बीते दिनों बिहार में जातीय जनगणना के आंकड़े नीतीश सरकार ने जारी कर दिए। इसका समर्थन करते हुए कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने ‘आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी’ निर्धारित करने का नारा फूंक दिया। दावा है कि जातीय जनगणना से समाज में वंचितों-पिछड़ों का उत्थान होगा। क्या ऐसा है? वास्तव में, जितनी सच्चाई राहुल के दत्तात्रेय ब्राह्मण होने में है, उतनी ही सच्चाई जातीय जनगणना से पिछड़ों के कल्याण करने के दावे में है। यह दोनों ही दावे संदेहास्पद है।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि राज्यों के विधानसभा और अगले वर्ष लोकसभा के चुनावों में मुद्दे क्या होने चाहिए? क्या चुनाव— राष्ट्रीय सुरक्षा, सर्वांगीण विकास और गरीबी उन्मूलन पर होना चाहिए या फिर यह जाति-मजहबी पहचान पर केंद्रित रहे? जाति, भारतीय समाज की एक सच्चाई है। परंतु समयानुसार, शताब्दियों से उसका स्वरूप भी बदल रहा है। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगिककरण के कारण दैनिक जीवन में जातिगत पहचान निरंतर क्षीण और गौण हो रही है। उसके स्थान पर भारतीय पहचान को मजबूती मिल रही है। यह एक स्वागतयोग्य परिवर्तन है। देश का दुर्भाग्य है कि विपक्ष, मोदी-विरोध के नाम पर इस अभिनंदनीय परिदृश्य को बदलना चाहता है। समाज में भारतीय पहचान को कमजोर करके और लोगों को जातियों में बांटकर एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना चाहता है। अंग्रेज ऐसा करते थे, यह समझ में आता है, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य— ‘बांटो-राज करो’ नीति का अनुसरण करते हुए अपने साम्राज्य को चिरस्थायी बनाने के प्रयास का हिस्सा था। यह अत्यंत दुख की बात है कि अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों को साधने के लिए कुछ दल, भारतीयों को पुन: इस आत्मघाती मार्ग की ओर ले जाने का षड़यंत्र कर रहे है।
आई.एन.डी.आई. गठबंधन द्वारा भारतीय समाज को बांटने का प्रयास नया नहीं है। बिहार में जातीय जनगणना के आंकड़े जारी करने से कुछ दिन पहले इस गठबंधन के एक मुख्य घटक ने तमिलनाडु में सनातन धर्म को समाप्त करने का आह्वान किया था। यदि इन दोनों घटनाओं का ईमानदारी से आकलन करें, तो समझ में आएगा कि मोदी विरोध के नाम पर यह गठबंधन किस प्रकार आग से खेलने का प्रयास कर रहा है।
क्या कारण है कि आई.एन.डी.आई. गठबंधन विकास, गरीबी और सुरक्षा आदि को मुख्य चुनावी मुद्दा नहीं बनाना चाहता? इसके कई स्पष्ट कारण है। बीते लगभग साढ़े नौ वर्षों से मोदी सरकार द्वारा क्रियान्वित ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ (पीएम-जेडीवाई) के अंतर्गत, 3 अक्टूबर 2023 तक 50 करोड़ से अधिक लोगों के निशुल्क बैंक खाते खोले गए, जिसमें उसने विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से लाभार्थियों के खाते में दो लाख करोड़ रुपये से अधिक हस्तांतरित किए है। इसी अवधि में भारत प्रधानमंत्री जनारोग्य योजना के अंतर्गत, 24 करोड़ 81 लाख से अधिक पांच लाख रुपये के मुफ्त वार्षिक बीमा संबंधित आयुष्मान कार्ड जारी कर चुकी है, जिसमें 61 हजार करोड़ रुपये से अधिक अस्पताल में उपचार लाभ ले चुके है। इसी प्रकार प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के अंतर्गत, इस वर्ष 31 मई तक मोदी सरकार ने देश के साढ़े 9 करोड़ से अधिक