——–पश्चिम बंगाल का चुनाव ममता और उनके समर्थकों के लिए सत्ता तो हिंदुओं के लिए अस्तित्व बचाने की लड़ाई है|

पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की इस आधार पर बड़ी आलोचना की जाती रही कि उन्होंने पश्चिम बंगाल में बड़ी-बड़ी रैलियाँ की, कोविड-अनुकूल व्यवहार की उपेक्षा और अवमानना की। करनी भी चाहिए, क्योंकि जिनसे आदर्शों के पालन की अपेक्षा की जाती है, उन्हें ही हम उन कसौटियों पर कसते हैं। ममता या अन्य दलों से उन्हें अपेक्षा कम है, इसलिए इन कसौटियों पर उनसे सवाल भी नहीं पूछे जाएँगें।
पर सवाल यह है कि क्या मोदी जी या भाजपा को पश्चिम बंगाल की जनता को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए था? क्या हिंसा, अराजकता, हत्या, रक्तपात के दशकों से चले आ रहे भयावह खेल को यों ही चलने देना चाहिए था?

 
पश्चिम बंगाल जो एक बार फिर जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन और नोआखली जैसे दिनों की याद दिला रहा है, जो एक बार फिर अतीत के उसी मुहाने पर आकर खड़ा है, क्या उन्हें वहाँ की जनता को ऐसे नृशंस एवं पाशविक नरसंहार के लिए छोड़ देना चाहिए था? क्या आप जानते हैं कि नोआखली और कोलकाता में जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आह्वान के बाद 16 अगस्त 1946 को तत्कालीन मुख्यमंत्री सोहराबर्दी के प्रत्यक्ष नेतृत्व में किए गए नरसंहार एवं लूटपाट के कारण लाखों हिंदुओं को अपना घर-बार छोड़कर रातों-रात भागना पड़ा था? क्या आप जानते हैं कि तब कोलकाता की सड़कें-गलियाँ हिंदुओं की लाशों से पटी पड़ी थीं? क्या आप जानते हैं कि केवल एक जिले नोआखली और उसके आस-पास के इलाके में एक लाख से अधिक हिंदुओं को काट डाला गया, कितनी बहन-बेटियों का बलात्कार हुआ, उनके आँकड़े गिनना एक बार फिर भयानक त्रासदी और मर्मांतक पीड़ा से गुज़रना होगा। क्या आप यक़ीन के साथ कह सकते हैं कि कल कोई सोहराबर्दी जैसा मुख्यमंत्री नहीं बनेगा, बनेगा तो संवैधानिक अधिकार, विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार, अपने त्योहार एवं उत्सव मनाने का अधिकार आदि तो छोड़िए, केवल जीवन जीने की स्वतंत्रता के अधिकारों की भी रक्षा करेगा?


क्या प्रधानमंत्री और बीजेपी नेताओं की रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को नहीं पता कि कोरोना जानलेवा है? फिर वे वहाँ इतनी बड़ी संख्या में क्यों और कैसे आ रहे हैं? उन्हें या उनके नेताओं को कोविड-प्रोटोकॉल का पालन करना ही चाहिए। निश्चित करना चाहिए। पर उनकी स्थिति भी समझिए। उन्हें मोदी के रूप में एक नेता नहीं, मुक्तिदाता नज़र आ रहा है। वे वर्षों से जिस परिवर्तन की आकांक्षा और स्वप्नों को पाले बैठे थे, उन्हें पहली बार किसी नेता में उसे साकार करने की उम्मीद नज़र आ रही है। वे उससे सीधे जुड़ना चाहते हैं। प्रत्यक्ष संवाद करना चाहते हैं। यह प्रायोजित भीड़ नहीं, स्वतःस्फूर्त भीड़ है। मोदी में उन्हें परिवर्तन लाने वाला क्रांतिदूत नज़र आ रहा है। भले ही परिवर्तन आ सकेगा या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में छुपा हो। वे भयावह तुष्टिकरण से, वर्ग विशेष के राजनीतिक एवं व्यवस्थागत संरक्षण से, मस्जिदों-मीनारों-दरगाहों से दी जा रही दलीलों-तक़रीरों से पस्त-त्रस्त हैं। वे मेमने की तरह डरे-सहमे बैठे हैं। वहाँ के शासन-प्रशासन ने जान-बूझकर उस डर को गहराने दिया है। तृणमूल की नेता-नेत्री उन्हें सीधे धमका रहे हैं कि मत भूलो, रहना तुम्हें इन्हीं ‘शांतिप्रिय भाइयों-बहनों’ के साथ है। यदि इनके प्रकोप से तुम्हें कोई बचा सकता है तो वे हैं- ये ख़ुद। ऑन रिकॉर्ड है, सुन लें।

 
उन्हें लग रहा है कि कोरोना से तो वे बाद में मरेंगे, पर यह 37 प्रतिशत ‘शांतिप्रिय लोग’ और उनके राजनीतिक आका उन्हें जीने नहीं देंगें। इतिहास उन्हें डरा रहा है, वर्तमान का अनुभव उन्हें डरा रहा है, त्वरित घटनाएँ-प्रतिक्रियाएँ, जुमे के नमाज़ के दिन बेमतलब हिंसक और उत्तेजक हो उठने वाली भीड़ उन्हें डरा रही है। मुझे फिर ग़लत संदर्भों में मत लीजिएगा। मैं भीड़ की बात कर रहा हूँ, व्यक्तियों की नहीं। व्यक्ति सभी पक्षों-धर्मों में अच्छे-बुरे होते हैं। पर भीड़ की मानसिकता कुछ समूहों पर विशेषतः हावी है। वे आज भी रत्ती भर बदलने को तैयार नहीं। कोई तैयार भी होता है तो भीड़ वाली मानसिकता उन्हें बदलने नहीं देती।


