– अभिषेक उपाध्याय
जाने माने पत्रकार अभिषेक उपाध्याय लिख रहे हैं आर्मीनिया से युद्ध का आंखों देखा हाल
काराबाख डायरी दूसरा हिस्सा–
अभी काराबाख में पहला कदम रखा ही था कि काराबाख की मिलेट्री ने गाड़ी से उतार लिया। ज़बरदस्त चेकिंग शुरू हो गयी। मैंने ध्यान दिया कि काराबाख मिलेट्री के जवान हमारे गाइड हायक से स्थानीय भाषा मे कुछ कह रहे थे। उनके हावभाव से लगा कि कहीं कुछ हो गया है। वे बेहद उग्र नज़र आ रहे थे। इतने में मैंने हायक को दौड़कर अपनी ओर आते हुए देखा। मेरे दिमाग मे तुरन्त ड्रोन हमले की तस्वीर नाच गई। मगर चारों ओर खुला मैदान था। यहां शेल्टर के लिए किधर भागूं? मैंने अभी सोचना शुरू ही किया था कि हायक मुझे तेज़ी से एक किनारे ले गया। मेरे साथी कैमरामैन को दूसरी ओर खड़े होने को बोला। फिर मुझे चेतावनी दी कि कहीं भी भीड़ नही लगनी चाहिए क्योंकि ड्रोन वहीं गिराए जाते हैं जहां एक से अधिक लोग साथ खड़े होते हैं। मैंने अब गौर किया कि हम और चेतन दो मिलेट्री के जवानों के ठीक बगल में खड़े थे।
काराबाख ने भीतर घुसते ही वॉर ज़ोन का पहला सूत्र सिखा दिया कि हर पल सोचते रहो कि अगले पल कैसे बचना है। यहां जीने का बस एक यही रास्ता है।
सिक्योरिटी क्लियर होते ही हम आगे के सफर पर थे। काराबाख के सेंटर की ओर जहां मौत और विनाश का तांडव हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। अब शूशी शहर तक गाड़ी पहुंच चुकी थी। ये वही शहर था जहां कुछ दिन पहले एक कैथेड्रल पर एयर स्ट्राइक की गई थी। हम उसी कैथेड्रल के भीतर थे।
कैथेड्रल की एक भीतरी और एक बाहरी दीवार उड़ चुकी थी। छत का पता नही था। यीशु की प्रतिमा एक किनारे लुढ़की हुई थी। मुझे यीशु की आंखों में कौतूहल दिखाई दिया। मानो वे इस बार कुछ अलग कह रहे हों। मानो बदले हुए हालात में वे कह रहे हों, “हे प्रभु इन्हें माफ करना, बावजूद इसके कि ये जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं।”
थोड़ी दूर आगे शूशी के बाजार में एक ज़िंदा रॉकेट हमारा इंतज़ार कर रहा था। टारगेट मिस होने से ये सीधा बीच सड़क पर गिरा था और एक बड़ा होल बनाकर धंस गया था। मगर अगला रॉकेट निशाने पर था। इसने शूशी के कल्चरल सेंटर पर इतना भयानक हमला किया था कि नीचे बना बंकर तक उड़ गया था।
जब हिम्मत कर मैं इस बंकर में उतरा तो कलेजा कांप गया। जो पहली चीज़ आंखों से टकराई वो ABCD की एक किताब थी। बगल में चेस की गोटियां बिखरी हुई थीं। इस बंकर में मासूम बच्चे थे। सेफ्टी के लिहाज से उन्हें यहां रखा गया था मगर रॉकेट ने उन्हें भी नही छोड़ा। मुझे जाने क्यों लगा कि रॉकेट गिरने से ठीक पहले कोई बच्चा अपनी तोतली आवाज़ में ABCD याद कर रहा होगा। रॉकेट ने A और B को मार दिया होगा। बस C और D बची रह गई होंगी। कभी कभी जो इंसान नही कह पाता है, वो ज़ख्मी अक्षर कह जाते हैं।
मैं चाहकर भी अपनी नज़रों से उस छोटी बच्ची के ऊनी गुलाबी फ्रॉक की तस्वीर नही हटा पा रहा, जो बिस्तर पर लावारिस पड़ा था। अरसे बाद इतना हल्का स्वेटर हाथों से उठाया था पर न जाने क्यों हाथ अब तक दुख रहे हैं? कभी कभी कुछ हल्की चीजों का वजन आपकी समूची उम्र के वजन पर भारी पड़ जाता है।
ये रात का वक़्त है। मैं इस समय नागरनो काराबाख की राजधानी स्टेपनाकर्ट के एक होटल के बंकर में हूँ। ड्रोन के हमले के डर से हमे बंकर में रातें काटनी पड़ रही हैं। पूरे शहर में ब्लैक आउट है। यहां रात में लाइट दिखने का मतलब ड्रोन को मौत बांटने का न्योता देना होता है। दिन भर का बुरी तरह थका हुआ हूँ। पर न जाने क्यों नींद नही आ रही। कोई गुलाबी कलर का ऊनी सा स्वेटर आंखों में धंस गया है शायद!!
(जारी)
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