तृणमूल में भगदड़ मची है। उसके विधायक-सांसद थोक के भाव में पार्टी छोड़कर बीजेपी जॉइन कर रहे हैं। पिछले 48 घंटे में लगभग 9 बड़े नेता तृणमूल छोड़ चुके हैं। अतीत अपने को दुहराता है।
2009 से 2011 में ममता के सरकार बनाने से पूर्व पश्चिम बंगाल में यही हुआ था। 2009 में उसके 19 सांसद लोकसभा के लिए चुने गए थे। 2009 से 2011 के बीच में ममता सत्ता की मजबूत एवं ठोस विकल्प बनकर उभरी। कम्युनिस्टों के तमाम विधायक सांसद और कैडर तृणमूल की ओर शिफ्ट हुए। आज वही कहानी भाजपा दुहरा रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में उसके 18 सांसद जीते और 130 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाने में वह कामयाब रही। लोकसभा चुनाव में बीजेपी को तृणमूल के 43.03 प्रतिशत कम 40.03 प्रतिशत मिले। यह अप्रत्याशित नहीं था। बल्कि ममता के कुशासन और मोदी के विकास की राजनीति का परिणाम था।
उसके बाद से ही तृणमूल और ममता हिंसा का सहारा लेकर बीजेपी को रोकने और उसके कार्यकर्ताओं में भय का वातावरण बनाने के प्रयास कर रही है। ताकि डर के मारे बीजेपी के कार्यकर्त्ता अपने-अपने घरों में दुबककर बैठ जाएँ और माहौल एवं हवा बीजेपी के पक्ष में न बने।
लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता। और सनातन जीवन दर्शन में तो हिंसा केवल आत्मरक्षा के लिए ही स्वीकार्य माना गया है। बंगाल में हिंसा का प्रारंभ साठ के दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन से माना जाता है। उस समय शोषितों-वंचितों-गरीबों के न्याय के नाम पर ख़ूब ख़ून बहाया गया। हिंसा और रक्तपात वामपंथ का मूल चरित्र रहा है। वे हिंसा को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहै हैं। 1977 से 2011 के 34 वर्षों के शासनकाल में उसने तमाम निर्दोषों-मासूमों-बेगुनाहों का खून बहाया। एक अनुमान के मुताबिक उस के शासनकाल में 30000 से भी अधिक लोग मारे गए। कहते हैं कि 1977 में सत्तासीन होने के बाद के तीन वर्षों में उसने शरणार्थी बांग्लादेशी हिंदुओं पर इतना ज़ुल्म ढाया कि उसके कैडर को देखते ही उन शरणार्थियों में से कई तो समुद्र में छलाँग लगा देते थे।
वामपंथ ने पूरे सिस्टम का राजनीतिकरण कर दिया था। जितने भी दबंग-बाहुबली थे, वे कम्युनिस्ट शासन में फलते-फूलते रहे। कम्युनिस्टों ने उन्हें अपना नेता या कैडर बनाकर भरपूर इस्तेमाल किया। आम नागरिकों को बिजली-पानी-गैस आदि के कनेक्शन के लिए वामपंथी कैडरों पर निर्भर रहना पड़ता था। राशन कार्ड बनवाना हो, आवास प्रमाण-पत्र बनवाना हो या सरकारी किसी भी योजना का लाभ लेना हो- ये सब बिना वामपंथी कैडर की मदद से संभव ही नहीं था। यहाँ तक कि पुलिस में कंप्लेन लिखवाने के लिए भी इन वामपंथियों की मदद लेनी पड़ती थी। पूरा सिस्टम, सरकारी महकमा और अधिकारी वामपंथियों के कैडर की तरह व्यवहार करते थे। ऐसे में आम लोगों के पास केवल एक ही विकल्प था या तो वे कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर लें या उसका कैडर बन जाएं या फिर संगठित होकर हल्ला-हंगामा करके कम्युनिस्ट सरकार से अपनी बात मनवाएँ। और इन सब का परिणाम यह हुआ कि हिंसा वहाँ के लोगों की आम प्रवृत्ति बन गई। हिंसा उनके लिए कोई ख़बर ना हो कर रोजमर्रा की असम घटना जैसी हो गई। 2011 में ममता के सत्ता में आने के बाद सरकारी योजनाओं एवं धनराशि की मलाई खाते रहने के लिए वे सभी वामपंथी कैडर, स्थानीय नेता, दबंग और बाहुबली धीरे-धीरे तृणमूल में शामिल होते चले गए। सत्ता का चेहरा तो बदला पर चरित्र नहीं बदल पाया और नतीजा यह हुआ कि शासन प्रशासन विकास से कोसों दूर रहा। कोढ़ में खाज का काम ममता के अड़ियल रवैये, जिद्दी स्वभाव, रोहिंग्याओं एवं बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती तादाद, तेजी से बदलती डेमोग्रेफी, अल्पसंख्यकों के भयावह तुष्टिकरण और बहुसंख्यकों की घनघोर उपेक्षा ने किया। ममता को लगा पश्चिम बंगाल में ताक़तवर मुसलमानों और मौलानाओं को साधकर वह सत्ता की रेवड़ियाँ खाती रहेगी।
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद यों तो विकास राजनीति की केंद्रीय धुरी बनी, पर वर्षों से प्रताड़ित-पीड़ित हिंदू मन और आहत हिंदू अस्मिता को भी स्वर मिला। आज पश्चिम बंगाल के हिंदू भी हिंदू होने को अपना अपराध मानने को तैयार नहीं हैं। वे चाहते हैं कि सत्ता उनकी भी खोज-ख़बर करे, उन्हें उनका वाज़िब हक प्रदान किया जाय। उत्पादन और राज्य को मिलने वाले राजस्व में 95 प्रतिशत उनकी भागीदारी हो और सारी सरकारी योजनाएँ अल्पसंख्यकों के संरक्षण-संवर्द्धन की हो, वे निश्चिंत होकर अपने धार्मिक त्योहारों, खुलकर अपने रीति-रिवाज़ों को भी न मना पाएँ, यह स्थिति अब उन्हें और स्वीकार नहीं है। पश्चिम बंगाल की विशेषता है कि वह खंडित जनादेश नहीं देता। वह परिवर्तन का मन बना चुका है और ममता की तिलमिलाहट और बौखलाहट भी यही दर्शाती है। बेग़मों-शहंशाहों की ज़ुल्म-ज्यादतियों से भारत न पहले डरा था, न अब डरेगा।
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