कुल शब्द- 1,289

यदि

                                                                -बलबीर पुंज

हिंदी फिल्म जगत के प्रसिद्ध गीतकार मनोज मुंतशिर और फिल्मकार कबीर खान सार्वजनिक विमर्श में है। जहां कबीर ने मुगलों को भारत का वास्तविक राष्ट्रनिर्माता बताया है, तो मनोज ने उन्हें लुटेरा, आततायी, मंदिर-विध्वंसक और हिंदुओं-सिखों पर अत्याचार करने वाला। जैसे ही लगभग एक ही समय कबीर और मनोज के विचार सामने आए, तब स्वाभाविक रूप से सोशल मीडिया पर हजारों लोग पक्ष-विपक्ष में उतर आए। मैं व्यक्तिगत रूप से इन दोनों हस्तियों से परिचित नहीं हूं। किंतु कबीर का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन और मनोज का मुखर विरोध करने वाले समूह और उनकी मानसिकता से अवगत हूं।

यह कोई संयोग नहीं कि इन लोगों में अधिकांश वही चेहरे है, जो श्रीराम को काल्पनिक बता चुके है- अयोध्या मामले में रामलला के पक्ष में निर्णय आने पर सर्वोच्च न्यायालय को कटघरे में खड़ा कर चुके है- धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण सहित नागरिक संशोधन अधिनियम को मुस्लिम विरोधी बता कर चुके है और बीते सात वर्षों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वैचारिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत घृणा के कारण शेष विश्व में भारत की शाश्वत सहिष्णु छवि को कलंकित कर रहे है।

मनोज मुंतशिर का “हम किसके वशंज” नामक वीडियो वायरल हुआ। उसमें वे कहते हैं, “शासक के रूप में मुगलों का कार्यकाल इतिहास में सबसे अच्छा कैसे होगा, जब हजारों हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित नहीं करने के लिए मार दिया गया था। अगर उनका कार्यकाल सबसे अच्छा था, तो रामराज्य क्या था? हमारे घर तक आने वाली सड़कों के नाम भी किसी अकबर, हुमायूं, जहांगीर जैसे ग्लोरिफाइड डकैत के नाम पर रख दिए गए। हम इस हद तक ब्रेनवाश्ड हो गए कि अचानक हमारे प्री-प्राइमरी टेक्स्ट बुक में ग से गणेश हटाकर ग से गधा लिख दिया गया और हमारे माथे पर बल तक नहीं पड़ा…”

इससे पहले फिल्म “बजरंगी भाईजान”, “न्यूयॉर्क” और “एक था टाइगर” जैसी नामी फिल्मों का निर्देशन करने वाले कबीर खान ने एक साक्षात्कार में कहा था, “मैं मुगलों और दूसरे मुस्लिम शासकों को गलत तरीके से दिखाने पर परेशान हो जाता हूं। यदि आप फिल्मों में मुगलों को गलत दिखाना भी चाहते हैं, तो इसके लिए पहले अध्ययन कीजिए। उन्हें हत्यारा और मतांतरण करने वाला बताने से पहले ऐतिहासिक सबूत दिखाइए। मुझे लगता है कि वे असली राष्ट्र-निर्माता थे।” कबीर अकेले नहीं है, उनसे पहले अभिनेता और फिल्मी-दुनिया के चहेते बच्चों में सूचीबद्ध- तैमूर-जहांगीर के पिता सैफ अली खान भी इसी प्रकार की भावना व्यक्त कर चुके है।

कबीर के विचारों पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। वे भारतीय उपमहाद्वीप (भारत-पकिस्तान सहित) में मुस्लिम समाज के उस बड़े वर्ग का ही हिस्सा है, जो गज़नी, गौरी, बाबर जैसे विदेशी इस्लामी आक्रांताओं और औरंगजेब-टीपू सुल्तान जैसे क्रूर मुस्लिम शासकों को अपना नायक-प्रेरणास्रोत मानते है। सच तो यह है कि पिछले 1400 वर्षों में विश्व का जो भूखंड इस्लाम के संपर्क में आया- उस क्षेत्र की मूल संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली को कालांतर में हिंसा के बल पर या तो बदल दिया गया या फिर उसका प्रयास आज भी हो रहा है।

इस्लाम के आगमन से पहले सनातन भारत में यहां की मूल बहुलतावादी संस्कृति के अनुरूप सभी लोगों (बाहर से आए यहूदी और सीरियाई शरणार्थी सहित) को अपनी आस्था अनुरूप पूजा करने की स्वतंत्रता और किसी विचारभेद पर युद्ध के बजाय सार्थक वाद-विवाद की परंपरा थी। किंतु आठवीं शताब्दी से इस्लामी आक्रांताओं-शासकों द्वारा भारत पर हमले के बाद स्थिति बदलना शुरू हो गई। मजहब के नाम पर पराजित हिंदू-बौद्ध-जैन-सिखों की हत्या, महिलाओं का यौन-शोषण, मंदिरों का विध्वंस, उनपर ज़जिया थोपा गया और तलवार के बल पर गैर-मुस्लिमों का मतांतरण हुआ। इसी रूग्ण चिंतन ने 12वीं-13वीं शताब्दी तक हिंदू-बौद्ध बहुल रहे अफगानिस्तान और कश्मीर का इस्लामीकरण कर दिया, तो आधुनिक दौर में इस्लामी पाकिस्तान-बांग्लादेश का जन्म हो गया।

भारत में इस्लामी त्रासदी के साक्ष्य भारी मात्रा में उपलब्ध है। जब 16वीं शताब्दी में विदेशी इस्लामी आक्रांता बाबर भारत आया, जहां उसके निर्देश पर उसकी मजहबी सेना भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति को जख्मी कर रही थी- तब उस विभिषका को सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देवजी ने अपने शब्दों में कुछ इस तरह किया था:

