-बलबीर पुंज

गत 20 दिसंबर को हिंदी दैनिक अमर उजाला में स्तंभकार, इतिहासकार रामचंद्र गुहा का आलेख- “संघ क्या चाहता है” प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के प्रति अपने वैचारिक विरोध के समर्थन में, गांधीजी के अंतिम सचिव प्यारेलाल नैय्यर द्वारा लिखित “महात्मा गांधी: द लास्ट फेज” को आधार बनाया।

वास्तव में, प्यारेलालजी ने अपनी पुस्तक में संघ के संबंध में उन्हीं कुतर्कों को दोहराया है, जिसका उपयोग वामपंथी अपने संघ-विरोधी वक्तव्यों में अक्सर करते है। इस पृष्ठभूमि में भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में वामपंथ के योगदान को जानना आवश्यक है। परतंत्र भारत में मुस्लिम लीग को छोड़कर वामपंथियों का ही वह एकमात्र राजनीतिक कुनबा था, जो पाकिस्तान के सृजन के लिए अंग्रेजी षड्यंत्र का हिस्सा बना। 1942 के “भारत छोड़ो आंदोलन” में ब्रितानियों के लिए मुखबिरी की। गांधीजी, सुभाषचंद्र बोस आदि राष्ट्रवादी देशभक्तों को अपशब्द कहे। भारतीय स्वतंत्रता को अस्वीकार किया। 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के जिहादी रजाकरों को पूरी मदद दी। 1962 के भारत-चीन युद्ध वामपंथी संगठन वैचारिक समानता के कारण साम्यवादी चीन का साथ दिया। 1967 में वामपंथी चारू मजूमदार ने नक्सलवाद को जन्म दिया, जो आज “अर्बन नक्सलवाद” नाम से भी जाना जाता है।

बकौल प्यारेलालजी, विभाजन के बाद भारत में रुकने वाले मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा दो हिंदुओं- गांधीजी और पं.नेहरू ने की थी। क्या गांधीजी और नेहरू के जन्म से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित नहीं थे? क्या इन दोनों नेताओं के जाने के बाद खंडित भारत में मुस्लिम सहित अन्य अल्पसंख्यकों पारसी, ईसाई, सिख, जैन और बौद्ध आदि के अधिकारों में कटौती हो गई? वर्तमान भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा का श्रेय आखिर किसे जाता है? क्या इसका उत्तर- संवैधानिक प्रावधान या संविधान में 1976 को आपातकाल के दौरान जोड़े गए विदेश आयातित शब्द “सेकुलर” है?- नहीं। यह इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि भारत अनाधिकाल से “एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति” और “वसुधैव कुटुम्बकम” की वैदिक परंपरा का अनुसरण कर रहा है। संघ के विचार का मूल आधार ही यही वैदिक-दर्शन है। इसी समरसपूर्ण चिंतन के आलोक में, जब सदियों पहले हिंदू राजाओं ने यहूदियों, पारसियों, ईसाइयों के साथ इस्लामी अनुयायियों को उनकी पूजा-पद्धति और परंपराओं के साथ अंगीकार किया था- क्या तब उस समय गांधी या नेहरू थे? इस बहुलतावादी परंपरा का ह्रास तब हुआ, जब कालांतर में “काफिर-कुफ्र” और “पेगन” अवधारणा से प्रेरित मजहबी उन्मादियों ने हिंसा के माध्यम से मजहबी प्रचार-प्रसार और मतांतरण प्रारंभ किया। इसके परिणामस्वरूप ही भारत का विभाजन हुआ।

प्यारेलाल लिखते हैं, “आरएसएस का घोषित लक्ष्य हिंदू राज की स्थापना करना है। उनका नारा है, मुस्लिमों भारत छोड़ो।” यह लांछन आधारहीन है। कई अवसरों पर संघ स्पष्ट कर चुका है कि इस भूखंड में जन्मा प्रत्येक व्यक्ति- जिनका विचार, मजहब और पूजा-पद्धति अलग हो सकता है, वह सभी भारत-माता की संतान है। पिछले 73 वर्षों से संघ का जनाधार निरंतर बढ़ रहा है। इस कालखंड में कितने मुस्लिम नागरिकों को खंडित भारत से निकाला गया? प्रतिकूल इसके, 1980-90 के दशक में शेष भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर में जिहादियों ने इस्लाम के नाम पर लाखों “काफिर” हिंदुओं-सिखों को घाटी से पलायन हेतु विवश कर दिया था।

सच तो यह है कि भारत अनादिकाल से हिंदू राष्ट्र (हिंदू राज्य नहीं) रहा है। देश के इसी चरित्र के कारण यहां पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्र और बहुलतावाद अब भी अक्षुण्ण है। पिछले 1,400 वर्षों में जहां-जहां भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र में उसकी मूल हिंदूवादी-चरित्र पर हमला हुआ और एकेश्वरवादी मजहब के विस्तार में हिंदुओं की आबादी कम हुई- वहां-वहां बहुलतावाद, लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता जैसे जीवनमूल्यों का पतन हो गया। इस्लामी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर- इसके हालिया प्रमाण है। खंडित भारत के हिंदू-चरित्र की झलक गांधीजी के रामधुन के साथ संविधान की मूल प्रति में उकेरी गई श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, श्रीकृष्ण, नटराज शिवजी, महाभारतकालीन, गुरुकुल और वैदिक चित्रकारी में भी मिलती है।

