हां ,बदल ही गया होगा दस्तूर जमाने का ,
अब ,खतों का मेरे , कोई जवाब नहीं देता ॥
सयाने हुए हैं सारे , अब जरूरत नहीं होती,
यही वजह है कि , तोहफ़े मे अब कोई किताब नहीं देता ॥
अब कहां , कशिश बची है मोहब्बत की ,
किताबों में रखने को , कोई अब गुलाब नहीं देता ॥
दूसरों की खामियां देखते , उम्र गुजर जाती है ,
अपने गुनाहों का , खुद कोई क्यों हिसाब नहीं देता ॥
दुश्मन ही है वो , कैसी पडोसी मान लें ,
जो होता पडोसी , तो हर साल एक नया “कसाब ” नहीं देता ॥
हर कोई दिखाता है रुतबा अपनी पहचान और ओहदे का
सच्चा और ईमानदार ही बस , अपना रुआब नहीं देता ॥
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गद्य के साथ-साथ पद्य में भी मारक
आपका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार राजा साहब