अपने पिछले ब्लॉग में मैंने आपको वामपंथी इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों के ब्रम्हास्त्र एकलव्य से मिलवाया, आज उनके एक और अस्त्र की बात करते हैं, मामला जब रामायण या रामचरितमानस का हो तो वामपंथी इन्हें सिरे से काल्पनिक बताकर खारिज कर देते हैं, पर जैसे ही आप ये सिद्ध करने में सफल होने लगेंगे की भारत की प्राचीन सभ्यता भेदभाव रहित थी वो शबरी नाम का अस्त्र आप पर चला देंगे, शबरी के जुठे बेर लक्षमण ने नही खाये ये कहकर वो मुद्दा इसे बना देंगे कि लक्षमण घोर जातिवादी थे, शबरी की बेर वाली कथा हम बचपन से सुनते पढ़ते और अनेक धारावाहिकों के माध्यम से देखते आ रहे हैं, पर क्या सच में लक्ष्मण जातिवादी थे? क्या उन्होंने शबरी के बेर खाने से इनकार किया था? हर बार की तरह आइये पहले इस पात्र से आपका परिचय करवाया जाये।
शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था, जो भील समुदाय के शबर समाज का हिस्सा थी, उनके पिता उस समय भीलों के राजा थे, हर प्रकार से सम्पन्न इस भीलपुत्री का विवाह तय हुआ तो उनकी परंपरा के अनुसार बली चढ़ाने के लिए बहुत से पशु लाये गए, श्रमणा (शबरी) ने अपने पिता से इतनी संख्या में लाये गए पशुओं के विषय मे जब पूछा तो उन्होंने बताया कि राजकुमारी के विवाह में पशु बलि की परंपरा है, जिसे सुनकर श्रमणा को भारी दुख हुआ और उसने अपने पिता का घर त्याग दिया, वो वन में रहने वाले ऋषियों की सेवा करने लगी, जिस आश्रम में उसने शरण ली वो महर्षि मतंग का आश्रम था, महर्षि मतंग का अंत समय आया तो उन्होंने शबरी को कहा कि भगवान तुम्हारे घर आएंगे अतः तुम आश्रम की रखवाली करना, महर्षि मतंग के देहावसान के पश्चात शबरी उस आश्रम को रोज़ लिपाई पुताई करके साफ सुथरा रखती थी, भगवान के लिए नित्य ताज़े फल लाना और उनकी प्रतीक्षा करना ही अब शबरी की दिनचर्या थी। आखिर वो दिन आया जब भगवान श्रीराम माता सीता की खोज करते शबरी के आश्रम आये, भगवान की हर प्रकार सेवा कर शबरी ने उन्हें ताज़े फल खाने को दिए जिसे भगवान श्रीराम और लक्ष्मण दोनो ने बड़े प्रेम पूर्वक खाया, रामचरितमानस में इस घटना का उल्लेख है,
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥34॥
उपरोक्त दोहा श्रीरामचरितमानस के अरण्यकांड से लिया गया इसके विषय मे अधिक जानकारी के लिए आप रामचरितमानस को पढ़िए, उसमे कहीं बेर का ज़िक्र नही है, इतना ही नही महृषि वाल्मीकि ने रामायण में भी कहीं ये नही लिखा कि लक्षमण ने शबरी के तथाकथित जुठे फल खाने से मना किया। अब प्रश्न आता है कि, फिर ये जुठे बेर वाला प्रसंग आया कहाँ से?
18 वीं शताब्दी में एक महान कवि हुए जिनका नाम था “प्रियदास”, उनके लिखे कई काव्यों में से एक मे इस घटना को मार्मिक रूप से लिखा गया, सन 1952 में प्रथम बार इस काव्य को गीताप्रेस की मशहूर पत्रिका “कल्याण” में इसे छापा गया, इसके मार्मिक लेखन के कारण यह कविता बड़ी प्रसिद्ध हुई और इस मार्मिक प्रसंग को रामलीला में अपना लिया गया, बाद में रामानंद सागर द्वारा निर्मित रामायण में भी इसे दिखाया गया।
भगवान श्रीराम के चरित्र पर उंगली उठाने का अर्थ मुसीबत मोल लेना था अतः वामपंथियों ने लक्ष्मण को अपना शिकार बनाया, उन्होंने इस प्रसंग को सामाजिक अस्पृश्यता की थाली में परोसकर भारी भरकम डिबेट करना आरंभ किया, बिना हिचकिचाहट इसका उदाहरण देकर तालियां बजवाई, मूर्ख हिंदुओं ने कभी अपनी पुस्तक उठाकर इस प्रसंग को नही खोजा और पता होने पर भी संकोचवश प्रतिउत्तर नही दिया, नतीजा आपके सामने है।
आज की पीढ़ी से यदि आप शबरी के विषय मे पूछें तो या तो उन्हें पता ही नही होगा और पता होगा तो वे आपको वही कहानी सुनाएंगे जो वामपंथीयों से सुनी होगी, अब यहां हमारा उत्तरदायित्व है कि हम अपने अग्रजों को सत्य बतायें, क्यों राम राज की कल्पना की जाती है, उसका उद्देष्य क्या है, उसके मायने क्या हैं और वास्तविक इतिहास क्या है उन्हें बतायें ताकि वो भ्रमित न हों, इस महान ऐतिहासिक विरासत, हमारे धर्म और संस्कृति की रक्षा करना हमारा और हमारी पीढ़ियों के कर्तव्य है, आइये शत्रुओं के हर षड्यंत्र का अंत करें, आइये सच्चा इतिहास पढ़ें।।
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