गुहा ने “संघ पर गांधीजी के विचार” संबंधी प्यारेलालजी की पंक्तियों को उद्धित किया है। आरएसएस गांधीजी को महापुरुष और भारत-माता के सच्चे सपूतों में से एक मानता है। परंतु स्मरण रहे कि गांधीजी भगवान नहीं थे। देशसेवा करते हुए उन्होंने कुछ विवादास्पद निर्णय लिए थे। वर्ष 1919-24 के कालखंड में गांधीजी ने मजहबी खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व किया था। बापू के इस निर्णय से देश में पहले से व्याप्त मुस्लिम अलगाववाद मजबूत हुआ, जिसका बीजारोपण सर सैयद अहमद खां के “दो राष्ट्र सिद्धांत” ने किया था। गांधीजी के इस अव्यावहारिक फैसले का दंश भारत आजतक भुगत रहा है।

इसी तरह, गांधीजी ने भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी से बचाने हेतु अपने प्रभाव का उपयोग नहीं किया था। तब उन्हें भारी जनआक्रोश का सामना करना पड़ा था। 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में शामिल होने जा रहे गांधीजी को लोगों के क्रोध से बचने हेतु 15 मील पीछे मालिर स्टेशन पर उतरना पड़ा था। तब “गांधी तुम वापस जाओ” के नारे लग रहे थे। भारतीय समाज का एक वर्ग से आज भी इससे नाराज़ है।

दशकों से संघ अपने प्रातः:स्मरण में गांधीजी का नाम अन्य सपूतों के साथ आदरभाव से ले रहा है। फिर भी गुहा ने अपने आलेख में संघ पर गांधीजी की हत्या का आरोप दोहरा दिया। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर गांधीजी की हत्या की थी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू भी गुहा और प्यारेलाल की भांति संघ के प्रति घृणा-भाव रखते थे। उन्होंने आरएसएस को प्रतिबंधित करके उसके हजारों स्वयंसेवकों को जेल में ठूस दिया। न तो आरोपपत्र में संघ का नाम था और न ही अदालती कार्यवाही में।

गुहा द्वारा इन तथ्यों की अवहेलना करके उन्हीं निराधार आरोपों को दोहराना- भारतीय न्यायिक व्यवस्था और संविधान में उनके अविश्वास को प्रत्यक्ष करता है। गोडसे, हिंदू-महासभा का घोषित सक्रिय सदस्य था। आश्चर्य था कि पं.नेहरू ने हिंदू महासभा के बजाय संघ के खिलाफ कार्रवाई कर दी थी। दिलचस्प बात तो यह है कि गुहा ने भी गोडसे के हिंदू महासभा के साथ घनिष्ठ संबंध होने का कोई उल्लेख नहीं किया।

वास्तव में, गुहा जैसे लोग अपने वैचारिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु तथ्यों के साथ खिलवाड़ करते है, जिनके उपदेश और आचरण में भारी विरोधाभास होता है। गांधीजी का बहुलतावादी सनातन संस्कृति और परंपरा में गहरा विश्वास था, इसलिए उनके मुख पर राम का नाम, तो संकल्प में गौरक्षा भी था। किंतु गुहा, जो स्वयं को गांधीजी का मानसपुत्र बताते है- वे सार्वजनिक रूप से गौमांस का सेवन करके गौरवान्वित अनुभव करते है। गुहा 7 दिसंबर 2018 को इसी तरह गौमांस का “आनंद” उठाते हुए एक छायाचित्र ट्विटर पर भी डाल चुके है, जिसे उन्होंने विवाद बढ़ने के बाद हटा दिया।

लेख में आरएसएस पर भारतीय जनमानस में वैचारिक “घुसपैठ” का आरोप लगाया गया है। संघ- एक विचार और संगठन है। आदर्श बहुलतावादी समाज में अपनी बात रखने का अधिकार संघ को भी उतना है, जितना अन्यों को है। “घुसपैठ” का आरोप उनपर लगना चाहिए, जो बाहरी है और जिनका उद्गमस्थल विदेश है। भारत के संदर्भ में वास्तविक “घुसपैठिए” तो वामपंथी विचारधारा, जिहादी दर्शन और थॉमस बैबिंगटन मैकाले द्वारा प्रतिपादित जीवनमूल्य है।

संघ पर “घुसपैठ” का आरोप लगाने वालों के चिंतन का स्रोत क्या है? वास्तव में, गुहा और उनके जैसे बहुतेरे मानसबंधुओं (प्यारेलाल सहित) में एक “Entitlement” की भावना है। अर्थात्- ईश्वर ने उन्हें ही विशेष बुद्धि प्रदान की है, जिससे वे यह सुनिश्चित कर सकते है कि शेष जनमानस को किस तरह सोचना चाहिए और उन्हे कैसा व्यवहार करना चाहिए। एक बहुलतावादी और लोकतांत्रिक समाज में विचारों की प्रासंगिकता और समयसीमा- उनकी उपयोगिकता और जन-स्वीकारिता से निर्धारित होती है। लोग अपने अनुभवों के आलोक में विचारों को स्वीकार या निरस्त करते है। आज संघ के बढ़ते हुए जनाधार को उसी व्यवहारिक चश्मे से देखना चाहिए।

सच तो यह है कि संघ अपने व्यवहार में गांधी चिंतन के कहीं अधिक निकट खड़ा नजर आता है। भारत-चीन युद्ध के समय पं.नेहरू को अपनी गलती का अनुभव हो गया था। जब वामपंथी वैचारिक समानता के कारण चीन का साथ दे रहे थे, तब संघ के हजारों स्वयंसेवक सीमा पर जवानों तक आवश्यक (खाद्य सहित) वस्तुएं पहुंचाकर राष्ट्रसेवा कर रहे थे। तब पं.नेहरू ने 1963 के गणतंत्र दिवस में शामिल होने के लिए स्वयं संघ को निमंत्रण भेजकर पश्चाताप किया था। क्या भविष्य में कभी गुहा अपने आदर्श नेता पं.नेहरू की भांति “संघ-फोबिया” से कभी बाहर निकलेंगे?

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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