अनुसंधान एवं पुरातात्विक शोध के निष्कर्षों के बावजूद वे इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं कि आर्य कोई प्रजातिसूचक शब्द नहीं, अपितु गुण एवं श्रेष्ठतासूचक शब्द है। रामायण एवं महाभारत ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं कि भारतीय स्त्रियाँ अपने पतियों को आर्यपुत्र या आर्यश्रेष्ठ कहकर संबोधित करती थीं। आर्य और दस्युओं का उल्लेख भी मानवीय गुणों या प्रकृति-प्रवृत्ति पर आधारित है। आर्य यहाँ के मूल निवासी थे, इसीलिए भारत वर्ष का एक नाम आर्यावर्त्त भी है। द्रविड़ भी प्रजाति का द्योतक न होकर स्थान का परिचायक है। मनु ने द्रविड़ का प्रयोग उन लोगों के लिए किया है, जो द्रविड़ देश में बसते थे। महाभारत में राजसूय यज्ञ से पूर्व सहदेव के दिग्विजय के समय द्रविड़ देश का वर्णन आता है।  कृष्णा और पोलर नदियों के मध्यवर्ती जंगली भाग के दक्षिण में स्थित कोरोमंडल का समस्त समुद्री तट, जिसकी राजधानी कांची अर्थात कांजीवरम थी, (मद्रास से 42 मील दक्षिण-पश्चिम में) उसके निवासी भी द्रविड़ कहलाते थे। जैसे पंजाब, बंगाल, बिहार के सभी लोग पंजाबी, बंगाली, बिहारी कहे जाते हैं।
भारत के राष्ट्रगान में ‘द्रविड़’ शब्द पंजाब, सिंध, गुजरात आदि की तरह स्थानवाची है, जातिवाचक नहीं। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व, एक भी ऐसा वृतांत-दृष्टांत, स्रोत-साहित्य, ग्रंथ-आख्यान नहीं मिलता, जिनमें आर्य-द्रविड़ संघर्ष का उल्लेख भर भी हो। क्या यह संभव है कि विजितों-विजेताओं में से किसी के भी ग्रंथ, लोक-कथा या सामूहिक स्मृतियों में इतने महत्त्वपूर्ण व निर्णायक युद्ध का उल्लेख-मात्र न हो? आर्य यदि कथित रूप से बाहरी या आक्रांता जाति हैं तो क्या यह तर्कसंगत एवं स्वाभाविक है कि उनकी सांस्कृतिक चेतना, पुरातन स्मृतियों एवं उनसे जुड़े किसी भी ग्रंथ में उनके मूल स्थान की रीति-परंपरा-मान्यता-विश्वास आदि की झलक भर न हो, अपने मूल स्थानों के प्रति कोई श्रद्धा या कृतज्ञता की भावाभिव्यक्ति तक न हो? चाहे यूनानी हों या इस्लामिक आदि बाहरी व विदेशी आक्रांता, उनके नाम इतिहास में दर्ज हैं, क्यों कोई वामपंथी इतिहासकार आज तक यह नहीं बता सका कि आर्य यदि आक्रांता थे तो उनका नेतृत्वकर्त्ता कौन था? क्या यह संभव है कि हारी हुई जाति विजेताओं की भाषा-संस्कृति को शब्दशः और समग्रतः आत्मसात कर ले? लोक-भषाओं के स्फुट-स्वतंत्र-सहायक धाराओं के बावजूद क्या संस्कृत संपूर्ण भारत के ज्ञान-विज्ञान व साहित्य की भाषा नहीं रही? क्या दक्षिण के कण्व, अगस्त्य,  शंकराचार्य, मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, आदि ऋषि वैदिक संस्कृति के सर्वमान्य आचार्यों व दार्शनिकों में से एक नहीं? क्या सर्जक-पालक संहारक के रूप में ब्रह्मा-विष्णु-महेश, अवतारों के रूप में श्रीराम-श्रीकृष्ण, जीवन की आधारभूत शक्तियों के रूप में लक्ष्मी-पार्वती-सरस्वती-दुर्गा जैसी देवियों या इंद्र-वरुण-पवन-अग्नि-सूर्य-गणेश-कार्तिकेय आदि देवों के प्रति संपूर्ण भारतवर्ष में समान आस्था व श्रद्धा की भावना नहीं रही?
