राहत इंदौरी जो अपनी अच्छी शायरी और बहुत ज़बरदस्त प्रस्तुति से मंत्र-मुग्ध कर देते थे की कल मृत्यु हो गयी है। सोशल मिडिया पर लगभग हाहाकार मचा हुआ है। अनेक लोगों ने राहत पर अपनी समझ से श्रद्धांजलि लिखी और लोग टूट कर पड़े। राहत की, लेखक की खाट खड़ी कर दी और ऐसा एक-दो साम्प्रदायिक लोगों ने नहीं किया। इतनी ज़बरदस्त सुताई हो रही है जैसे धुँआधार संटियाँ पड़ रही हों। एक पोस्ट पर 150-160 कड़वे कॉमेंट, गालियाँ मुख्य धारा किधर बह रही है, जानने के लिये पर्याप्त है। 


यह सामान्य भारतीय व्यवहार है कि यदि शत्रु की भी मृत्यु हो जाये तो उसकी मृत्यु के बाद उसकी आलोचना नहीं की जाती। परिचित, आत्मीय, गली के पड़ौसी की मृत्यु होने पर अनेक बार ऐसा हुआ है कि लोगों ने परिवार का विवाह भी बिना बैंड-बजे के किया या घर से नहीं किया। किसी मित्र-संबंधी के घर से या मंदिर से चढ़त कर दी। इसका कारण समाज के परम्परागत शिष्ट व्यवहार हैं। अतः धुँआधार संटियाँ लगाने वालों की मानसिकता समझनी होगी। श्रद्धांजलि लिखने वालों पर लेख के अंत में बात करूँगा। 

राहत की ख्याति बल्कि कुख्याति हिंदू-विरोधी शायरी के लिए थी। उनकी प्रस्तुतिकरण ज़हर-बुझे शेर पढ़ने, मुसलमान श्रोताओं को इस्लामी बनाने, वातावरण को विषाक्त, राष्ट्रविरोधी बनाने का था। राहत इंदौरी उस शायर का नाम है जिसने भारत भर के मुशायरों को ज़हरीला बनाया। मुशायरे में जब राहत का नंबर आता था तो वहां बैठे हिंदू श्रोता अचानक अकेले पड़ जाते थे। राहत के ज़हरीले शेरों पर उछल-उछल का दाद देते हुए सैकड़ों श्रोताओं में कुछ हिंदू स्वयं को पाकिस्तान में भूखे इस्लामी भेड़ियों में घिरे मुट्ठी भर हिंदुओं जैसा अनुभव करने लगते थे।

हमारे सर की फटी टोपियों पे तंज़ न कर [व्यंग्य]हमारे ताज अजायबघरों में रक्खे हैं


दल्लालों से नाता तोड़, सबको छोड़ भेज कमीनों पर लाहौल अल्ला बोल

अबके जो फ़ैसला होगा वो यहीं पर होगा हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली {इस्लाम के लिये देश छोड़ना}


सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिटटी में, किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है  

दीन दयाल उपाध्याय जी की एक पुस्तक में राष्ट्र और चिति पर विस्तार से चर्चा है। हम में इसी की कमी है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इज़रायल की राजधानी में यहूदियों के विरोध में सम्मेलन हो ? क्या कभी ध्यान में भी आया है कि सऊदी अरब, क़तर, ईरान, पाकिस्तान बल्कि उदार समझे जाने वाले दुबई में इस्लाम की सुंदरताओं जैसे क़ुरआन की बीबियों पीटने की शौहरों को अनुमति देने वाली आयत, काफ़िरों के क़त्ल वाली आयतों, हलाला, मोती की तरह चमकदार गिलमाँ की जन्नत में उपलब्धता पर सेमिनार हो ?

एकदम से चौंक गए होंगे मगर राहत अपने पुरे कैरियर में इस्लामी साम्प्रदायिकता का यही ज़हर बिखेरते, बोते रहे। राहत के बनाये बल्कि दिखाये कहना उचित होगा चूँकि उर्दू का वातावरण तो प्रारम्भ से ही विषाक्त है, पर सैकड़ों शायर चल निकले।

नवाज़ देवबंदी का एक शेर प्रमाण के तौर प्रस्तुत है 
हमें तू ग़ज़नवी का हौसला देमुसलसल हार से तंग आ गए हैं 


असलम इलाहाबादी का शेर देखिये 
हर शख़्स खजूरों की जड़ें काट रहा है, पीपल के तले कोई दिखाई नहीं देता


मुनव्वर राना के शेर कोट करने लगूंगा तो यह लेख हज़ारों शब्दों का हो जायेगा चूँकि उनकी गद्य की टाँगें तो बाबरी मस्जिद के घुटनों में लगी हुई हैं। राहत व्यक्तिगत रूप से अच्छे मगर मज़हबी रूप से कसैले व्यक्ति थे जबकि श्रद्धांजलि वाले लोग मज़हबी रूप से नजानकार, अनपढ़ सरीखे हैं।


