हिंदी-दिवस: राष्ट्रीय कर्मकांड और औपचारिक अनुष्ठान का अनूठा दिवस है| एक बार फिर मर्सिया पढ़ा जाएगा, एक बार फिर विरुदावलियाँ गाई जाएँगीं; एक बार फिर कोई प्रलय की पोथी बाँचेगा तो कोई प्रशस्ति के गीत गाएगा; एक बार फिर तोरण-द्वार बनाया जाएगा, बंदनवार सजाए जाएँगे, हिंदी को देश के माथे की बिंदी बताने वाले स्वर दिक्-दिगंत में गूँजेंगे| पर सच्चाई यही है कि हिंदी वाले ख़ुद अपनी मातृभाषा की कद्र करना नहीं जानते| गुलामी की ग्रन्थियाँ हम भारतीयों में और मुख्यतः हिंदी-प्रदेशों में इतने गहरे पैठी हैं कि हम अंग्रेजी भाषा ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी चाल-चलन, हाव-भाव, नाज़ो-नख़रे, कहावतें-मुहावरे, सोच-संस्कार, व्यवहार-विचार आदि अपनाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं| बात-बात पर अंग्रेजी बघारना आभिजात्य का प्रतीक बना दिया गया है, तथाकथित संपन्न तबकों के लाड़ले हिंदी भी कुछ इस अंदाज़, लबो-लहज़े और मुद्राओं-भंगिमाओं में बोलते हैं, जैसे वे हिंदी बोलकर उस पर कोई एहसान कर रहे हों, लाड़लियों की जबान का तो शृंगार या तकियाकलाम ही “ओह शिट” हो गया है| शिष्टाचार और टेबल मैनर के नाम पर काँटे-चम्मच-छुरी का प्रयोग कर लोग अपने-आपको सभ्यता का “अवतार” घोषित कर रहे हैं| रही-सही कसर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए गली-मुहल्ले-कस्बों के अंग्रेजी-माध्यम के सड़क छाप स्कूलों ने पूरी कर दी है| टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलना सिखाकर वे बच्चों को रट्टू तोता में रूपांतरित कर देते हैं| धोबी का कुत्ता न घर का, न घाट का- वहाँ पढ़ने वाले बच्चे न ठीक से हिंदी बोल पाते हैं, न अंग्रेजी| हिंदी में बोल नहीं सकते और अंग्रेजी में सोच नहीं सकते और सोच के अभाव में कैसी अभिव्यक्ति, कैसी भाषा; मौलिकता तो बस दूर की कौड़ी है| भाषा और अभिव्यक्ति के अभाव में मौलिक चिंतन, मौलिक शोध, मौलिक व्यक्तित्व का तो सवाल ही नहीं पैदा होता!
इतिहास साक्षी है, जब हम अपनी भाषा में सोचते, लिखते और अभिव्यक्ति पाते थे तो पूरी दुनिया भारत और भारतीय संस्कृति का गौरव-गायन करती थी| देखें और सोचें, आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद की विविध उपलब्धियाँ; साहित्य-शिक्षा-ज्ञान-विज्ञान-दर्शन से लेकर मानवता तक के विकास में हम भारतीयों के तब और आज का योगदान, दृष्टि हो तो अंतर दर्पण की तरह एकदम साफ एवं स्पष्ट दीख जाएगा| भाषा को लेकर बँटा-छँटा हमारा समाज और हम खंडित सोच और खंडित व्यक्तित्व को लेकर जीने को अभिशप्त हैं|दावा यह कि अंग्रेजी के बिना वैश्विक दौड़ में पिछड़ जाएँगे, कि अंग्रेजी एक ग्लोबल भाषा है, कि अंग्रेजी भी ऐसी कि इंग्लैंड और अमेरिका के लोग भी हमारी अंग्रेजी सुन भौंचक्के रह जाएँ, हमसे कमतर महसूस करें और इसलिए तमाम विद्यालयों, भाषा-प्रशिक्षण केंद्रों एवं शिविरों में फ़ोनेटिक्स के नाम पर ऐसे-ऐसे अन्याय-अत्याचार-आतंक कि रोम-रोम थर्रा जाए| दुनिया में कहीं भी कोई भी विदेशी या आयातित भाषा स्थानीय आवश्यकता और पुट को समाहित किए बिना विकसित नहीं होती, पर भारत के अंग्रेजीदाँ लोगों को यह भी स्वीकार नहीं! फ़ोनेटिक्स और आँग्ल-अमेरिकन शैली की अंग्रेजी बोलने का आज ऐसा दबाव और भेड़चाल दिखता है जैसा कदाचित आज से पूर्व कभी न देखा गया! हूबहू नकल का आलम यह है कि ये प्रशिक्षक-विशेषज्ञ स्वर्गीय रवींद्रनाथ टैगोर, सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गाँधी, डॉ एपीजे अब्दुल कलाम, नेल्सन मंडेला जैसे सर्वस्वीकृत विद्वानों को भी संभवतः भाषा की कसौटी पर आज ख़ारिज कर दें|