सत्य यह है कि निहित उद्देश्यों की पूर्त्ति के लिए आर्य-द्रविड़ संघर्ष की संपूर्ण अवधारणा ही अंग्रेजों द्वारा विकसित की गई। वे इस सिद्धांत को स्थापित कर बाँटो और राज करो कि अपनी चिर-परिचित नीति के अलावा ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध व्याप्त देशव्यापी विरोध की धार को कुंद करना चाहते थे। वे भारतीय स्वत्व एवं स्वाभिमान को कुचल यह प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे थे कि इस देश का तो कोई मूल समाज है ही नहीं, यहाँ तो काफ़िले आते गए और कारवाँ बसता गया, इसलिए भारत पर अंग्रेजों के आधिपत्य में आपत्तिजनक और अस्वाभाविक क्या है! बल्कि यह तो उनका ईसाईयत-प्रेरित कथित नैतिक कर्त्तव्य है कि वे असभ्यों को सभ्य बनाएँ, पिछड़े हुओं को आगे लाएँ! वामपंथियों एवं औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने इसे हाथों-हाथ इसलिए लिया, क्योंकि इस एक सिद्धांत के स्थापित होते ही प्राचीन एवं महान भारत वर्ष की समृद्ध ज्ञान-परंपरा पर से  भारतीय भूभाग से संतानवत जुड़े सनातन समाज का पुरातन, परंपरागत व ऐतिहासिक संबंध व अधिकार, मान व गौरव नष्ट होता है। इसके स्थापित होते ही बाहरी बनाम मूल, विदेशी बनाम स्वदेशी, आक्रांता बनाम विजित,  उत्पीड़क बनाम पीड़ित, परकीय बनाम स्वकीय का सारा विमर्श ही कमज़ोर पड़ जाता है। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री  जवाहरलाल नेहरू से पर्याप्त संरक्षण व प्रोत्साहन पाकर वामपंथियों एवं औपनिवेशिक  मानसिकता से ग्रस्त बुद्धिजीवियों ने और जोर-शोर से इसका प्रचार-प्रसार किया ताकि अपने मानबिंदुओं, जीवन-मूल्यों, जीवनादर्शों के लिए लड़ने-मरने वाला इस देश का मूल समाज भविष्य में भी कभी सीना तान, सिर ऊँचा कर खड़ा न हो सके। उन्होंने भारत के मूल एवं बहुसंख्यक समाज को आर्य-द्रविड़ में बाँटने की कुचेष्टा कर जहाँ एक ओर उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के तल पर दुर्बल करने का प्रयास किया तो वहीं सभ्यता के पथ-प्रदर्शक एवं विश्वगुरु के उसके स्वाभाविक दावे को भी खारिज़ करने की कोशिशें लगातार जारी रखीं। वस्तुतः वामपंथी विषबेल परकीय-औपनिवेशिक-खंडित विचार-भूमि पर ही पल-बढ़ सकती है, इसलिए उन्होंने सदैव उन सिद्धांतों का समर्थन किया, जो भारत की सांस्कृतिक एकता एवं अखंडता के मार्गIIT Khargpur में बाधक हों।
उल्लेखनीय है कि सिनौली (बागपत, उत्तरप्रदेश) और राखीगढ़ी (हरियाणा) में पुरातत्वविदों द्वारा किए गए हालिया उत्खनन व गहन शोध के निष्कर्ष भी यही हैं कि आर्य बाहर से नहीं आए। सिंधु-हड़प्पा एवं वैदिक सभ्यता में साम्यता के अनेक अवशेष इन स्थलों से खुदाई में प्राप्त हुए हैं। राखीगढ़ी में प्राप्त नमस्कार की मुद्रा वाली मूर्त्ति और आरे पहियों वाले रथ, सिनौली से प्राप्त 2000 से 1800 ईसा पूर्व की  ताम्र-मूर्त्तियों से सुसज्जित रथ, वेदों एवं महाकाव्यों में वर्णित रथों के उल्लेख को