ऐसा नहीं है कि राहत ने मुशायरों के विषाक्त वातावरण को बदलने की कोशिश नहीं की। राहत ने ही लफ़्ज़ पत्रिका निकलने के ज़माने में प्रस्ताव रक्खा कि भारत भर में लफ़्ज़ के बैनर तले साहित्यिक आयोजन किये जायें। जिनमें राहत निःशुल्क आएंगे और साथ ही 10,000 रूपये भी देंगे। अन्य लोगों के चयन में केवल स्तरीय रचनाकारों को रखने की बात थी। जो लफ़्ज़ से अपेक्षित ही था। कई बहुत सफल आयोजन हुए। आयोजनों की शृंखला में बरेली का नंबर आया। स्थानीय टीम के चयन का काम शारिक़ कैफ़ी को सौंपा गया। पहली झड़प अक़ील नोमानी से हुई। जो बहेड़ी के किसी मोतिया {असली शब्द पढ़ें} को नात {मुहम्मद की प्रशंसा का काव्य} पढ़ने के लिये पकड़ लाया। शारिक़ कैफ़ी ने भी स्थानीय परम्परा का हवाला दिया। जिसे नहीं माना गया और  अक़ील आज तक सुलगा हुआ है। आयोजन प्रारम्भ हुआ। शारिक़ कैफ़ी ने अपने रामपुर के बहुत ख़राब शायर जो उसके रिश्तेदार भी थे, टीम में भर लिये। वहां से मुझे झाँसी और राहत को भोपाल जाना था। आगरा तक टैक्सी में साथ-साथ थे। मैं इतना लज्जित था कि सारे रस्ते चुप रहा और इस तरह मुशायरों के वातावरण को साफ़ करने की योजना में पलीता लग गया।

राहत शिष्ट, सभ्य व्यवहार के व्यक्ति थे। मेरे राहत से मित्रता के संबंध थे। राहत के साथ बीसों मुशायरे पढ़े। लगभग हर मुशायरे के बाद बहस की। कई बार राहत मेहमान रहे। मैं राहत के बेटे की शादी में इंदौर गया। एयरपोर्ट पर मुझे लेने उनका छोटा बेटा सतलज आया। जब भी मुलाक़ात हुई हमेशा मेहमान-नवाज़ प्यार भरा पाया मगर राष्ट्र के प्रति अकिंचन की सोच और राहत की सोच के बीच बहुत बड़ी खाई थी। जब मैं इस ज़हर को देख सकता था तो कोई कारण नहीं है कि दानिश, साहिल, आतिश, विश्वास, सोलंकी इसे न देख पायें। हम हिंदू व्यक्तिगत व्यवहार को बहुत महत्व देते हैं और उसका कारण है कि हम व्यक्ति ही हैं जबकि मुस्लिम काफ़ी हद तक इस्लामी समूह हैं। कुफ़्र-ईमान के चिंतन से भरे, काफ़िरों को नजिस {अपवित्र} मानने वाले, कुफ़्र को मिटा कर इस्लाम का दबदबा बनाने की इच्छा से भरे, हम और तुम की शब्दावली इसी कारण उनका सामान्य व्यवहार होती है।

राहत की श्रद्धांजलि पर राष्ट्र का टूट पड़ना अच्छा है। इससे पता लग रहा है कि राष्ट्र की आँखों में लाली आने लगी है, लहू उतरने लगा है, भौहें तन रही है। ऐसा होना बहुत शुभ है। राष्ट्रोत्थान के यज्ञ की ज्वालायें लपलपायें, विषाक्त वातावरण शुद्ध हो, ही तो लक्ष्य है। इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि राष्ट्र का गौरव लौटेगा। राष्ट्र पुनः विभाजित नहीं होगा जो राहत जैसों का प्रकारांतर में लक्ष्य है। जब मैं मरूँगा तो सम्भव है मेरे साथ भी हो। मुल्ला पार्टी मेरे बारे में भी ऐसा ही कठोर लिखे मगर राष्ट्र के चारणों को इसके लिये तैयार रहना होगा। 


अब राहत ज़िंदा नहीं हैं तो मुशायरों में अपना नाम बढ़वाने के लिये दूल्हा-भाई, बड़े भाई, बड़े अब्बा कह कर आत्मीयता जताने का कोई कारण नहीं है। मुशायरों में राहत की मदद से बुलाये जाने वाले न जाने कितने दानिश, साहिल, आतिश, विश्वास, सोलंकी अनाथ हो जायेंगे मगर सपोर्टिंग पेड़ के न रहने पर न रहने पर बेलें दूसरा पेड़ ढूंढने के अतिरिक्त क्या कर सकती हैं ?


तुफ़ैल चतुर्वेदी

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