खुरासान खसमाना कीआ हिंदुस्तान डराइया।।

आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ।।

एती मार पई करलाणे त्है की दरदु न आइया।।

इन पंक्तियों में नानकजी केवल पंजाब या फिर सिखों का उल्लेख नहीं कर रहे, अपितु उन्होंने इसमें हिंदुस्तान पर मुगलों के अत्याचार की बात कही हैं। ऐसा ही एक साक्ष्य मैसूर के क्रूर इस्लामी शासक टीपू सुल्तान की वह तलवार भी है, जिसमें लिखा था- “अविश्वासियों (काफिर) के विनाश के लिए मेरी विजयी तलवार बिजली की तरह चमक रही है।” खंडित भारत में आज जितने पुराने इस्लामी ढांचे उपस्थित है, उनमें से अधिकांश में खंडित मंदिरों-मूर्तियों के अवशेष दिख जाते है। काशी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद का पिछला हिस्सा और दिल्ली स्थित कुतुब मीनार का परिसर- इसका प्रत्यक्ष उदारहरण है।

भारत में इस्लामी शासन को आदर्श और उन्हें राष्ट्र-निर्माता बताने हेतु वाम-जिहादी गठजोड़ अक्सर कुतर्क करके भ्रम फैलाते है कि इस्लामी आक्रांताओं और स्थानीय हिंदू राजाओं के बीच संघर्ष संस्कृति के लिए अपितु अहंकार की लड़ाई थी। कुतर्कों की यह पराकाष्ठा तब पार हो जाती है, जब कहा जाता है- यदि इस्लामी शासन क्रूर था और स्थानीय हिंदू-मुस्लिमों में वैमनस्य का भाव था, तो मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं को और हिंदू राजा-महाराजाओं ने मुस्लिमों को नौकरी पर क्यों रखा? इनके ऐसे ही उदाहरणों में से एक यह है कि हिंदू शूरवीर महाराजा महाराणा प्रताप की ओर से मुस्लिम हकीम खां सूरी ने भी मुगलों के खिलाफ युद्ध लड़ा था।

अब यदि इन कुतर्कों को आधार भी बनाए, तो इनके लिए ब्रितानी भी कभी विदेशी आततायी नहीं रहे होंगे- क्योंकि अंग्रेजी शासन में भी अधिकतर नौकरी करने वाले, स्थानीय लोगों का उत्पीड़न करने वाले, उन्हें जेल में ठूसने वाले और यहां तक कि जलियांवाला बाग में जनरल डायर के निर्देश पर निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियों की बौछार करने वाले गोरखा सैनिक भी भारतीय ही थे, जिनका जन्म यही हुआ था।

यह सच है कि अंग्रेजों ने स्वयं के शासन को अविरल बनाने हेतु कई भव्य भवन (संसद आदि) बनाए, नगरों को सड़कों से जोड़ा, रेल चलाकर यातायात को सुगम आदि बनाया। यही नहीं, सिस्टर निवेदिता, एनी बेसंत, चार्ल्स फ्रीर एंड्रूज आदि कई यूरोपीय नागरिकों ने भारतीय स्वतंत्रता का समर्थन किया। यहां तक गांधीजी, पं.नेहरू, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस आदि ब्रितानियों द्वारा स्थापित स्कूल-कॉलेजों से ही पढ़े- तो क्या इस आधार पर ब्रितानियों को भारत का राष्ट्र-निर्माता कहा जा सकता है?- नहीं।

कबीर खान की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी उनके विचारों को स्वतः व्याख्यात्मक बनाती है। कबीर के पिता राशिदुद्दीन खान विशुद्ध वामपंथी प्रोफेसर थे, जिन्हें 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राज्यसभा सांसद के रूप में मनोनित भी किया था। वे दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.) के संस्थापक सदस्य प्रोफेसरों में से भी एक थे। यह शिक्षण भारत विरोधी, सनातन संस्कृति और बहुलतावादी परंपराओं से घृणा करने वाली विदेशी वामपंथी विचारधारा का आज भी गढ़ है।

सच तो यह है कि दशकों से बॉलीवुड भी तथाकथित उदारवाद-प्रगतिशीलता के नाम पर वाम-जिहादी कुनबे का प्रयोगशाला बना हुआ है, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चयनात्मक रूप से भारतीय सनातन संस्कृति, उसके प्रतीकों को अपमानित करने और उसका उपहास करने की परंपरा चल रही है। स्वयं कबीर खान ने अपनी फिल्म “बजरंगी भाईजान” में पाकिस्तानी जनता, मीडिया, मौलवी और पुलिस को मानवता की प्रतिमूर्ति, तो शाखा का संचालन करने वाले दिवाकर चतुर्वेदी (अतुल श्रीवास्तव) के श्रीहनुमान भक्त बेटे बजरंगी (सलमान खान) और रसिका (करीना कपूर) के पिता दयानंद (शरत सक्सेना) को मुस्लिम विरोधी हिंदू के रूप में दिखाया गया है। यही नहीं, दुबई संचालित अंडरवर्ल्ड से बॉलीवुड का नाता किसी से छिपा नहीं है।

वास्तव में, बॉलीवुड में उस जहरीले चिंतन से पोषण मिल रहा है, जिसने भारत का रक्तरंजित विभाजन किया, कश्मीर को शत-प्रतिशत हिंदू-विहीन कर दिया और अब खंडित भारत को कई टुकड़ों में बांटना चाहता है। ऐसे लोगों को चिन्हित करने की आवश्यकता है। क्या ऐसा वर्तमान समय में संभव है?

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

संपर्क:- punjbalbir@gmail.com

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.