सही ठहराते हैं। भिन्न-भिन्न अवसरों पर किए गए आनुवांशिक गुणसूत्रों (डीएनए) के तमाम परीक्षणों के आधार पर भी यही सिद्ध होता आया है कि सारे भारतवासी एक ही पूर्वजों की संतानें हैं। कैंब्रिज़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ कीवीसील्ड के निर्देशन में लगभग 13000 नमूनों का परीक्षण किया गया, जिसमें पाया गया कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले सभी जातियों एवं मज़हब के डीएनए गुणसूत्र एक समान हैं। राखीगढ़ी की पुरातात्विक खुदाई में साढ़े चार हजार साल पुराने कंकाल मिले, जिनकी डीएनए जाँच के बाद डेक्कन कॉलेज ऑफ आर्कियोलॉजी के प्रोफेसर वसंत शिंदे और डीएनए वैज्ञानिक डॉ. नीरज राय ने दावा किया कि हड़प्पा सभ्यता को विकसित करने वाले भारतीय उपमहाद्वीप के लोग ही थे। उनका कहना है कि आर्य और द्रविड़ सभ्यता में संघर्ष के कोई निशान नहीं मिले हैं। आर्य भारतीय उपमहाद्वीप के थे और मोहनजोदड़ों, हड़प्पा और सिंधु सभ्यता वैदिक सभ्यता के ही विस्तार हैं। ये सभी एक हैं। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में भी कृषि की स्थिति उन्नत अवस्था में थी। भारतीय उपमहाद्वीप से ही लोग ईरान और मध्य एशिया में व्यापार और खेती करने गए थे।
और अब आईआईटी, खड़गपुर  द्वारा जारी किए गए वर्ष 2022 के कैलेंडर में चित्रों के द्वारा हर महीने नई-नई जानकारी देकर भारत के इतिहास की जानकारी दी गई है। जनवरी मास में कैलाश पर्वत का चित्र देकर दर्शाया गया है कि उसका ग्लेशियर कई महत्त्वपूर्ण नदियों का मूल स्रोत रहा है, जिसके तट पर कई सभ्यताएँ फली-फूलीं। सिंधु घाटी, हड़प्पा पूर्व और पश्चात की सभ्यताएँ यहीं पनपीं और विकसित हुईं। ब्रह्मपुत्र नदी भी इसी ग्लेशियर से निकली। ऋग्वेद में सिंधु की कई सहायक नदियों का भी उल्लेख है, जिनके स्रोत शिवालिक की पहाड़ियाँ हैं। व्यास, झेलम, चेनाब, रावी और सतलुज सिंधु की ही सहायक नदियाँ हैं। सिंधु से और पूर्व की ओर गंगा-गोमती-घाघरा नदियों के तट पर भी सभ्यता पनपी। ऋग्वेद के आठवें मंडल में गोमती का भी उल्लेख है। ऋषियों के निवास-स्थान के रूप में लोकप्रिय और उपनिषदों में उल्लिखित ‘नैमिषारण्य’  इसी नदी के तट पर स्थित था। आईआईटी, खड़गपुर का अध्ययन एवं शोध इस ओर संकेत करता है कि कैसे अंग्रेज इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय सभ्यता के पूर्वी और पश्चिमी छोरों को समझने में भूल की और आर्यों के आक्रमण को लेकर जान-बूझकर या अनजाने में मिथ्या या भ्रामक निष्कर्ष दे बैठे।
