शत्-शत् नमन 10 नवम्बर/बलिदान-दिवस, अमर हुतात्मा भाई मतिदास, सतिदास एवं दयाला ।

गुरु तेगबहादुर के पास जब कश्मीर से हिन्दू औरंगजेब के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करने आये, तो वे उससे मिलने दिल्ली चल दिये। मार्ग में आगरा में ही उनके साथ भाई मतिदास, भाई सतिदास तथा भाई दयाला को बन्दी बना लिया गया। इनमें से पहले दो सगे भाई (सारस्वत ब्राह्मण) थे।

औरंगजेब चाहता था कि गुरुजी मुसलमान बन जायें। उन्हें डराने के लिए इन तीनों को तड़पा-तड़पा कर मारा गया, पर गुरुजी विचलित नहीं हुए। औरंगजेब ने सबसे पहले 9 नवम्बर, 1675 को भाई मतिदास को आरे से दो भागों में चीरने को कहा। लकड़ी के दो बड़े तख्तों में जकड़कर उनके सिर पर आरा चलाया जाने लगा। जब आरा दो तीन इंच तक सिर में धंस गया, तो काजी ने उनसे कहा – मतिदास, अब भी इस्लाम स्वीकार कर ले। शाही जर्राह तेरे घाव ठीक कर देगा। तुझे दरबार में ऊँचा पद दिया जाएगा और तेरी पाँच शादियाँ कर दी जायेंगी।

भाई मतिदास ने व्यंग्यपूर्वक पूछा – काजी, यदि मैं इस्लाम मान लूँ, तो क्या मेरी कभी मृत्यु नहीं होगी ? काजी ने कहा कि यह कैसे सम्भव है। जो धरती पर आया है, उसे मरना तो है ही। भाई जी ने हँसकर कहा – यदि तुम्हारा इस्लाम मजहब मुझे मौत से नहीं बचा सकता, तो फिर मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म में रहकर ही मृत्यु का वरण क्यों न करूँ ?

उन्होंने जल्लाद से कहा कि अपना आरा तेज चलाओ, जिससे मैं शीघ्र अपने प्रभु के धाम पहुँच सकूँ। यह कहकर वे ठहाका मार कर हँसने लगे। काजी ने कहा कि वह मृत्यु के भय पागल हो गया है। भाई जी ने कहा – मैं डरा नहीं हूँ। मुझे प्रसन्नता है कि मैं धर्म पर स्थिर हूँ। जो धर्म पर अडिग रहता है, उसके मुख पर लाली रहती है, पर जो धर्म से विमुख हो जाता है, उसका मुँह काला हो जाता है। कुछ ही देर में उनके शरीर के दो टुकड़े हो गये।

अगले दिन 10 नवम्बर को उनके छोटे भाई सतिदास को रुई में लपेटकर जला दिया गया। भाई दयाला को पानी में उबालकर मारा गया। 11 नवम्बर को चाँदनी चौक में गुरु तेगबहादुर का भी शीश काट दिया गया।

ग्राम करयाला, जिला झेलम (वर्त्तमान पाकिस्तान) निवासी भाई मतिदास एवं सतिदास (सारस्वत ब्राह्मण पुत्र) के पूर्वजों का सिख इतिहास में विशेष स्थान है। उनके परदादा भाई परागा जी छठे गुरु हरगोविन्द के सेनापति थे। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध युद्ध में ही अपने प्राण त्यागे थे। उनके समर्पण को देखकर गुरुओं ने उनके परिवार को ‘भाई’ की उपाधि दी थी। भाई मतिदास के एकमात्र पुत्र मुकुन्द राय का भी चमकौर के युद्ध में बलिदान हुआ था।

भाई मतिदास के भतीजे साहबचन्द और धर्मचन्द गुरु गोविन्दसिंह के दीवान थे। साहबचन्द ने व्यास नदी पर हुए युद्ध में तथा उनके पुत्र गुरुबख्श सिंह ने अहमदशाह अब्दाली के अमृतसर में हरिमन्दिर पर हुए हमले के समय उसकी रक्षार्थ प्राण दिये थे। इसी वंश के क्रान्तिकारी भाई बालमुकुन्द ने 8 मई, 1915 को केवल 26 वर्ष की आयु में फाँसी पायी थी। उनकी साध्वी पत्नी रामरखी ने पति की फाँसी के समय घर पर ही देह त्याग दी।

