गुरमेहर कौर याद हैं ? नाम से नहीं याद हो भले ही , पर नीचे की तस्वीर से याद आ जायेगा :

कुछ सालों पहले , गुरमेहर तब चर्चा में आयी थीं , जब उन्होंने कुछ प्लेकार्ड के साथ अपनी तस्वीरें और वीडियो साझा किये थे , जिनमें लिखा था : युद्ध ने उनके पिताजी को मारा ( पढ़ें: शहीद किया ) , पाकिस्तान ने नहीं । गुरमेहर के पिताजी राष्ट्रीय रायफल्स का हिस्सा थे और अपने जम्मू कश्मीर मुख्यालय पर १९९९ में हुए आतंकी हमले में मारे गए थे। ये युद्ध तो वैसे भी नहीं था , क्यूंकि आतंकी अगर युद्ध करते तो मुझे पूरा भरोसा है गुरमेहर के पिताजी और उनकी टीम करारा जवाब देती और संभवतः वे जीवित भी होते। ये भी सबको पता है की पाकिस्तान ही कश्मीर के आतंक का पोषक है।

पर प्लेकार्ड में गुरमेहर ने कहा की युद्ध ने उनके पिताजी को मारा , पाकिस्तान ने नहीं। एक शहीद की बेटी का पूरा सम्मान करते हुए , उनकी इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता। वैसे वे अकेली नहीं हैं। हमारे एजुकेशन सिस्टम में ऐसे कई तत्व घुसे हुए हैं जो हमारे छात्रों के दिमाग को भ्रमित करते रहते हैं।

ऐसा ही कुछ अक्सर भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के लिए कहा जाता है। उन्हें आतंकवदी बता दिया जाता है और विरोध करने पर एक बहुत ही चलता जुमला बताया जाता है : किसी के लिए जो आतंकवादी होता है , वो किसी और के लिए क्रांतिकारी होता है।

दरसल ये एक वामपंथी प्रोपगैंडा है अपनी नक्सलवादी विचारधाराओं को जायज़ ठहराने का। इसीलिए वामपंथी अक्सर भगत सिंह को भी वामपंथी बता देते हैं , जिसके लिए भगत सिंह का अपने अंतिम दिनों में नास्तिक हो जाना , उनका मार्क्स और लेनिन को पढ़ना : मुख्य कारण बताये जाते हैं। मार्क्स-लेनिन या किसी और को पढ़ना , ज़रूरी नहीं उनकी विचार धाराओं को मान लेना ही हो। और नास्तिक होना भी वामपंथ की निशानी नहीं है। भगत सिंह किसानों और मज़दूरों की आवाज़ उठाते थे पर उनकी आज़ादी का मॉडल अमेरिका की आज़ादी का था। उनके संगठन ने “अमेरिका को आज़ादी कैसे मिली” नामक किताब छापी थी , जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। अमेरिका की आज़ादी वामपंथ के एकदम उलट थी। इसलिए अव्वल तो भगत सिंह को वामपंथी माना नहीं जा सकता।

दूसरा , उनकी सशस्त्र क्रांति , आतंकवाद से ऐसे भी अलग थी कि जब उन्होंने असेम्बली में बम फेंका तो , पहले तो उन्होंने उसे उस जगह फेंका जहाँ लोग ना बैठे हों , दूसरा उन्होंने अपनी गिरफ्तारी दी जबकि उनके पास भाग निकलने का पूरा अवसर था। इसके उलट जब २००१ में जब हमारी संसद पर हमला हुआ , तब हमलावर खुद को भी खत्म करने के उद्देश्य से आये थे। सिवाय आतंक के उनका सन्देश कुछ और नहीं था।

क्रांति का मकसद पूरे समाज की भलाई होता है , वो जब मानवाधिकारों की बात करती है जो देश-धर्म-जाति की सीमाओं से परे होता है। आतंक को आप हमेशा किसी न किसी सीमाओं से बंधा पाएंगे। और वामपंथ अक्सर ऐसे आतंकवाद को क्रांति के समकक्ष लाकर खड़ा कर देता है। इसीलिए संसद पर हमला करने वाले अफ़ज़ल के समर्थन में शर्मिंदा होने के नारे लग जाते हैं , भारत के टुकड़े होने की कामना की जाती है , और इस सबको सही साबित करने के लिए भगत सिंह का सहारा ले लिया जाता है की वो एक क्रांतिकारी भी थे और वामपंथी भी। देश का विरोध , सरकार का विरोध बताकर जस्टिफाई कर दिया जाता है। जबकि असलियत इसके उलट है। भगत के साथियों ने जब काकोरी में ट्रेन लूटी तो उन्होंने किसी भी आम नागरिक को नुक्सान नहीं पहुंचाया। जबकि आतंकी अंधाधुंध गोलियां चलाते ही दिखते हैं। दोनों को किसी तरह एक नहीं माना जा सकता।

एक और उदहारण है , १९०५ के बंग-भंग के बाद , भारत में हिन्दू-मुस्लिम मनमुटाव की शुरुआत हो चुकी थी। जब भगत और उनके साथियों ने HSRA बनाई , तो उनका एक नियम ये भी था कि जो मांस पकेगा उसमें झटका भी होगा और हलाल भी और वो एक साथ पकेगा। क्या ये समाधान आज दिया जा सकता है ?

भगत सिंह की कोर्ट में पेशी पर दिया गया एक एक बयान , जान जागरण के लिए था। अंग्रेजी हुकूमत का विरोध शामिल था उसमें। दुनिया भर की विभिन्न संधियों के मद्देनज़र उनको फांसी नहीं दी जा सकती थी , फिर भी दी गयी। उनके ट्रायल में लोगों को जाने से रोका गया , जेल में उनके साथ बहुत बुरा बर्ताव हुआ। इसके उलट आज़ाद भारत में आतंकियों को बिरयानी खिलाई जाती है। रात में ढाई बजे तक अदालत बैठती है। कितने आतंकियों का बयान आपने पूरी मानवता की भलाई के लिए पाया है ? कितने आतंकी जेलबंदियों के अधिकारों को लेकर भूख हड़ताल करते दिखे हैं ?

इस पर भी एक तबका भारत में हिंसा फ़ैलाने पर आमादा रहता है और इसको भगत सिंह से जस्टिफाई करने की कोशिश भी करता है। जो असलियत में भगत सिंह की अवमानना है। इस तरह के एलिमेंट जितनी जल्दी हमारी शिक्षा प्रणाली से दूर हों , उतना हितकर रहेगा। साथ ही किसी और गुरमेहर को ये समझने में भी सहूलियत होगी कि सैनिक की शहादत का कारण युद्ध नहीं होता बल्कि आक्रमण और उसके करने वाले होते हैं।

मुझे कभी कभी ये भी लगता है ये अंतर शायद महात्मा गाँधी भी समझ नहीं पाए थे इसलिए वे अक्सर खुद को और भगत सिंह को, दो छोर मान लेते थे। जबकि असलियत इसके उलट थी। पता नहीं क्यों पूरी दुनिया में युद्ध लड़ने वाले अंग्रेज़ों का तो वो समर्थन करते थे पर खुद के देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले भगत-सुभाष जैसे लोगों से दूरी बना ली थी ।

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