कैलेंडर में फरवरी मास के पृष्ठ पर पवित्र स्वस्तिक चिह्न के माध्यम से समय के चक्र एवं पुनर्जन्म को समझाया गया है। स्वस्तिक की पद्धत्ति अ-रैखिक एवं चक्रीय है। जबकि पश्चिम मानता है कि ”समय रैखिक गति से चलता है” और भारतीय मनीषा कहती है कि ”समय चक्रीय गति से चलता है, हर उत्थान में पतन और हर पतन में उत्थान की संभावनाएँ निहित होती हैं।” संपूर्ण वैदिक ज्ञान के मूल में ही समय, अंतरिक्ष और कार्य-कारणों का पता करने पर बल दिया गया है। कार्य सम्बन्धी सिद्धांत परस्पर निर्भरता के सिद्धांत पर आधारित है, जो कि किसी भी कार्य के ‘फ्लो और वैल्यू’ की क्रिया-प्रतिक्रिया पर आधारित होता है, जिसका परिणाम पुनर्जन्म के रूप में निकलता है। जिसे कॉस्मिक स्तर पर एक शरीर से आत्मा का निकल कर दूसरे शरीर में जाना कहते हैं (Transmigration & Metempsychosis), जिसे ‘जन्मांतरवाद’ नाम दिया गया है। पश्चिमी जगत के लिए भारतीय अध्यात्म, जीव-जगत-ब्रह्म, आत्मा-परमात्मा आदि के संबंधों की सूक्ष्म विवेचना दुरुह, रहस्यपूर्ण एवं अनजानी चीज है। मध्य-पूर्वी दुनिया के लिए भी ये बातें अनजानी हैं। अतः आर्यों के आक्रमण वाले सिद्धांत को भारतीय कॉस्मोलॉजी निरस्त करती है।
मार्च महीने के कैलेंडर में स्पेस-समय और कार्य-कारण सिद्धांत को समझाया गया है। इसमें बताया गया है कि सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में जो मुहरें (सील) मिली हैं, वे आर्य-ऋषियों द्वारा प्रतिपादित किए गए सिद्धांत ‘योग-क्षेम’ से मिलते-जुलते हैं। ऋग्वेद (10.167.1) में ‘योगक्षेम विषय कर्म’ और फिर 7.36 में ‘योगेभि कर्मभिः’ का उल्लेख है। 5.81.1 में योग को और अच्छे से समझाया गया है। इसमें बताया गया है कि कैसे योगी अपने मन एवं बुद्धि पर नियंत्रण रखते हैं। ‘होने और हो रहे (धार्यते इति धर्मः)’ के जरिए कॉस्मोलॉजी की वास्तविकता का आभास कराया गया है। चिंतन, ध्यान और सब प्रकार की सांसारिक चीजों एवं द्वंद्व से ऊपर उठ जाने को योग समाधि नाम दिया गया है। इसे प्राप्त करने वाले ही योगी हैं।  योग को सभी वैदिक कर्मकांड का मुख्य लक्ष्य माना गया है।  क्षेम या तंत्र उसे कहा गया है, जहाँ योगी को परम ज्ञान मिल जाता है और वो महायोगी हो जाता है। सप्तर्षि इसे प्राप्त कर चुके हैं। आर्य यदि यूरोप और यूरेशिया से आए आक्रांता होते तो उन्हें ये चीजें कैसे पता होतीं? इन विवरणों के आधार पर भी आर्य आक्रमण सिद्धांत गलत सिद्ध होता है।
अप्रैल मास में बताया गया है कि ‘समय के अ-रैखिक गति’ और ‘परिवर्तन-चक्र’ का वैदिक सिद्धांत भी सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है। ऋग्वेद एवं संपूर्ण यजुर्वेद ‘क्रिया-चक्र’ और ‘काल-प्रवाह’ को चक्रीय परिवर्तन (साइक्लिक चेंज) के रूप में परिभाषित करता है। इसी परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए वैदिक ऋषियों ने ‘षडऋतु-चक्र’ की व्यवस्था दी। उन्होंने 4 ऋतुओं के अतिरिक्त शरद ऋतु और वर्षा ऋतु को विशेष रूप से परिभाषित किया। ये मौसम और संस्कृति का विशिष्ट या भारतीय इकोसिस्टम है। वेदों में जीवन के सिद्धांत को ‘एक श्रृंग’ से भी जोड़ा गया है, जो बौद्ध धर्म में भी मिलता है और सिंधु घाटी से मिले एक सींग वाले जानवर की मुहर (सील) भी इसी ओर संकेत करता है। यदि आर्य बाहर से आते तो उन्हें इन बातों का निश्चित भान नहीं होता! ये बताता है कि आर्य-द्रविड़ सिद्धांत गलत है।
