लोकतंत्र में अहंकार एवं हठधर्मिता के लिए कोई स्थान नहीं होता, होना भी नहीं चाहिए। जड़ता एवं टकराव लोकतंत्र की प्रकृति-प्रवृत्ति नहीं। संवाद से सहमति और सहमति से समाधान की दिशा में सतत सक्रिय एवं सचेष्ट रहना ही लोकतंत्र की मूल भावना होती है। गुरुपर्व के पवित्र दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश में तीनों कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा की और बड़ी उदारता दिखाते हुए इस बात के लिए देशवासियों से क्षमा भी माँगी कि वे कृषि-क़ानूनों की उपयोगिता को समझा पाने में विफल रहे। उन्होंने छोटे किसानों के कल्याण एवं एमएसपी आदि के लिए भी भविष्य में नीतियों-निर्णयों के स्तर पर ईमानदार एवं प्रतिबद्ध रहने का किसानों को आश्वासन दिया है। सरकार और प्रधानमंत्री का यह कदम स्वागत योग्य है कि उन्होंने कृषि-क़ानूनों को अहं का मुद्दा नहीं बनाया। इस फ़ैसले को किसी पक्ष की हार-जीत के रूप में देखा जाना भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया एवं परंपराओं के विरुद्ध होगा। जनता के हितों एवं सरोकारों के प्रति सजग, सतर्क एवं संवेदनशील सरकार उनकी माँगों के प्रति लंबे समय तक उदासीन नहीं रह सकती। बड़े  हितों को साधने के लिए कभी-कभी दो क़दम पीछे हटना भी व्यावहारिक नीति मानी जाती है। वह बड़ा हित राष्ट्रीय एकता-अखंडता एवं सामाजिक सौहार्द्र को हर हाल में बनाए रखना है। कृषि-क़ानूनों की आड़ में जिस प्रकार देश-विरोधी ताक़तें राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को चोट पहुँचाने की कोशिशें कर रही थीं, देश के बाहर से समर्थन और धन जुटाए जा रहे थे, सामाजिक ताने-बाने को तहस-नहस किया जा रहा था, ऐसे में इसे वापस लेना ही सरकार के पास एकमात्र विकल्प रह गया था। केवल इंटेलीजेंस के सूत्र एवं पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ही नहीं, अपितु टूल-किट प्रकरण, खालिस्तानियों की सक्रियता एवं पड़ोसी मुल्क़ चीन-पाकिस्तान समेत कुछ अन्य देशों के नेताओं एवं प्रसिद्ध हस्तियों की प्रतिक्रियाएँ पर्दे के पीछे की साज़िशों की ओर पुष्ट एवं स्पष्ट संकेत दे रही थीं। सरकार के इस निर्णय ने खालिस्तानियों समेत सभी देश-विरोधी ताक़तों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। वैसे भी ये क़ानून सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन थे, सरकार ने भी इसे अगले दो वर्षों के लिए स्थगित कर रखा था, वह किसानों से बातचीत कर इसमें संशोधन करने पर भी लचीला रुख़ अपनाए हुए थी। यानी ये क़ानून वैधानिक तौर पर भी सक्रिय एवं प्रभावी नहीं थे। इसलिए सर्वसम्मति बनने तक इसे वापस ले लेना या किसानों, राज्य-सरकारों एवं कृषि-विशेषज्ञों की सहायता से इसे और प्रभावी, पारदर्शी एवं परिणामकारी बनाना सूझ-बूझ एवं समझदारी भरा फ़ैसला ही अधिक कहा जाएगा, सरकार या पक्ष-विपक्ष की हार-जीत कम।

यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार ने लगातार न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की है, लाभकारी मूल्यों पर किसानों से उनके उत्पादों की ख़रीद बढ़ाई है, बल्कि दलहन और तिलहन उत्पादों पर तो लगभग दुगुनी मूल्य वृद्धि की गई है। सरकार ने अपने नीति-निर्णय-नीयत में पहले भी किसानों के हितों एवं सरोकारों को प्राथमिकता दी है और आगे भी सर्वोच्च प्राथमिकता देने का आश्वासन दिया है। उसके इस फ़ैसले और रुख़ के बाद विपक्षी दलों एवं आंदोलनरत किसान-नेताओं एवं संगठनों को भी समझदारी एवं उदारता का परिचय देते हुए राजनीति बंद करनी चाहिए और अपना-अपना आंदोलन वापस लेना चाहिए। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि इस देश ने अराजकता के व्याकरण को कभी नहीं सीखा और हिंसा के पाठों को कभी नहीं दुहराया, सड़कों और सार्वजनिक स्थलों को बंधक बनाने, राजधानी को अपहृत करने की प्रवृत्ति-प्रकृति अंततः लोकतंत्र को अराजक-तंत्र में तब्दील करती है। ऐसे फ़ैसले को सरकार की हार या कमज़ोरी मानकर और अधिक उच्छृंखल-अराजक होना, नए-नए माँगों के साथ सामने आना, हर वैध एवं लोकतांत्रिक माँग को कमज़ोर करेगा। सरकार की सरोकारधर्मिता एवं संवेदनशीलता को कुंद करेगा। तंत्र तक लोक की आवाज़ को पहुँचने से रोकेगा। पूरी दुनिया में देश की छवि को धूमिल करेगा। इसलिए राजधानी की सड़कों पर महीनों से जुटे किसानों को अविलंब अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान करना चाहिए। उन्हें अन्यान्य माँगों को लेकर सरकार पर नित-नवीन दवाब बनाने की प्रवृत्ति और रणनीति त्यागनी चाहिए। उन्हें किसान-आंदोलन की आड़ में सक्रिय शरारती एवं देश-विरोधी तत्त्वों को चिह्नित कर उनकी निंदा एवं आलोचना करनी चाहिए, उनको स्वयं से दूर रख अलग-थलग करना चाहिए। उन्हें 26 जनवरी 2020 को लाल-किले पर हल्ला-हंगामा करने वालों की अब खुलकर भर्त्सना करनी चाहिए। तब नहीं तो अब उन्हें किसान मानने से इंकार करना चाहिए। इससे उनकी साख और विश्वसनीयता बहाल होगी। इससे ‘किसान’ की पहचान और पवित्रता पुनर्प्रतिष्ठित होगी। यह निर्विवाद सत्य है कि असली अन्नदाता राष्ट्रीय ध्वज का अपमान कदापि नहीं कर सकते। वे कहें न कहें, पर किसानों के वेश में छिपे कतिपय अराजक तत्त्वों को देश ख़ूब पहचानता है। यदि सरकार ने तीनों कृषि-कानूनों के लिए देशवासियों से क्षमा माँगने की बड़ी उदारता दिखाई है तो आंदोलन का नेतृत्व कर रहे किसान-संगठनों एवं नेताओं को भी बड़ा मन रखना होगा, बड़प्पन दिखानी होगी, आगे आकर कुछ जिम्मेदारी लेनी होगी। और यह भारत की महान लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप एवं अनुकूल होगा। लोकतंत्र में वही बड़ा होता है जो अपनी ग़लती मानने में संकोच न करे, हठधर्मिता छोड़े, जड़ता को त्याग आगे बढ़े। किसान नेताओं को भी यह मानना होगा कि उनके आंदोलन की भी दिशा कई बार भटकी, कई बार उनके आंदोलनों ने देशवासियों के समक्ष संकट पैदा किए, मुख्यतया दिल्लीवासियों की दैनिक जीवनचर्या उनके कारण बाधित हुई, उन इलाकों में रोज़गार-व्यापार प्रभावित हुए। विपक्षी दलों-नेताओं को भी आंदोलन की आग में घी डालने की बजाय यह सोचना चाहिए कि कई राज्यों में उनकी भी सरकारें हैं, आगे भी उनकी सरकारें आ सकती हैं, काँग्रेस जैसे दल तो केंद्र में भी लंबे समय तक सत्ता में रहे, क्या उन्होंने किसानों की स्थिति में सुधार करने तथा उनकी आय बढ़ाने की दिशा में ठोस नीतियाँ एवं योजनाएँ बनाईं? यदि बनाईं होतीं तो किसानों की दशा यथावत क्यों है? किसान आत्महत्या क्यों कर रहे? बात निकलेगी तो फिर दूर तक जाएगी, जो-जो सवाल वे वर्तमान की सरकार से पूछ रहे, वही-वही सवाल उनसे भी पूछे जाएँगें। दलों और नेताओं की स्मरणशक्ति भले कमज़ोर हो, पर जनता सभी के किए-कराए का लेखा-जोखा रखती है! जनता दूध का दूध और पानी का पानी करना भली प्रकार जानती है। वह जानती है कि कौन उसके असली हितैषी हैं और कौन नक़ली! लोकतंत्र में जनता को मूढ़ समझने की मूर्खता सत्ता-पक्ष हो या विपक्ष- सब पर समान रूप से भारी पड़ती है।

प्रणय कुमार
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