लाहौर में भगतसिंह आदि सैकड़ों क्रान्तिकारियों को प्रेरणा देने वाले भाई परमानन्द भी इसी वंश के तेजस्वी नक्षत्र थे। किसी ने ठीक ही कहा है –

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत
पुरजा-पुरजा कट मरे, तऊँ न छाड़त खेत।।

आज के परिवेश में भाई मतिदास सतीदास और दयाला जी का बलिदान याद रखे…9, 10 नवम्बर / बलिदान दिवस – अमर हुतात्मा भाई मतिदास, सतिदास एवं दयालाब्रह्मण सदा-सर्वदा से तत्व के उपासक रहें हैं, सर्वदा ईशवरीय एवं शिव तत्त्व के उपासक , आत्म ज्ञान के उपासक और मृत्यु के डर से रहीत ब्रह्मण ( ब्रह्म वंशी) ब्रह्मण =शास्त्र + शस्त्रपरन्तु कालान्तर में ज्ञानमात्र कि उपसना और शस्त्र त्याग के कारण क्षत्रिय समाज पर निर्भरता हुई, विकट परिस्तितियों में निर्भरता के कारण, न केवळ ब्राह्मण समाज अपितु समस्थ हिन्दु समाज का ह्रास हुवाकालांतर में ब्रह्मण समाज नें शस्त्र उठा लिए ,वो चाहे मराठा साम्राज्य हो या उत्तर भारत में सिख साम्राज्य , ब्राह्मणों नें प्रथम श्रेणी में रहकर पराक्रम का परिचय दीया Iजब ब्रह्मण शस्त्र वहिन था , तो भी साहस में कोई कमी न थी , शस्त्र वहिन ब्राह्मण समाज कि कुबानियो भी लम्बी गाथा है , हम शस्त्रधरी ब्राह्मण समाज कुबानियो चर्चा फिर क़भी करेंगे आज शस्त्रवहिन शाहिद पण्डित मति दास सती दास और दयाल दास जी की शहादत को नमन करते हैं Iविशेष श्रोमणि , पण्डित मति दास दयाल दास औऱ सती दास जी नें , सर्वोच्च बलिदान दीया हिन्दु सिख भाईचारे दे दुश्मन , प्रचारित करते है , कि गुरु तेग बहादुर जी हिन्दु धर्म के लिये विशेषतः के लिए बलिदान दीया , उन मुर्खो के लिये पण्डित मति दास दयाल दास औऱ सती दास जी का बलिदान मुँह पर करारा तमाचा है , क्योकि हिन्दु सिख बेशक अलग-अलग पूजाविधि औऱ रीतिरिवाज़ों के कारण एकदूसरे से निराले है , परन्तु मूल औऱ पूर्वजों कि बात करें दोनों का सांझा मांझी औऱ डीएनए रहा है , कुछ लोग राजनीती करते समय गुरुवः के पवन पवित्र बलिदान को हिन्दु सिख कर अपनी तुछ औऱ संकीर्ण बुद्धि का बौद्ध करवा देते है जब बलिदान कि बेला आयी तो ब्रह्मण वीरो नें गुरु जी पहले अग्रदूत बन बलिदान दीया गुरु जी औऱ ब्रह्मण वीरो का बलिदान मानवता के लिया मिसाल थी , कि अगर धर्म कि हानि को रोकने के लिया जान भी देनी पड़े तो पीछे नहीं हटना यह अहिंसायक बलिदान आने वाले सिख समाज सर्जन के निमित बना , जिस पंथ के निर्णाम में हिन्दु समाज नें अपना प्रथम पुत्र को धर्म-रक्षा हेतु गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह बने गुरु संग क़ुर्बान होने के लिया भेजा गुरु तेगबहादुर के पास जब कश्मीर से हिन्दू, औरंगजेब के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करने आये, तो वे उससे मिलने दिल्ली चल दिये. मार्ग में आगरा में ही उनके साथ भाई मतिदास, भाई सतिदास तथा भाई दयाला को बन्दी बना लिया गया. इनमें से पहले दो सगे भाई थे. औरंगजेब चाहता था कि गुरुजी मुसलमान बन जायें. उन्हें डराने के लिए इन तीनों को तड़पा-तड़पा