इस देश में आज भी कथित मीडिया और वामपंथी बौद्धिक गिरोह नैरेटिव सेटर है। वह जब चाहे किसी को अर्श पर और जब चाहे किसी को फ़र्श पर पहुँचाने के दंभ पालता है और कुछ हद तक उसमें सफ़ल भी रहता है। वही मुद्दे चुनता है, उसी के उठाए मुद्दों पर हम सिर धुनते रहते हैं और इन सबसे अधिक हम उसी के चश्मे से किसी व्यक्ति का आकलन-मूल्यांकन करते हैं। वह सूगरकोटेड तरीके से किसी को बौद्धिक-प्रबुद्ध और किसी को विवादित-सांप्रदायिक सिद्ध कर देता है। इनके दुस्साहस की अनेक छवियाँ तो आपके ज़ेहन में भी ताजी होंगीं। याद कीजिए राजदीप सरदेसाई का वह इंटरव्यू, जब वह अमेरिका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुनने आई भीड़ से खुलेआम यह कह रहे थे कि ”आप नरेंद्र मोदी को पसंद करते हैं मतलब आपके सेलेक्शन, आपकी पसंद का क्लास नहीं है।” और वे किस हद तक अपना यह मत थोप रहे थे इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि जब लोगों ने उनका प्रतिकार किया तो वे वहाँ उपस्थित लोगों से धक्का-मुक्की और ग़ाली-गलौज तक पर उतर आए।

इस गिरोह ने हर उस नेता की छवि धूमिल करने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया जिसने बहुसंख्यकों के हितों की बात की। जिसने मज़हबी कट्टरता का विरोध किया। जो इनके सूडो सेकुलर एजेंडे में फिट नहीं बैठा। जिसने इनके सेकुलरिज्म के ढ़ोल की पोल खोलकर रख दी।

दिल्ली दंगों के बाद इनके निशाने पर एक युवा नेता आया। इन्होंने उसकी छवि एक हुड़दंगी नेता की बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसका अपराध केवल इतना था कि वह शाहीनबाग मॉड्यूल के विरुद्ध था। उसका अपराध केवल इतना था कि वह दिल्ली को दंगे की आग में झोंक देने वालों के मंसूबों पर पानी फेर रहा था। उसका अपराध केवल इतना था कि वह दिल्ली के स्टेशनों-सड़कों-चौराहों-बाज़ारों को बंधक बना लेने वाली कट्टर-मज़हबी-अराजक भीड़ और उनके राजनीतिक आकाओं के ख़िलाफ़ लगातार बोल रहा था। न केवल बोल रहा था बल्कि सर्वसाधारण नागरिकों के साथ सड़कों पर उतरकर उन दंगाइयों-बलवाइयों की आँखों-में-आँखें डालकर उन्हें अराजकतापूर्ण आतंक फैलाने से रोक रहा था। उनकी पीड़ा तो यही थी कि जहाँ और स्थापित नेता छोटे-मोटे वक्तव्य ज़ारी कर विरोध की औपचारिकता भर निभा रहे हैं, वहीं इसकी ऐसी हिम्मत की सड़कों पर उतरकर हमारी आँखों-में-आँखें डालकर हमारा प्रतिकार करे, हमारा रास्ता रोके।

आप पिछले कुछ महीनों-वर्षों का इतिहास उठाकर देख लें। राज्य में अनुकूल सरकार पाकर आए दिन दिल्ली की सड़कों पर, मुहल्लों में बहुसंख्यकों का खून बहा रही मज़हबी भीड़ के विरोध में आपको केवल एक मुखर आवाज़ सुनाई देगी। चाहे वह अंकित गर्ग की हत्या हो या अंकित सक्सेना, ध्रुव त्यागी, पंकज नारंग या राहुल राजपूत- इन सबकी हत्या के ख़िलाफ़ जिस प्रखरता से नेताओं और संचार माध्यमों को बोलना चाहिए था, नहीं बोला। हाँ, निरीह-मासूम-निर्दोष बहुसंख्यकों की नृशंस हत्या पर एक व्यक्ति बोलता दिखाई दे रहा है। पूरे दम-खम से बोलता दिखाई दे रहा है। इस बात की परबाह किए बिना की उसे मिटा देने की धमकियाँ मिल रही है, उसके परिवार को धमकियाँ दी जा रही हैं, यहाँ तक कि तमाम उलटे-सीधे आरोप लगाकर उसकी छवि को मिट्टी में मिलाने की दिन-रात, लगातार, बार-बार साज़िशें रची जा रही हैं, कोशिशें की जा रही हैं। पर वह है कि दृढ़ता से खड़ा है, अड़ा है, लड़ रहा है। अपने लिए नहीं, बल्कि मज़हबी कट्टरता के शिकार हिंदुओं के लिए। उन हिंदुओं के लिए, जिनके लिए बोलने से पहले लोग सौ बार सोचते हैं। सोचते हैं क्योंकि इधर आपने मुँह खोला और उधर आप पर बजरंगी-हुड़दंगी-सांप्रदायिक होने का बिल्ला चस्पां कर दिया जाता है। पर उसने बोला, हर मंच और हर मौके पर बोला। भारतीय राजनीति में यह दुर्लभ है। क्योंकि यहाँ मर्यादा और शिष्टाचार के नाम पर कायरता का अभ्यास कराया जाता है। नपुंसकता का पाठ पढ़ाया जाता है।

राजस्थान में एक पुजारी को जलाकर दिन-दहाड़े मार दिया जाता है और शासन-प्रशासन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। वह तत्काल मदद तक को आगे नहीं आता। फिर वही एक व्यक्ति बीड़ा उठाता है और अपने प्रयासों से 30 लाख रुपए जमा करने का लक्ष्य रखता है और दो दिनों में लगभग 23 लाख रुपए जमा भी कर लेता है। उस व्यक्ति के भागीरथ-प्रयासों का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है, उस अकेले की पहल पर समाज के सहयोग से जुटे इस धनराशि के दबाव में सरकार भी शर्म के मारे मदद को आगे आती है और घोषणाओं के दाने डालती है। मत भूलिए कि वह व्यक्ति खड़ा न होता तो सरकार कुंभकर्णी निद्रा में लीन रहती। जागिए, वर्षों बाद बहुसंख्यकों को अपने लिए लड़ने वाला एक नायक मिला है। ऐसा नायक जो आपके विरोधियों के तिकड़मों-चालाकियों को जानता है। जानता है कि आपके विरोधियों के तुणीर में कौन-कौन-से अस्त्र-शस्त्र हैं और उनके काट क्या हैं? याद रखिए, जो समाज अपने लिए लड़ने वालों के साथ खड़ा नहीं होता, उसका न तो वर्तमान होता है, न भविष्य। अपने लिए नहीं तो कम-से-कम अपनी संततियों के लिए कपिल मिश्रा जी के इस आंदोलन का हिस्सा बनिए। समय और परिस्थितियों ने कपिल मिश्रा को अपना नायक चुन लिया है, अब बस आपको उसका हौसला बुलंद करना है। हिंदू अधिकारों की रक्षा के लिए जुड़िए अपने इस नायक के साथ और जोड़िए भी। अन्यथा बहुसंख्यक होना, हिंदू होना इस देश में गुनाह माना जाने लगा था और संभवतः आगे भी माना जाता रहेगा।

प्रणय कुमार

राजस्थान

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