पात्रों को मुफ्त एलपीजी गैस कनेक्शन दिया है। पीएम-किसान सम्मान निधि योजना से औसतन 10 करोड़ किसानों को 6,000 रुपये वार्षिक दे रही है। वैश्विक महामारी कोरोना कालखंड में मोदी सरकार निशुल्क टीकाकरण के साथ पिछले तीन वर्षों से देश के 80 करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज दे रही है। ऐसी जनकल्याणकारी योजनाओं की एक लंबी सूची है। इन सबका लाभ, लाभार्थियों को बिना किसी मजहबी-जातीय भेदभाव के पहुंच रहा है। इसे कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने सराहा भी है।
विश्व बैंक की नीतिगत अनुसंधान कार्यसमिति के अनुसार, भारत में वर्ष 2011 से 2019 के बीच अत्यंत गरीबी दर में 12.3 प्रतिशत की गिरावट आई है। वर्ष 2011 में अत्यंत गरीबी 22.5 प्रतिशत थी, जो साल 2019 में 10.2 प्रतिशत हो गई। नगरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यंत गरीबी तेजी से घटी है। सामाजिक मोर्चे पर यह प्रदर्शन मोदी सरकार के नीतिगत मंत्र— ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ के कारण संभव हुआ है।
विगत एक दशक में जिस प्रकार की आर्थिक नीतियों को अपनाया गया है, उसके कारण भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और उसे तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनाने की योजना पर काम जारी है। एक समय था, जब भारत अकूत गरीबी, खाद्य वस्तुओं के अकाल, भीषण कालाबाजारी और अनियंत्रित भ्रष्टाचार के कारण विश्व के कई देशों की सहायता पर निर्भर था। आज इस स्थिति में व्यापक बदलाव आया है। जब आर्थिक संकट का सामना कर रहे श्रीलंका के लिए प्रमुख ऋणदाता देशों के समूह ‘पेरिस क्लब’ ने आधिकारिक समिति का गठन किया, तब उसकी सह-अध्यक्षता भारत भी कर रहा था। यह वैश्विक राजनीति में भारत के बढ़ते कद का एक प्रमाण है।
सुरक्षा मामले में भी भारत, सुगम प्रगति अनुभव कर रहा है। विगत साढ़े नौ वर्षों में जम्मू-कश्मीर और पंजाब में कुछ अपवादों को छोड़कर शेष भारत में कहीं भी कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हुआ है। लगभग डेढ़ दशक पहले भारत 13 बड़े जिहादी हमलों को झेल चुका था। अगस्त 2019 में धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण के बाद सीमापार से घुसपैठ और आतंकवादी घटनाओं में भी व्यापक कमी आई है। नक्सली घटनाओं में भी गिरावट दर्ज की गई है। पाकिस्तान-चीन से सटी सीमा पर किसी भी दुस्साहस का जवाब, उसी की भाषा में दिया जा रहा है।
यह किसी विडंबना से कम नहीं कि जातिगत जनगणना सार्वजनिक करने के लिए बिहार सरकार ने जिस दिन का चयन किया, उस दिन गांधीजी की 155वीं जयंती थी। इसे गांधीजी के सिद्धांतों पर कुठाराघात ही कहा जाएगा, क्योंकि गांधीजी ने जीवनभर भारतीय समाज को बांटने वाली विभाजनकारी ब्रितानी नीतियों का मुखर न केवल विरोध किया, अपितु आवश्यकता पड़ने पर इसे रोकने हेतु अपने प्राणों पर दांव भी लगा चुके थे। वर्ष 1932 का पूना पैक्ट इसका एक प्रमाण है। विरोधाभास की पराकाष्ठा देखिए कि आज स्वघोषित गांधीवादी दल, राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु भारतीय समाज को फिर से विभाजित करने पर आमादा हो गए है। क्या हमारी भारतीय होने की पहचान, शेष पहचानों से ऊपर नहीं होनी चाहिए?
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
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