ऐसे में प्रधानमंत्री की रैली में आने वाले लोगों को साफ दिख रहा है कि कोरोना से तो वे जूझ लेंगे, पर जिन लोगों ने बांग्लादेश में, पाकिस्तान में दूसरे धर्म के लोगों को चुन-चुनकर मार डाला, उनकी छोटी-छोटी बच्चियों को उनके घर से, उनकी आँखों के सामने से उठा लिया, ग़ैर-मज़हबी लोगों को अपना सब कुछ गंवाकर रातों-रात भागने और शरणार्थी शिविरों में नारकीय यातना के बीच जीने को मजबूर कर दिया, क्या ऐसे लोग और ऐसी ताक़तें उन्हें चैन से जीने देंगीं? कब तक जीने देंगीं? बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी? दबी-सहमी, बंटी-कटी हिंदू-जाति कब तक अपनी हिफाज़त कर सकेगी और कितना लड़ लेगी? इसलिए बदलाव में ही उन्हें मुक्ति दिखाई दे रही है। 
वहाँ सत्ता की लड़ाई बिलकुल नहीं है। बल्कि तृणमूल और उनके समर्थकों के लिए वह सत्ता बचाने की लड़ाई भले हो, पर शेष सभी के लिए वह अस्तित्व बचाने की लड़ाई है। एक तरफ़ वे लोग हैं जो शासन-प्रशासन के संरक्षण में हर तरह की गुंडागर्दी और मनमानेपन के लिए स्वतंत्र हैं, जो यथास्थिति को हर हाल में बनाए रखना चाहते हैं और दूसरी तरफ़ वे लोग हैं जो हर हाल में परिवर्तन चाहते हैं, प्रगति चाहते हैं, शांति चाहते हैं, जो सर्वाधिक कर चुकाकर भी दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा, दशहरा, दीपावली, होली, रामनवमी भी डरे-सहमे मनाते हैं कि अचानक कहीं से कोई भीड़ आकर उन पर पथराव न कर दे। वे इस डर से हर हाल में मुक्ति चाहते हैं।

  
छोड़िए साहब, ज्ञान देना आसान होता है और विभाजन एवं पलायन की त्रासदी एवं पीड़ा भोगना अलग। आप ही बताइए न ज्ञानियों! क्या बचा लिया हमारे संविधान, हमारे न्याय-तंत्र, हमारे पुलिस-प्रशासन ने कश्मीरी पंडितों को। आज तक दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। बंगाल के लोगों के सामने भी यह दृष्टांत है। उन्हें विधर्मियों द्वारा की जा रही वर्तमान की हिंसा-अराजकता में से अपना अतीत झाँकता-ताकता-डराता-दुहराता नज़र आता है। 
बताइए न ज्ञानियों कि जो कौम  चाकू-छुरी-तलवार-भाले-लाठी-डंडे-बम-पिस्तौल-बंदूक से नीचे बात ही नहीं करती उसे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्य समझ में आएगा? फ़तवे और फरमान ज़ारी करने वालों, जलसे और जुलूस में अन्य मतावलंबियों को सीधी धमकी देने वालों को विचारों की अभिव्यक्ति और विविधवर्णी-बहुधर्मी व्यवस्था समझ आएगी? दुनिया के किसी मुल्क में समझ आई हो तो बताएँ? एकाध तो बताएँ?


मैं पश्चिम बंगाल रहकर आया हूँ। ख़ुद अपनी आँखों देखा सच बयान कर रहा हूँ। उन्हीं इलाकों में गया था, जहाँ 50 से 60 प्रतिशत आबादी ‘शांतिप्रिय कौम’ की है। उन इलाकों में अपनी बीबी के छेड़े जाने पर पति विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। और सुनेंगें आप लोग,  पुस्तैनी ज़मीन, पुस्तैनी ज़ायदाद, दशकों नहीं, सदियों से जमा-जमाया व्यापार छोड़कर लोग पलायन कर रहे हैं या पलायन करने की सोचने लगे हैं। कुछ नहीं तो बच्चों मुख्यतया बेटियों को हजारों मील दूर किसी दूसरे राज्य में रिश्तेदारों के पास या हॉस्टल भेज दे रहे हैं कि सुरक्षित रहेंगे। मेरे सामने एक विवाहिता नवयौवना को उनके पड़ोसी ”(शांतिप्रिय भाई?)” ने बाँहों में भर लिया, पर मेरी पूरी ताक़त लगाने के बाद भी पति और परिवारवालों की  पुलिस से शिकायत करने की हिम्मत नहीं हुई। पानी में रहकर मगर से कैसे और कब तक कोई बैर करे वाली सोच में जीने को अभिशप्त हैं- लोग! 
आप शुतुरमुर्ग हैं, बने रहिए। पर मेरा तो यही है कि:-
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग।
रो-रोकर अब कुछ कहने की आदत नहीं रही।

प्रणय कुमार

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