कभी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हिंदुत्व एक जीवन शैली है और यह एक संप्रदाय नहीं है। उसी न्याय व्यवस्था में एक उच्च न्यायालय ने लिव इन रिलेशनशिप को वैयक्तिक स्वतंत्रता मानकर देखने की अपील की है न कि नैतिकता के चश्मे से।
बहुत ही अजीब मानसिकता है कि अगर मुफ्तिया निजी चकले चलें तो कोई समस्या है परंतु भारत का संविधान यह मानने के लिए तैयार नहीं कि भारत में वेश्याएं भी हैं। भारत के वैधानिक रोजगारों वेश्यावृत्ति को जगह नहीं मिली है परंतु उसी कानून में लिव इन रिलेशन को कानूनी मान लिया गया है। क्या लिव इन रिलेशन को न्यायोचित घोषित करवाने के पैरोकार ये बताएंगे कि अगर उस लिव इन रिलेशनशिप के दौरान शिशु पैदा हो जाए तो उसके मां बाप कौन होंगे और उसका भरण पोषण कौन करेगा। वैसे बुद्धिजीवियों की जानकारी के लिए बता दिया जाए कि अभी भी सीबीएसई की परीक्षा का फॉर्म भरते समय पिता या माता में से किसी एक का नाम भरना अनिवार्य है। दो लोगों की इस मनोरंजक कानूनी क्रियाकलाप में बच्चा तो थर्ड पर्सन सिंगुलर नंबर बन कर रह जाएगा। इस पर माननीय न्यायालय का स्वतंत्र चिंतन नहीं है।
दूसरी तरफ न्यायालय यह भी कहता है कि बेटा या बेटी अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल करने के लिए बाध्य हैं। परंतु लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले युगल के माता पिता के लिए अगर बेटा है तो बहू नहीं और बेटी है तो बेटा नहीं। फिर इस निजी स्वतंत्रता के दायरे में क्या माता पिता के अधिकारों की बलि नहीं चढ़ेगी।
आजकल समाज में कितने बुद्धिजीवी उपलब्ध हैं जो अपने बेटे या बेटी के लिव इन पार्टनर का तारुफ समाज में गर्व के साथ करवा सकते हैं।
तो आखिर न्याय व्यवस्था के सनातन संस्कृति के लिए उच्चतम भाव रखने के बाद भी इस प्रकार के अनैतिक क्रिया कलाप को कानूनी जामा पहनाने के लिए कौन बाध्य करता है।
तो इसका कारण है हम भारतीय सनातनियों की आत्ममुग्धता और हद से ज्यादा अतीत प्रेम।
हम संस्कारों के पैरोकार हैं परंतु चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, अखबार और टेलीविजन के साथ। कोर्ट रूम में क्या चल रहा है और अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कितनी न्यायिक तैयारी की जरूरत है यह हम मूर्ख सनातनी नहीं जानते और इसीलिए जब कोर्ट में हिंदुत्व के वृहत्तर प्रतिमानों के खिलाफ कोई मुकदमा चलता है तो हिंदुत्व के विरोधी और उनके वकील तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर सनातन के तथ्यों को हीं सनातन की मान्यताओं के खिलाफ हीं प्रयोग में ले आते हैं और हमारी भारतीय परंपरा का एक और आयाम बिखर जाता है और हम भारतीय एक नए अवतार की यूटोपिया में जीते रहते हैं।

देह-व्यापार मानव सभ्यता का सबसे पुराना व्यवसाय है जिसकी निगरानी के लिए चाणक्य के अनुसार सत्ता को एक अधिकारी (गणिकाध्यक्ष) नियुक्त करना चाहिए जो ग्राहकों के अधिकार की रक्षा भी करें और वेश्याओं के भी, परंतु आधुनिक समाज के लिव इन रिलेशन के समर्थक बुद्धिजीवी लोग अभी भी वेश्यावृत्ति को व्यवसाय मानने के लिए तैयार नहीं है और न्यायालय को भी यह पता नहीं है कि देश में वेश्या होती है। और आपको तब और भी आश्चर्य होगा जब आप सुनेंगे यह किसी गैर सरकारी संगठन में रेड लाइट एरिया में जाकर सेक्स वर्करों के स्वास्थ्य की जांच की और उन्हें कंडोम बाँटे।
जिन वेश्याओं के गणना एक विदेशी संगठन आसानी से कर के लेता है उसी गणना को भारतीय संसद , भारतीय संविधान और भारतीय न्याय व्यवस्था आज तक क्यों नहीं कर पाई है?
शायद इसीलिए भारत के खाते में शून्य के आविष्कार का श्रेय आता है।

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