‘भाल अनल धक-धककर जला

भस्म हो गया था काल

अभय हो गये थे तुम

मृत्युन्जय व्योमकेश के समान, अमृत सन्तान।’

सिन्धु -नद के तीर वासियों को व्योमकेश कहती; काल को भी जला दें, ऐसे श्रेष्ठ जनों के उद्गीत करती ये पंक्तियाँ किसकी हैं ? किसने इस भूमि के अमृत-पुत्रों का यश-गान किया?

वे ही निराला, जिन्हें कुछ आलोचक जबरन वामपंथी विचारधारा के लौह-चौखटे में कैद करना चाहते हैं. वे ही निराला जिनकी कविताओं में थोथा सेक्युलरिज्म खोजने के लिए कभी ‘राम की शक्ति-पूजा’ तो कभी ‘तुलसीदास’ कविता की मनमानी व्याख्या द्वारा ऊँट के गले में बिल्ली बाँधने जैसा कार्य किया जाता है.
किन्तु ये आलोचक इसमें सफल नहीं हो पाते.

सिद्ध है कि निराला पर बंकिमचन्द्र और स्वामी विवेकानंद जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का प्रभाव था. शम्भुनाथ अपनी ‘संस्कृति की उत्तरकथा’ में स्वीकारते भी हैं कि निराला वेदांती थे. तब फिर वेदांत से ओत-प्रोत उनका यह अध्यात्मिक बोध विचारधारा की चौहद्दियों को तोड़-ताड़कर मुक़द्दस उद्वेलन करें तो क्या आश्चर्य?

यही उद्वेलन उनके काव्य की भावभूमि में अध्यात्म-बोध व जातीय -गौरव का मणि-कांचन योग बनकर शाया हो तो क्या अचंभा?
विवेच्य कविता ‘जागो फिर एक बार’ में भी ये योग अपने पूरे स्तर से आया है। ये कविता भी उन्हीं भावों की एक शृंखला है.

इस कविता का प्रथमांश यदि पेशलता का प्रतिनिधि है तो द्वितीय अंश सांस्कृतिक चेतना का निकष.
इसके माध्यम से निराला प्रथम तो मृदुल भाषा में जाग्रति लाने का यत्न करते हैं. देश की सुप्त तरुणाई के समक्ष तरह-तरह के उपमान प्रस्तुत करते हैं. कभी कलियों में ‘मधुर मद-उर यौवन उभार’ आने का संकेत देते हैं तो कभी ‘अरुणाचल में रवि’ के उगने की सूचना. कभी ‘प्रकृति पट क्षण-क्षण में परिवर्तित’ होने की आवाज लगाते हैं तो कभी ‘तारों के भी थक-हार’ जाने का दुःख. किन्तु अर्जुन बनी इस देश की तरुणाई अलसाई हुई है. हेलुसिनेशन का शिकार है. न तो उसे आत्मचेतना है और न ही राष्ट्र चेतना. तब फिर वह कैसे जगे?

संभवत इसीलिए महाप्राण को श्रीकृष्ण बनकर पुनः जागरण महानाद करना पडा. किन्तु इस बार वे मृदु-पेलव शब्दों में ‘पियु-रव पपिहों’ के साथ ‘सेज सजी विरह विदग्धा वधु’ के बजाय इस देश के संघर्षी अतीत का गान करती ओज-पूर्ण शब्दावली का प्रयोग करते हैं. वे इस देश की उज्ज्वल परम्परा जिसे यदि सनातन परम्परा कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, का गान करते है. वे कहते हैं –

‘सवा-सवा लाख पर एक को चढाऊंगा
गोविन्द सिंह निज नाम जब कहाऊंगा’

और फिर स्वयं ही पूछते हैं- “किसने सुनाया यह वीर-जन-मोहन अति दुर्जय संग्राम-राग? किसने देश रक्षार्थ अराति मुगलों से रक्त का फाग खेला था?

किसने सुनाया था, उन्हीं दशम गुरु ने, जिन्होंने मुगलों के अत्याचार से सतत संघर्ष करते हुए ‘जगे धर्म हिन्दू सकल भंड भाजे’ की घोषणा की; जिन्होंने स्वधर्म रक्षार्थ अपने चारों पुत्रों को वार दिया. वे ही गुरु जिन्होंने ‘चंडी-चरित’ जैसा काव्य सिरजकर शौर्य का महत्व रेखांकित किया.

निराला यहीं तक नहीं रुकते. आगे वे विश्व-वन्दित श्रीमद्भाग्वदगीता का सार एक वाक्य में प्रस्तुत करते है :-

‘योग्य जन जीता है
पश्चिम की उक्ति नहीं-
गीता है गीता है’

कर्म-सन्देश देती; शौर्य का भाव जगाती यह उद्घोषणा क्या निराला के सनातन-भाव को प्रस्तुत नहीं करती? क्या इन पंक्तियों में उनका हिंदुत्व नहीं झलकता? यदि नहीं तो आगे की ये पंक्तियाँ-

‘महामंत्र ऋषियों का
अणुओं- परमाणुओं में फूंका हुआ-
तुम हो महान, तुम सदा महान हो  ब्रह्म हो तुम’

क्या संकेत देती है? कौन हैं वे ऋषि जिन्होंने अणुओं- परमाणुओं में महानता का मन्त्र फूंका? किन ऋषियों से निराला स्वयं को जोड़ रहे हैं? ये अरब- तुर्क- शक- हूण तो कतई नहीं है.

ये तो सनातन के केतुवाहक वे ऋषि हैं, जिन्होंने ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का महान उद्घोष किया. जिन्होंने शाश्वत वेदों को जाना. और ‘तत्त्वमसि’ का मन्त्र देकर विविधता की पहचान की. जिन्होंने ‘अमृतस्य पुत्रा वयं’ का उद्घोष करके ज्ञानाधारित सभ्यता रची.
निराला इन्हीं से अपने आप को और इस देश की सोई चेतना को संपृक्त कर रहे हैं.

सारांश में कहे तो प्रस्तुत कविता का एकैक अंश सनातन के महात्म्य का उजला संकीर्तन हैं. प्रत्येक आख्यान जातीय गौरव का उद्बोधक है.

~दिनेश सूत्रधार

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