किसी भी समाज को गूँगा-बहरा बनाना हो तो सबसे पहले उससे उसकी भाषा और संस्कृति ही छीनी जाती है, उससे उसका स्वाभिमान और आत्मसमान छीना जाता है, उसमें आत्म-विस्मृति के बीज डाले जाते हैं, हीनता की ग्रंथियाँ पाली-पोसी जाती हैं| उसकी स्वतंत्र एवं इतर सोचने-समझने की शक्ति कुंद की जाती है, उनमें यह एहसास भर दिया जाता है क़ि वे पिछड़े हैं, कि युगों से उनके पुरखे-पूर्वज अपनी भाषा में जो बोलते आए, जो जीते आए, वह सब गलत था, पिछड़ापन था, असभ्य था, कि उनके पास दुनिया के मंचों पर स्वयं को प्रकट-अभिव्यक्त करने के लिए एक अदद भाषा तक नहीं है| कि ‘वे’ उन्हें बोलना और लिखना सिखाएँगे, कि ‘वे’ उन्हें सभ्य, सुसंस्कृत और आधुनिक बनाएँगे!
सुनते और सोचते हुए भी सिहरन पैदा होती है, पर ऐसे स्कूल-कॉलेजों की आज कमी नहीं, जहाँ अपनी भाषा में बोलने-बतियाने पर शारीरिक-मानसिक प्रताड़नाएँ झेलनी पड़ती हैं! आर्थिक दंड दिए जाते हैं| दिन भर धूप में खड़ा रखा जाता है या क्लास से बाहर कर दिया जाता है| सोचने वाली बात यह है कि स्वभाषा में बोलकर प्रताड़ना झेल चुका वह बच्चा क्या बड़ा होकर अपनी भाषा पर गौरव कर सकेगा, क्या सार्वजनिक अपमान झेलने के पश्चात भी वह मातृभाषा का सहज-स्वाभाविक प्रयोग कर सकेगा? कई बार ऐसे सामाजिक-शैक्षिक परिवेश पर प्रश्न खड़ा करने वालों को ही कठघरे में खड़ा किया जाता है| इसे अंग्रेजी से चिढ़ या शत्रुता के रूप में प्रस्तुत कर भाषा के गंभीर प्रश्नों एवं पहलुओं का निर्लज्ज सरलीकरण कर दिया जाता है| सच यह है कि हिंदी बोलने वालों के लिए अंग्रेजी से चिढ़ने या परहेज़ करने का आज के वैश्विक दौर में कोई कारण नहीं है! अरे भाषा, वह भी एक ऐसी भाषा जो दुनिया के कुछ हिस्सों में प्रयुक्त-प्रचलित हो, उसे सीखने-सिखाने से भला किसे गुरेज़ होगा? भाषा तो ज्ञान की एक शाखा है| जिस देश ने दुनिया भर से बहिष्कृत-निष्कासित समूहों-सभ्यताओं को मुक्त भाव से गले लगाया हो उसे एक अंग्रेजी को गले लगाने में भला क्या और कैसी आपत्ति हो सकती है? आपत्ति तो अंग्रेजी को लेकर श्रेष्ठता का दंभ और हिंदी को लेकर हीनता-ग्रन्थि पालने से है| आपत्ति उस मनोवृत्ति से है जिसके वशीभूत होकर आदमी बात-बेबात सड़कों-पार्कों-चौराहों-सार्वजानिक परिवहनों में अचानक अंग्रेजी पोंकने लगता है और स्वयं को तीसमारखाँ साबित करने की चेष्टा-कुचेष्टा करता है| ऐसी अंग्रेजी प्रभावित नहीं, या तो आतंकित करती है या उपहास का पात्र बनाती है|
संवाद का सामान्य शिष्टाचार है कि सामने वाला जिस भाषा में बोल-बतिया रहा हो, उससे उसी भाषा में बात की जाय| पर नहीं! अंग्रेजी को लेकर ऐसा हौवा खड़ा किया जाता है कि अचरज़ से अधिक भय पैदा होता है| अंग्रेजी भी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और उसे माध्यम भर मानना चाहिए| न कि उसके आधार पर पहले से वर्गों एवं साँचों में विभाजित समाज का और गहरा विभाजन करना चाहिए| अंग्रेजी ही ज्ञान की एकमात्र कसौटी होती तो कचहरी के बाहर टाइपराइटर लेकर बैठने वाला मुंसिफ़ जज से ज़्यादा ज्ञानी होता, इंग्लैंड-अमेरिका में पैदा हुआ हर व्यक्ति जनमते ही विद्वान मान लिया जाता! कितना हास्यास्पद है यह सब?
