वामपंथ एक ऐसी प्रवृत्ति और बड़ी सात्विक सोच है कि इसके आधार पर अगर समाज चले तो समाज में यकीनन सुख शांति दिखेगी। साम्यवाद वास्तव में कुछ ऐसे मूलभूत प्रश्न उठाता है जिसका उत्तर न पहले था, न आज है और न आगे होगा परंतु ये प्रश्न हर जरूरतमंद गरीब, पिछड़े ,दलित और बेरोजगार को आकर्षित करता है दूसरी ओर हर समर्थ और सम्पन्न व्यक्ति और समुदाय को एक अवसर की तरह दिखता है। जो सत्ता विरोधी हैं वे इस असंतुष्ट धड़े को लेकर सरकार के खिलाफ एक मोर्चाबंदी बनाते हैं और जो समर्थ और सम्पन्न हैं वे इस मोर्चाबंदी का अपने हक में उपयोग लेकर सत्ता को मोम की नाक बना देते हैं।
आज की चर्चा रोजगार के अवसर और उसे उत्पन्न करने की किसी भी सत्ता की क्षमता ,दायित्व और संभावना पर केन्द्रित होगी।
ये तोआप सबको पता है कि सरकार रोजगार उत्पन्न नहीं कर सकती है और करेगी तो बस इतना कि ऐसा उचित वातावरण तैयार कर लिया जाए जिसमें लोग निडर होकर अपना व्यवसाय, नौकरी , किसानी या हस्तशिल्प का काम कर सकें।
अगर सरकार को राजा की तरह मान लिया जाए तो जैसे राजा के दरबार में दरबारी होते थे या प्रशासनिक अधिकारी होते थे उस तरह के नियोजन तो संभव हैं परन्तु ये सब वर्तमान परिस्थितियों में प्रतियोगिता परीक्षाओं के अधीन होते हैं । प्रतियोगिता परीक्षाएँ अवसर , ज्ञान और भाग्य के तिकड़ी के एक साथ एक्टिवेट होने पर नौकरी नाम का रत्न में उपलब्ध करवा सकती है। इस प्रक्रिया में अभ्यर्थी अपने ज्ञान को हथियार बनाकर उचित अवसर मिलने पर और भाग्य के प्रबल होने पर राजकीय शिकंजी में फंसी नौकरी को छीनते हैं, कभी भी कोई सत्ता उपलब्ध नहीं करवाती है।
सरकार तात्कालिक रूप से या सब्सिडाइज रेट पर खाद्यान्न उपलब्ध करवा सकती है, अकाल , बाढ़ और भूकंप आदि होने पर अस्थायी शरण स्थली का निर्माण कर सकती है , या अर्ध बेरोजगारी की स्थिति में मनरेगा जैसे कार्यक्रम चलाकर कुछ दिनों के लिए रोजगार दे सकती है परंतु उस कालखंड में पढ़कर निकले हुए सारे शिक्षितों के लिए उनकी योग्यता अनुसार रोजगार का सर्जन किसी भी सरकार के बूते में नहीं है।
साम्यवाद या वामपंथी इसी मुद्दे को जोर शोर से उठाते हैं जिसके चक्कर में बेरोजगार , दलित पिछड़े जरूरतमंद फँस जाते हैं और उन्हें लगता है कि अगर ऐसी विचार धारा रखने वाली राजनीतिक पार्टी सत्ता में होती तो हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी मिल जाती । यही वजह है कि जहां भी असंतोष होता है वहीं पर साम्यवादी दलों का हर छोटा बड़ा लीडर एक्टिव हो जाता है। असंतुष्ट युवा शक्ति आंख मूँदे इन लोगों का अनुकरण और अनुसरण करना प्रारंभ कर देती है। उस समय सत्ता का काम इस विप्लव को दबाना होता है क्योंकि सत्ता हर असन्तुष्ट को नौकरी तो उपलब्ध करवा नहीं सकती है। और जैसे ही सत्ता ने डंडे बरसाए , साम्यवादी दलों की भाषा में वह सत्ता निरंकुश, फासीवादी ,अधिनायकवादी ,मनुवादी ,ब्राह्मणवादी आदि बन जाती है। एक बड़ा जरूरतमंद तबका इन लोगों का समर्थन करना शुरू कर देता है।
अब थोड़ा साम्यवादी शासन में रहे राज्यों के बारे में विचार करते हैं। केरल में वामपंथी शासन कई सालों तक रहा है परंतु क्या अन्य राज्यों में इस असंतोष को भड़काने वाले इस विचारधारा वाले दल के शासन काल में क्या हर उत्तीर्ण ग्रेजुएट को सरकारी नौकरी मिली और अगर मिली तो केरल के निवासी भारत और विश्व के विभिन्न भागों ( खास कर खाड़ी देशों में ) में सरकारी और निजी प्रतिष्ठानों में नर्स शिक्षक और ट्रेनर के रूप में क्यों काम कर रहे हैं। और विदेशों में भी खासकर गल्फ कंट्रीज में केरल के इतने लोग हैं कि केरल पर जब संकट आया तो उन देशों से काफी सहायता राशि भी आई। मतलब केरल में वामपंथी शासन है लेकिन हर हाथ को यदि रोजगार है तो अपने स्किल के बूते पर अपने मेहनत के बूते पर अपने ज्ञान के बूते पर ना कि सरकार के रोजगार के अवसर उत्पादित के कारण। और एक खास बात कि केरल में एक तरह से भारत के अन्य राज्योंके निवासियों के लिये अवसर नगण्य हैं। सारे अवसर सिर्फ़ क्षेत्रीय लोगोंके लिये आरक्षित है जबकि यहाँकेलोग कहीं भी जा सकते हैं। है ना गज़ब की रोजगार के अवसर का उत्पादन?