मई के पृष्ठ पर स्वामी विवेकानंद के एक उद्धरण के माध्यम से उन्हीं के शब्दों में यह प्रश्न पूछा गया है कि ”यदि आर्य बाहर से आए तो वेद के किसी सूक्त में ऐसा क्यों नहीं लिखा?’ उन्होंने कहा कि ”भारत का पूरा चिंतन पिछड़े एवं दुर्बल को केंद्र में रखकर किया जाता है, जबकि पश्चिम विजेता को ध्यान में रखकर नियमों-व्यवस्थाओं का निर्माण करता है।” मई के कैलेंडर में ‘द मैट्रिक्स’ के बारे में बात करते हुए इसे कॉस्मिक क्रियाकलापों का गर्भाशय बताया गया है। यही बात सिंधु घाटी की कलाकृतियों में भी परिलक्षित होती है। ऋग्वेद का सूक्त 1.164.46 विविधता में एकता के सिद्धांत को आगे बढ़ाता है, ‘यम’ के रूप में मृत्यु के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया गया।
देवी सूक्त (10.145) और रात्रि सूक्तम (10.127) कॉस्मो के निर्माण और विनाश को लेकर शुक्ल-कृष्ण के सिद्धांत को आगे बढ़ाता है। हमेशा से आर्य ऋषियों ने दिव्य शक्ति को बिना शर्त प्रेम के रूप में देखा। वेदों में ‘आदित्य’ और ‘इला, सरस्वती और भारती’ के रूप में प्रतिबिंबों का विवरण भी उस समय दिया गया था। आचार्य अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का ‘भारत माता’ का सिद्धांत इसी प्राचीन क्रम को आगे बढ़ाता है। जबकि पश्चिम में देशों को पितृसत्तात्मक रूप से देखा जाता रहा है, इसीलिए आर्य यदि बाहर से आए होते तो उनकी सोच भी यही रहती।
जून मास में वैदिक साहित्य में मिले एक सींग वाले घोड़े और हड़प्पा में एक सींग वाले जानवर की तुलना की गई है। रामायण में ऋष्यश्रृंग की चर्चा है, जिनका जन्म हिरण के सींग से हुआ था। सिंधु घाटी सभ्यता में भी एक सींग वाले जानवर की चर्चा है, जिसे शक्ति, और उसके सींग को ईश्वर के तलवार का प्रतीक माना गया है। यूनिकॉर्न का सिद्धांत ईसाई और चीनी मान्यता में भी था। ये भारत से बाकी जगह फैला था, बाहर से यहाँ नहीं आया। जुलाई महीने के कैलेंडर में बताया गया है कि कैसे पाश्चात्य अध्ययन ने शिव को गैर-आर्य देवता बताने की कोशिश की, जबकि वेदों में उनका उल्लेख है।
अगस्त महीने के कैलेंडर में ‘Oscillation’ के सिद्धांत के प्रतीक अश्विनियों की चर्चा की गई है। उनके बारे में लिखा था कि वो मधु देते हैं, जिससे मृत्यु पास भी नहीं फटकती। एशिया पैसिफिक और प्राचीन ग्रीस में भी इसी तरह दो देवताओं के साथ रह कर विचरण करने वाला सिद्धांत सामने आया। आधुनिक विज्ञान भी इस ‘Duality’ की बात करता है। मनुष्य के दिमाग के भी ‘Analytical’ और ‘Intuitive’ वाले दो हिस्से हैं। सितम्बर महीने के कैलेंडर में बताया गया है कि महर्षि अरविन्द ने भी आर्य-आक्रमण सिद्धांत को पूर्णतया निरस्त कर दिया था। अक्टूबर मास के कैलेंडर में उल्लिखित है कि पुर्तगाली और ब्रिटिश आक्रांता भारतीय और यूरोपीय भाषा में कई समान शब्दों को लेकर अचंभित थे। इसीलिए, उन्होंने एक इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज सिस्टम के विकास का निर्णय लिया और बुद्ध से पहले आर्य के आक्रमण की सिद्धांत रखी। उन्होंने लिखा कि भारत पर दूसरी बार 17वीं शताब्दी में उससे एक ‘ऊँची शक्ति’ ने आक्रमण किया। वे साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा भारत पर किए जाने वाले आक्रमणों और आधिपत्य को तार्किक आधार प्रदान करना चाहते थे। भारतीय, ग्रीक और लैटिन भाषाओं में समानता को लेकर अंग्रेजी विद्वान थॉमस स्टीफेंस ने भी अपने भाई को गोवा से एक पत्र सन् 1583 में लिखा था। अक्टूबर के ही विवरण से यह तथ्य भी सामने आता है कि वस्तुतः पाश्चात्य विद्वान एवं दार्शनिक येन-केन-प्रकारेण यह सिद्ध करना चाहते थे कि ज्ञान-विज्ञान एवं संस्कृति का प्रवाह(फ्लो) पश्चिम से पूरब की ओर हुआ है।
इस कैलेंडर में नवंबर व दिसंबर मास के विवरण में उल्लेख है कि ‘आर्य-द्रविड़ संघर्ष’ सिद्धांत के जनक मैक्समूलर थे, जिसे कालांतर में ऑर्थर दे गोबिनयउ और हॉस्टन स्टीवर्ट  चैंबरलेन ने आगे बढ़ाया। और आगे चलकर इसी मिथकीय अवधारणा से नाजीवाद पनपा और हिटलर के नेतृत्व में तो नस्लों की कथित शुद्धता के नाम पर घृणा व नरसंहार के कारोबार को आगे बढ़ाया गया। यूरोप ने ‘आर्य-अनार्य’ मिथक को परिभाषित करते हुए आर्यों की तथाकथित ‘शक्ति व श्रेष्ठता’ तथा ‘नस्ल की शुद्धता’, ‘औरों से भिन्नता’ आदि का ऐसा अहंकारयुक्त-आक्रामक अभियान चलाया कि 1915 से 1945 के बीच दुनिया को दो-दो विश्वयुद्ध की विभीषिका झेलनी पड़ी, विश्व-मानवता लहूलुहान हुई और करोड़ों निर्दोष जनों का खून बहा।
निष्कर्षतः यह कैलेंडर आर्य-अनार्य के मिथकीय सिद्धांतों को तो पूरी तरह निरस्त करता ही है, यह भारत की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता पर भी नया प्रकाश डालता है। यह उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित मनगढ़ंत मान्यताओं एवं मिथ्या अवधारणाओं को ध्वस्त करता है। इस कैलेंडर से यह सिद्ध होता है कि वैदिक संस्कृति केवल 2000 ईसा पूर्व पुरानी नहीं, अपितु उससे बहुत पहले की है। इस कैलेंडर में बताया गया है कि कौटिल्य से पहले भी भारत में अर्थव्यवस्था, कम्युनिटी प्लानिंग, कृषि उत्पादन, खनन और धातुओं, पशुपालन, चिकित्सा, वानिकी आदि पर बात की गई है। आईआईटी, खड़गपुर द्वारा तैयार किए गए वर्ष 2022 के कैलेंडर में जनवरी से दिसंबर तक के चित्रों-साक्ष्यों-संदर्भों का स्वागत किया जाना चाहिए, उसे भविष्य के विशद एवं व्यापक शोध के लिए दिशा-निर्देशक स्रोत के रूप में उपयोग करना चाहिए, न कि उसका विरोध कर नवीन  सोच, मौलिक शोध एवं बहुपक्षीय विमर्श को बाधित करना चाहिए। ज्ञान-विज्ञान पर पहरे बिठाने या विचारधारा के खूँटे से बाँधे रखने की वामपंथी एवं औपनिवेशिक मानसिकता व हठधर्मिता आज के तार्किक एवं वैज्ञानिक दौर में कदापि नहीं स्वीकार की जा सकती।
प्रणय कुमार
9588225950

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