कर मारा गया, पर गुरुजी विचलित नहीं हुए. औरंगजेब ने सबसे पहले 9 नवम्बर, 1675 को भाई मतिदास को आरे से दो भागों में चीरने को कहा. लकड़ी के दो बड़े तख्तों में जकड़कर उनके सिर पर आरा चलाया जाने लगा. जब आरा दो तीन इंच तक सिर में धंस गया, तो काजी ने उनसे कहा – मतिदास, अब भी इस्लाम स्वीकार कर ले. शाही जर्राह तेरे घाव ठीक कर देगा. तुझे दरबार में ऊंचा पद दिया जाएगा और तेरी पांच शादियां कर दी जाएंगी.भाई मतिदास ने व्यंग्यपूर्वक पूछा – काजी, यदि मैं इस्लाम मान लूं, तो क्या मेरी कभी मृत्यु नहीं होगी ? काजी ने कहा कि यह कैसे सम्भव है. जो धरती पर आया है, उसे मरना तो है ही. भाई जी ने हंसकर कहा – यदि तुम्हारा इस्लाम मजहब मुझे मौत से नहीं बचा सकता, तो फिर मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म में रहकर ही मृत्यु का वरण क्यों न करूँ ? उन्होंने जल्लाद से कहा कि अपना आरा तेज चलाओ, जिससे मैं शीघ्र अपने प्रभु के धाम पहुंच सकूँ. यह कहकर वे ठहाका मार कर हंसने लगे. काजी ने कहा कि वह मृत्यु के भय से पागल हो गया है. भाई जी ने कहा – मैं डरा नहीं हूँ. मुझे प्रसन्नता है कि मैं धर्म पर स्थिर हूँ. जो धर्म पर अडिग रहता है, उसके मुख पर लाली रहती है, पर जो धर्म से विमुख हो जाता है, उसका मुंह काला हो जाता है. कुछ ही देर में उनके शरीर के दो टुकड़े हो गये.अगले दिन 10 नवम्बर को उनके छोटे भाई सतिदास को रुई में लपेटकर जला दिया गया. भाई दयाला को पानी में उबालकर मारा गया. 11 नवम्बर को चाँदनी चौक में गुरु तेगबहादुर का भी शीश काट दिया गया. ग्राम करयाला, जिला झेलम (वर्त्तमान पाकिस्तान) निवासी भाई मतिदास एवं सतिदास के पूर्वजों का सिख इतिहास में विशेष स्थान है. उनके परदादा भाई परागा जी छठे गुरु हरगोविन्द के सेनापति थे. उन्होंने मुगलों के विरुद्ध युद्ध में ही अपने प्राण त्यागे थे. उनके समर्पण को देखकर गुरुओं ने उनके परिवार को ‘भाई’ की उपाधि दी थी. भाई मतिदास के एकमात्र पुत्र मुकुन्द राय का भी चमकौर के युद्ध में बलिदान हुआ था.भाई मतिदास के भतीजे साहबचन्द और धर्मचन्द गुरु गोविन्द सिंह के दीवान थे. साहबचन्द ने व्यास नदी पर हुए युद्ध में तथा उनके पुत्र गुरुबख्श सिंह ने अहमदशाह अब्दाली के अमृतसर में हरिमन्दिर पर हुए हमले के समय उसकी रक्षार्थ प्राण दिये थे. इसी वंश के क्रान्तिकारी भाई बालमुकुन्द ने 8 मई, 1915 को केवल 26 वर्ष की आयु में फांसी पायी थी. उनकी साध्वी पत्नी रामरखी ने पति की फांसी के समय घर पर ही देह त्याग दी. लाहौर में भगतसिंह आदि सैकड़ों क्रान्तिकारियों को प्रेरणा देने वाले भाई परमानन्द भी इसी वंश के तेजस्वी नक्षत्र थे. ठीक ही कहा है –सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेतपुरजा-पुरजा कट मरे, कबहूं न छाड़े खेतअब आप से प्रश्न धर्म के लिए प्राणों की आहुति देने वाले भाई मतिदास , सतीदास और दयालदास जी का बलिदान हमें क्यों नहीं पढाया जाता ?


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