मैं वर्तमान में किसान हूँ।भाई भी किसान है। बाप-दादा भी किसान थे। उनकी हालात को मैंने भी जिया था और आज के हालात को भी ठेठ गाँव में रह कर खेती करके जी रहा हूँ । मेरे गाँव आकर कोई भी महज सात-आठ वर्षो में किसानों और मजदूरों में आई खुशहाली को देख सकता है। चौबीसों घंटे बिजली, सबसिडी के मोटर से सिंचाई, मजबूर और मजदूरों तक के पक्के घर, घर तक पीने का पानी, खाने के लिए निश्चित की गई सीमा में अनाज। ये सब उन्हें सपना जैसा लगता है। हालाँकि ये सब उनका अधिकार था। लेकिन पहले के सरकारों में तो ऐसा नहीं हुआ। केवल मैनेजमेंट से चुनाव नहीं जीते जाते। फेसबुक से हटकर गाँव में रहकर तबके और वर्तमान के अंतर को वास्तव में समझा जा सकता है। बाबजूद इसके बहुत कुछ करना बाकी है। रही एमएसपी की बात तो 79% प्रतिशत पंजाब हरियाणा के किसान इसका उपभोग करते हैं बाकी राज्य के किसान 6%। फिर भी आंदोलन पर वही हैं। कानून के किसी भी बिंदु पर सरकार बात करने को जब राजी है तो ये वापस लेने का हठयोग क्यों ?

बात साफ है कि ये तमाम वामपंथियों और खार खाए मोदी विरोधियों की सरकार को नीचा दिखाने की अवसरवादिता है। ऐसे लोगों , संगठनों, और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने आंदोलन को हाईजेक कर लिया है। उन्हें भला किसानों से क्या लेना! अरे सहब! इन हरियाणा-पंजाब के इन आंदोलनकारी चंद ” साहब किसानों ” के अलावा और किसी राज्य में किसान हैं या नहीं? केवल इन्हीं दो राज्यों के किसान का मतलब देश का किसान है। अपने-अपने मतलब साधने के लिए विरोध करनेवाले ये आंदोलनकारी किसान समस्त किसानों के हितों को बहुत पीछे छोड़ आए हैं। देश के अधिसंख्य किसान बारीकी से देख रहे हैं और समझ भी रहे हैं- किसानों के बहाने चलाई जा रही इस अवसरवादी और एजेंडा वाली राजनीति को।


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हालाँकि ये सब उनका अधिकार था। लेकिन पहले के सरकारों में तो ऐसा नहीं हुआ। केवल मैनेजमेंट से चुनाव नहीं जीते जाते। फेसबुक से हटकर गाँव में रहकर तबके और वर्तमान के अंतर को वास्तव में समझा जा सकता है। बाबजूद इसके बहुत कुछ करना बाकी है।

रही एमएसपी की बात तो 79% प्रतिशत पंजाब-हरियाणा के किसान इसका उपभोग करते हैं बाकी राज्य के किसान 6%। फिर भी आंदोलन पर वही हैं। कानून के किसी भी बिंदु पर सरकार बात करने को जब राजी है तो ये वापस लेने का हठयोग क्यों ?
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नोट:- तस्वीर खेत की है। विद्यार्थी-जीवन में ही ट्रेन-दुर्घटना में अपना दोनों पाँव गंवाने के बाद कृत्रिम पैरों के सहारे ही इन्होंने जीवन की रपटीली, खुरदुरी, टेढ़ी-मेढ़ी, ऊबड़-खाबड़ राहें तय की हैं। बल्कि यों कहिए कि ज़िंदगी की जंग के बड़े-बड़े मोर्चे फ़तेह किए हैं। वैसे भी भूमिपुत्रों की ज़िंदगी की राहें सुगम-समतल कब होती हैं! इसलिए मेहनत-मशक्कत के मायने कृपया हमें न सिखाएं। चाचाजी को तो बिलकुल नहीं! ये जानते हैं कि उसकी तासीर कैसी होती है और उसके स्वाद कैसे होते हैं! जानते हैं कि पसीना बहाना क्या होता है और बंजर धरती तक का सीना चीरकर सोना उगाना क्या होता है!

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