रे मिटटी के मानुस आखिर ये तुझे क्या हुआ ,
ज़रा बता कितने दिनों से मिट्टी को नहीं छुआ
.यकीन जानिये मैं गंभीर होकर पूछ रहा हूँ और खासकर हमारे जैसे उन तमाम दोस्तों से जो अपनी जड़ो से दूर , खानाबदोश बंजारे हो कर , इस पत्थर , सीमेंट की धरती वाले जड़(बंज़र) में कहीं आकर आ बसे , सच बताइये आपको कितने दिन हुए , कितने महीने या शायद बरस भी , मिट्टी को छुए महसूसे , मिट्टी में खेले कूदे और मिट्टी की सौंधी सुगंध को अपने भीतर समेटे हुए ?
चलिए जितनी देर आप सोचते हैं उतनी देर तक कुछ पुरानी बातें हों जाएँ , जैसा कि मैं अक्सर कहता रहा हूँ कि , बचपन से ही बहुत सारे दूसरे बच्चों की तरह हम भी पूरे दिन घर से बाहर ही उधम मचाते थे और हर वो शरारत और खेल में शामिल पाए जाते थे जो उन दिनों खेले जाते थे और ज़ाहिर था कि खूब चोट भी खाते थे , बचपन में ही एक नहीं दो दो बार बायें कोहनी में हुआ फ्रेक्चर भी , खेल खेलते ही हुआ था |मगर मैदान में खेलते हुए जितनी भी बार गिरे , चोटी चोट खाई , छिलन हुई …उसका तुरंत वाला फर्स्ट एड ईलाज और बेहद कारगर था ……धरती की मिट्टी |
कोई बैंडएड कोइ पट्टी कोइ मरहम जब तक आता तब तक तो मिट्टी लगा के मिट्टी के बच्चे फिर मिट्टी में लोट रहे थे | आज के बच्चों के तो कपड़ों पर भी मिट्टी लग जाए तो न सिर्फ बच्चा बल्कि उसके अभिभावक भी एकदम से चिंतित हो जाते हैं , जबकि वैज्ञानिक तथ्य ये कहते हैं कि मिट्टी में कम से कम बयालीस से अधिक तत्व पाए जाते हैं जो मिट्टी के बने इस मनुष्य के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होते हैं |
मेरी छत पर इस समय उतनी ही मिटटी है जितनी एक छोटे से खेत में होती है | एक राज़ की बात और बताऊँ कि ,एक दो नहीं पूरे आठ राज्यों की काली ,लाल ,रेतीली ,कीच ,मिटटी भी अलग अलग मिटटी के गमलों में है और मुझे उनमें पानी देते समय लगता है मानो मैं पानी की पाइप लिए पूरे हिन्दुस्तान में घूम रहा हूँ | गमले भी अधिकांशतः मिटटी के ही हैं और गमलों का माली भी मिट्टी मानुष ही है |
यहाँ देखता हूँ तो पाता हूँ कि शहरों में मानो होड़ सी लगी है ज़मीन को छोड़ कर आसमान की ओर लपकने की , हमारा फैलाव ज़मीन से जुड़ कर नहीं , जमीं से ऊपर उठ कर हो रहा है , गगन चुम्बी अपार्टमेंट अब एक आम बात हो गयी है , यहाँ हम ये भयंकर भूल कर रहे हैं कि जिन पश्चिमी देशों से ये ऊंची ऊंची इमारतों में निवास बनाने की परिकल्पना आयातित की गयी है वे इस देश और इस देश की धरती से सर्वथा भिन्न हैं |
इन्सान बार बार ये भूल जाता है कि बेशक जितना ऊपर उड़ ले , आखिर उसे आना इसी मिट्टी में ही और उसे क्या उसके पहले के सभी कुछ को सदियों और युगों या शायद उससे भी पहले से भी यही और सिर्फ यही होता आया है |आज बरबस ही मुझे ये किससे याद आ गए | वैसे मेरा बहुत सारा समय मिट्टी के साथ ही गुजरता है , मैं मिट्टी मिट्टी होता रहता हूँ और पूरी तरह मिट्टी ही हो जाना चाहता हूँ ……
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