बात उस समय की है जब कृष्ण और सुदामा , गुरु सांदीपणी के गुरुकुल में शिक्षा गृहण कर रहे थे । क्यूँकि गुरुकुल में सारे कार्य खुद करने होते थे , तो सबके कामों का बँटवारा गुरु और गुरुमाता करते थे ।

एक दिन जंगल से लकड़ियाँ लाने का काम मिला कृष्ण और सुदामा को । कृष्ण राजकुल से थे और सुदामा एक निर्धन परिवार से , पर मित्रता बहुत घनिष्ठ थी । दोनों साथ चल दिए । साथ में खाने के लिए चने रख दिए गुरुमाता ने । सारे चने सुदामा के पास थे ।

लौटते लौटते देर हो गयी , शाम हो गयी और वर्षा आ गयी । बचने के लिए कृष्ण और सुदामा दोनों ने एक पेड़ की शाखाओं पर शरण ली । सुदामा को भूख लग आयी और उन्होंने चने खाने शुरू कर दिए । कृष्ण जी को जब दांत चलने की आवाज़ आयी तो पूछ बैठे : सुदामा चने खा रहे हो क्या ? पर बालमन जो ठहरा ,कहीं चने कृष्ण से साझा ना करने पड़ें सुदामा ने मना कर दिया कि ठंड लग रही है इसलिए दांत बज रहे हैं । चने तो भीग गए हैं ।

अगले दिन जब वापस आश्रम पहुँचे तो गुरुमाता ने पूछा कि कुछ खाया या नहीं । सुदामा कुछ बोल नहीं पाए । कृष्ण सब समझ गए । मित्र को लज्जित होने से बचा लिया और बात टाल दी ।

गुरु आश्रम से विदा होने तक सुदामा को इसका बहुत पश्चाताप रहा । विदा होते समय कृष्ण ने सुदामा से कहा जीवन में कभी मेरी आवश्यकता पड़े तो निःसंकोच कहना ।

वर्षों बीत गए । कृष्ण अपने राज-पाठ में व्यस्त हो गए । सुदामा की निर्धनता वैसे ही बनी रही । किसी तरह जीवन कट रहा था । अपनी पत्नी को अक्सर वो कृष्ण के बारे में बताते । पत्नी कई बार उन्हें बोल चुकी थी कि जब कृष्ण ने कहा था कि सहायता लगे तो ज़रूर आना तो आप क्यूँ नहीं जाते । पर सुदामा के हृदय में तो चने वाली घटना की फाँस चुभी थी ।

पर एक दिन जब बिलकुल निर्धनता नहीं देखी गयी , तो सुदामा ने कृष्ण के पास जाने का निर्णय किया । चलते समय पत्नी ने कहा मित्र से मिलने ख़ाली हाथ नहीं जाते और एक पोटली में अन्न दे दिया । सुदामा द्वारिका पहुँचे । वहाँ की आभा और वैभव देखकर दंग रह गए और मित्र के लिए प्रसन्न भी हुए । महल के द्वार पर पहुँचे और द्वारपाल से बोले की कृष्ण को कहना सुदामा आया है ।

जब कृष्ण ने सुना सुदामा आए हैं तो नंगे पैरों ही भाग पड़े । द्वारपाल भी चौंक गया की एक फटे-पुराने कपड़े पहने व्यक्ति से मिलने के लिए राजा स्वयं ऐसे क्यूँ भाग रहा है । पूरे सम्मान के साथ कृष्ण सुदामा को लेकर आए , उनके पग पखारे । और बोले : लाओ दो भाभी ने मेरे लिए क्या दिया है । कृष्ण के वैभव को देखकर सुदामा को अपनी पोटली दिखाना अच्छा नहीं लगा पर कृष्ण कहाँ मानने वाले थे । उन्होंने छीन ही ली पोटली ।और पोटली में रखे अन्न को खाकर आनंदित हो गए ।

सुदामा का द्वारिका में खूब आदर सत्कार हुआ । सुदामा अभी भी संकोच में थे । वे कृष्ण से जो माँगने आए थे , मित्र की आवभगत देखकर माँग ही नहीं पाए ।

लौटने का समय हुआ । कृष्ण ने विदा भी आदरपूर्वक किया । लौटते समय पूरे रास्ते सुदामा सोचते रहे की पत्नी को क्या कहेंगे । क्यूँ कुछ माँग नहीं पाया । कब घर आ गया पता ही ना चला ।

पर ये क्या , घर का काया कल्प हो चुका था । धन धान्य से भरा घर , आभूषणों से सुसज्जित अपनी पत्नी को देखकर , सुदामा की आँख में आँख में आँसू आ गए ।

क्या और कैसे हुआ इसका कारण भी पता था और कारक भी । मन ही मन कृष्ण का आभार व्यक्त किया ।

कृष्ण ने मित्रता निभायी थी । अच्छे मित्र बिना कुछ कहे सब समझ जाते हैं । किसी के लिए हम सभी को ऐसे ही मित्र बनना चाहिए !!!

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