अंतर्राष्ट्रिय सुरक्षा परिषद के द्वारा तालिबान को दी गई प्रोबेशनरी मान्यता आगे चलकर आइसिस को किसी भी भूखंड पर अपना अधिकार करने की स्वीकृति का कारण हो सकता है । हमारे यहां कहावत है कि बाबाजी के मरने का डर नहीं है , डर तो यह है कि यमराज ने रास्ता देख लिया है। जहां तक भारत का अस्तित्व है सुरक्षा परिषद में उसकी अध्यक्षता एक रूटीन वर्क है और भारत लगभग एक रबड़ स्टांप से ज्यादा कुछ नहीं है क्योंकि जिस सुरक्षा परिषद की सदस्यता के लिए भारत एड़ी चोटी का जोर लगा रहा है उसी का अध्यक्ष बन जाना कोई अलभ्योपलब्धि नहीं बल्कि एक रूटीन ड्यूटी है और कुछ नहीं । दरअसल तालिबान को समर्थन या मान्यता उन 5 देशों के सामूहिक सर्वसम्मति का प्रतिफल है जिसमें 2 सदस्य देश रूस और चीन तो प्रत्यक्ष उसके साथ हैं और बाकी 3 अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन अपनी मौन स्वीकृति दे चुके हैं, मौनम् सम्मति लक्षण ।


आखिर आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति चलाने वाला मैसेज अमेरिका आज भीगी बिल्ली क्यों बना हुआ है ? इस्लामी आतंकवाद का मारा हुआ फ्रांस आज मौन क्यों है और खुद को सब का बाप और भारत को तथाकथित सभ्यता की नई राह दिखाने वाला { वामपंथी इतिहासकारों के अनुसार } ब्रिटेन आज गूंगा क्यों बना हुआ है तो इसका अर्थ एक है कि इस आतंकी संगठन के सत्ता प्राप्त होने पर या संप्रभुता मिलने पर अन्य पड़ोसी विकासशील देशों को भी तालिबानी आतंकी से निबटने के लिए हथियार खरीदने पड़ेंगे और पूरी दुनियाँ हथियार बनाने वाली पूरी लॉबी लगभग सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता प्राप्त कर चुकी है मतलब कद्दू कटेगा तो सब में बटेगा और इस पूरी नूरा कुश्ती का एकमात्र कारण यही है । भारत को मैं कदापि दोषमुक्त नहीं करता हूँं क्योंकि भारतीय प्रतिनिधि के हाथ में एक एतराज का मौका था जो उसने से गँवा दिया है। लगभग यह वही अवसर है जैसे लोकसभा से और राज्यसभा से पारित प्रस्ताव पर भारत के राष्ट्रपति अपनी निराशा व्यक्त करते हुए जब उसे लौटाते हैं और अंत में उन्हें मानना पड़ता है परंतु एक बार लौटाना राष्ट्रपति की ओजस्विता का प्रमाण बन जाता है । मुझे लगता है कि भारत में वह मौका गँवा दिया है । अब आतंक को संप्रभुता का चेहरा उसी तरह मिल गया है यह लगभग वैसा ही है जैसे गली का गुंडा , एमपी, एमएलए या मंत्री बन जाए और तमाम सुरक्षा एजेंसियां उसको बचाने में लगी रहें। मेरा स्पष्ट विचार है कि तालिवान को मान्यता सिर्फ हथियारों की बिक्री बढ़ाने के लिए दी गई है क्योंकि हथियार एक ऐसा प्रोडक्ट है जिसे सरकार ही बेचती है सरकार ही खरीदती है। हाँ, आतंकवादियों को राहों में गिरा पड़ा मिल सकता है जैसा अमेरिका के हाथों छूटा हुआ हथियारों का जखीरा तालिबान के हाथ आ गया है ।
अमेरिका का हथियार छूटने का दावा लगभग वैसा ही है जैसा नूरजहां के द्वारा जहांगीर के दिए गए दोनों कबूतर मासूमियत से उड़ा दिए गए ।
आप कहेंगे कि अमेरिका का इसमें क्या फायदा है तो फायदा अमरीका का ही नहीं अमेरिका, रूस , चीन ,फ्रांस , ब्रिटेन और उनके चमचे देशों का है ।


पड़ोस में जब एके-47 एके फिफ्टी सिक्स और रॉकेट लांचर संभाले पड़ोसी बैठा होगा तो यकीनन बाकी पड़ोसी देशों की सेनाओं को भी इसकी व्यवस्था करनी होगी और अमेरिका और ये सारे आयुध निर्माता देश एक का लाख बना चुके होंगे ।
और फिर जब मर्जी होगी इस तालिबानी सत्ता को इस क्षेत्र मैं अशांति के लिए उत्तरदाई बताकर ये सारे देश फिर से उस पर अटैक करेंगे और शांति का प्रयास शुरू हो जाएगा ।
बाबा तुलसी कह गए हैं कि

हरि अनंत हरि कथा अनंता

तो जय हो।।

पुनश्च —
वैसे ज्ञात है कि डब्ल्यूएचओ का भी एक सम्माननीय प्रतिनिधि बनकर भारत कोरोना वायरस रूपी अमृत दुनिया पर छिड़कने वाले चीन का जब कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो सुरक्षा परिषद की 3 टाँग की कुर्सी पर बैठकर तालिबान का क्या उखाड़ सकता था।

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