पर यही हो रहा है हिंदी के साथ! उसे बार-बार अपमानित और कलंकित किया जाता है| उसे बार-बार कमतर आँका-बताया जाता है| वैज्ञानिकता एवं भाषिक समृद्धि की तमाम कसौटियों पर खरे उतरने के बावजूद!कब तक सहेंगे, कब तक स्वीकार करेंगे हिंदी वाले अपनी मातृभाषा की यह स्थिति? वह दिन दूर नहीं जब हिंदी अंग्रेजी एवं उसके पैरोकारों से अपना वास्तविक अधिकार छीन लेगी| दो-चार प्रतिशत लोगों की भाषा करोड़ों भारतीयों के सपनों को कुचल नहीं सकती, दुनिया के तमाम मुल्कों ने अपनी भाषा में ही अपनी प्रगति की इबारतें लिखी हैं, दुनिया के मात्र पाँच देशों की भाषा अंग्रेजी है, वह भी उनकी जिनकी मातृभाषा ही अंग्रेजी थी, ऐसे में उसे वैश्विक भाषा कहना भी अतिरेकी दावा ही है| चीन, जर्मनी, जापान, फ़्रांस से लेकर तमाम देशों की तक़दीर और तस्वीर उसकी अपनी भाषा से ही बदली है, यदि सचमुच भारत को भी अपनी तक़दीर और तस्वीर बदलनी हैं तो उसे एक अदद भाषा अपनानी पड़ेगी| निःसन्देह सभी भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने के संस्कार और सरोकार हिंदी के रहे हैं, इसलिए हिंदी ही उसकी स्वाभाविक अधिकारिणी है|
बाज़ार और तकनीक ने इसे एक नई ताक़त दी है| संचार के नित-नवीन माध्यमों एवं प्रयोगों ने इसे एक नई गति एवं ऊँचाई दी है| आज यह और लोकप्रिय जनभाषा बन चुकी है| रोज शुरू होने वाले हिंदी के नए-नए चैनल और नई-नई पत्रिकाएँ इसकी सफलता की कहानी कहने के लिए पर्याप्त हैं| इसके पास अतीत के वैभव और पुरखों के विरासत की थाती तो थी ही, वर्तमान के सपनों-संघर्षों के सजीव चित्रण में भी इसका कोई सानी नहीं है|आज यह भाषा, गाँवों-कस्बों-कूलों-कछारों-खेतों-खलिहानों के अरमानों और उड़ानों को नए पंख और नया आसमाँ प्रदान कर रही है| यह आम आदमी के दर्द और हँसी को स्वर दे रही है और जब तक मनुष्य के मन में माँ-माटी-मानुष से लगाव है, तब तक यह भाषा हर चुनौती से पार पाती हुई आगे-ही-आगे बढ़ती रहेगी| सरकार ने भी नई शिक्षा नीति में मातृभाषा एवं हिंदी को महत्ता प्रदान कर भाषागत अवरोधों को दूर किया है| अब समाज को अपनी जिम्मेदारी निभानी है| यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे और भावी पीढ़ी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी रहे तो उन्हें अपनी मातृभाषा या हिंदी में बोलने का संस्कार सौंपना होगा| उनमें यह भावबोध जागृत करना होगा कि अपनी भाषा में अपने मनोभावों को ठीक-ठीक न व्यक्त कर पाना हीनता और शर्म का विषय होना चाहिए, न कि गौरव और प्रतिष्ठा का…….|
प्रणय कुमार9588225950
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