अब त्रिपुरा के बारे में सोचें … वहां भी लगभग 15 साल वामपंथी शासन रहा। और वहां भी अगर हर हाथ को रोजगार होता तो भाजपाको मौका क्यों जनता देती।उसी प्रकार बंगाल दो तीन दशकों तक साम्यवादियों का गढ़ रहा और नक्सलबाड़ी भी वहीं है। उस हिसाब से तो वहां बेरोजगारी होनी ही नहीं चाहिए थी ( तीस साल अगर ठीक से रोजगार के अवसर सरकार जुटा दे तो एक सदी तक आबादी सम्पन्न हींरहेगी परंतु अगर ऐसा होता हर हाथ को काम होता , हर पेट को रोटी होती वह भी सरकार के नियोजन के कारण तो कम से कम ममता बनर्जी को तो सत्ता में आने का मौका ही नहीं मिलता और भाजपा की सीट भी इतनी ज्यादा ना होती।
जिस एमएसपी और किसानों के लिए सब्सिडी की बात पर वामपन्थी आंदोलन करते रहते हैं उन्हीं के राज्य में सिंगुर में उठा हुआ आंदोलन यह बताने के लिए काफी है कि किसानों की हालत क्या रही होगी । केरल बंगाल या त्रिपुरा में लेखक ने अभी तक किसी प्रकार के एमएसपी की बात नहीं सुनी है।
तो रोजगार के अवसर ना मुहैया कराने की सरकारी विफलता को मुद्दा बनाकर आंदोलन चलाने और अपनी जड़ें मजबूत करने का मौका यह साम्यवाद कभी नहीं छोड़ता है जबकि स्वशासित राज्यों में ऐसा कुछ भी उल्लेखनीय नहीं करता है क्योंकि अगर यह वामपंथी धड़ा अपने शासित राज्यों में इतनी कल्याणकारी योजनाएँ चलाएँ तो यकीनन कोई न कोई जनहित याचिका डालकर कोर्ट के माध्यम से अन्य राज्यों की सरकारों को भी ऐसे प्रोग्राम चलाने के लिए बाध्य कर सकता है और अंततः केंद्र की सरकार को भी घुटनों पर आ सकता है ।
परंतु ऐसा है नहीं क्योंकि इन मुद्दों का या इन सवालों का कोई हल कहीं नहीं है। सरकार कामकाज करने के लिए शांत वातावरण और उपयुक्त इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध करवा सकती है ऐसा करने में होने वाली विफलता के लिए सरकार को भले ही दोषी करार दिया जाए परंतु रोजगार उत्पन्न ना करने का आरोप लगाकर किसी सरकार को अस्थिर करना और बात है।
किसी भी सरकार के लिये प्रतिवर्ष ग्रेजुएटेड प्रोफेशनल्स के लिए उसी अनुपात में रोजगार के अवसर जुटाना आकाश कुसुम से कम नहीं है।
और इस बात के लिए चुनाव आयोग भी चुनावी भाषणों में लाखों रोजगार के अवसर पैदा करने के वादे को गंभीरता से लें और स्वतः संज्ञान लेकर उन पार्टियों को अगली बार चुनावी रण में उतरने से पहले इसका बैलेंस शीट दिखाने के लिए बोले। संतोषप्रद उत्तर ना होने पर उस पार्टी की मान्यता भी रद्द करें।
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