जब भी जिक्र आता है अमृता सिंह, रीना दत्त ,किरण राव,  मलाइका अरोड़ा आदि हिंदू कन्याओं का जिन्होंने मुसलमान पति चुना तो आपको इसके साथ ही इनके तलाक की घटना भी साथ साथ मिल जाएगी।   करीना कपूर अब तक एक पतिव्रत निभा रही है परंतु जो दिल अमृता को करीने से किनारा लगा सकता है वह करीना को क्या छोड़ेगा। इसलिए आलेख को पढ़ने वाले कई पाठक लव जिहाद का जिक्र बेवजह कर बैठेंगे परंतु मैं मानता हूं कि इन अंतर्धार्मिक विवाहों का तलाकों में परिवर्तन की वजह भले ही आपको लव जिहाद या गजवा ए हिंद दिखाई दे पर मुझे तो मेरे इस निबंध का शीर्षक ही इस बुद्धिजीवी पतन का मूल दिखता है जो संयोग से आमिर खान की फिल्म दंगल से लिया गया है और यह भी संयोग है कि उसमें जिसने आमिर की बेटी का रोल निभाया वह शायद आमिर के साथ उसकी बेटी की मां बन जाए तो आपको कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।अगर कोई इस्लाम समर्थक येन केन प्रकारेण किसी गैर इस्लामी युवती को या युवक को विवाह के माध्यम से अपने धर्म में शामिल करता है तो मुझे इसमें उस इस्लाम समर्थक का कोई दोष दिखाई नहीं देता बल्कि मुझे उस बालिका के पिता की बुद्धिजीवित्व पर तरस आता है। आपको अक्सर पढ़े-लिखे बाप यह कहते मिल जाएंगे कि मैंने बेटी को कभी बेटी नहीं समझा बल्कि उसे हमेशा बेटा माना है। यहां बेटे बेटियों में फर्क नहीं करते या हमने बेटी पर किसी प्रकार की अपनी मर्जी नहीं  थोपी होगी।


इसी   दिखावटी आधुनिकता का समर्थन लड़कियों को बेलगाम  होने और अंततः उनके कटी पतंग में ढलने की वजह बनता है।आपने कई मुस्लिम व्यक्तित्व का  हिंदू कन्याओं से विवाह के किस्से सुने होंगे परंतु उसका उल्टा शायद ही देखने को मिले। शायद ही कोई ऐसा एक   ईसाई पुरुष या हिंदू   वर को मुस्लिम वधू मिली होगी। ले देकर आपकी नजर में ऋतिक रौशन और उसकी पत्नी सुजैन का ही उदाहरण मिलेगा जो लगभग एक प्रकार से तलाकशुदा जिंदगी हीं बिता रहे हैं। शायद आपको ज्ञात हो कि देवानंद से सुरैया की शादी इसीलिए नहीं हो सकी क्योंकि सुरैया की मां किसी गैर मुस्लिम से बेटी की शादी नहीं  करवाना चाहती थी।
परंतु बुद्धिजीवी हिन्दू पिताओं की आधुनिक विचारधारा  ने आज उनकी पुत्रियों को ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है कि उन्हें
” न खुदा ही मिला न विसाले सनम
ना इधर के रहे ना उधर के रहे।”

नारी सृष्टि की सर्वोत्तम कृति है और इसकी रक्षा करना हर सम्प्रदाय का मूल भाव है। आज भी किसी गैर मुस्लिम से किसी मुस्लिम कन्या का विवाह संभव नहीं है भले ही अरब के शेख धर्म ग्रंथों की छाती पर मूंग दल कर भारत कि कमसिन बच्चियों से शादी करके चले जाएं।


“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः” के उद् घोष पर मजाक उड़ाने वाले बुद्धिजीवी पत्रकार जहां सनातन समाज में नारी उत्पीड़न का उदाहरण दिखा करके ऊपर के ध्येय  वाक्य की ऐसी तैसी कर दिया करते हैं उनकी भी यह हिम्मत नहीं होती कि हलाला  या मुस्लिम  स्त्रियों के खतने पर अपनी कलम  चलाएंँ।  इस घटना की दबी जुबान से की आलोचना करने की इनकी हिम्मत नहीं होती। इस्लाम समर्थकों की एकता एक ओर साम्यवादियों के लिए हिंदुत्व के विरुद्ध एक लॉन्च पैड बन जाता है जबकि इस्लाम को किसी भी अन्य दबाव समूह की आलोचना या निन्दा से पूरी तरह बचा लेता है। मुस्लिम युवाओं से हिंदू कन्याओं का प्रेम विवाह धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण बन जाता है और सामाजिक समरसता का प्रतीक बनकर वामपंथियों के मीडिया मैनेजमेंट के कारण  हिंदुत्व की थोड़ी और ऐसी तैसी कर देता है।क्योंकि सारे प्रकरण में मैं  इस्लाम को दोषी नहीं  मानता हूं और न हीं  वामपंथी मीडिया को। आचार्य चाणक्य के अनुसार…”माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।।”मतलब वे माता-पिता बच्चों के शत्रु हैं जिन्होंने बच्चों को उचित पाठ नहीं पढ़ाया।रक्षित धर्म हीं आपकी रक्षा कर सकता है परंतु निन्दित धर्म आप को  और गर्त में गिरा सकता है। और वही हाल उन हिंदू बालाओं का हो रहा है जिनके मुस्लिम पतियों ने बड़ी सदाशयता से उन्हें तलाक दे दिया है। वैसे बुद्धिजीवी तो यह भी कह सकते हैं कि तलाक किसी रिश्ते का अंत नहीं बल्कि उनके बीच एक नए रिश्ते की शुरुआत है।


पर यह सब क्यों लिखा जा रहा है क्योंकि बुद्धिजीवी तो उस ज्ञानी के समान हो गए हैं जिनके पिछवाड़े में जब पेड़ निकल आया तो उन्होंने कहा कि अच्छा है हमेशा सिर पर पेड़ों की  छांव बनी रहेगी।

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