कहने को पीड़ित, प्रताड़ित

लेकिन प्रायोजित लोगों ने,

नहीं छोड़े थे उनके अंग के कोई कोने।

उनकी देह को खेत की तरह जोता गया,

हल से नहीं, चाकुओं से गोदा गया।

बड़ा कठोर रहा होगा उनका माँस,

कई लोगों ने एक साथ श्रम किया,

बिना लिये साँस।

क्या उसे फिर तेज़ाब से भी सींचा था ?

क्या वो गंगा-जमुना की धारा से खींचा था ?

जैसे चावल की फसल को रखते हैं

पानी से भर कर,

उन्हें नाले में डुबोया गया, कीचड़ से तर कर।

फिर भी अछूता रह गया उनका हाथ,

जो पुकारता-सा दिख रहा था,

कोई नहीं था साथ।

अब इससे घृणा की उन्नत फसल उपजेगी,

जो दीर्घकाल तक कुण्ठित

सन्तुष्टि रूपी अन्न देगी।

जिस पर निर्ल्लज्जता के

दुर्गन्धकारी फूल उगेंगे,

जिन्हें मानवतावादी कवियों की

मालाएँ बनाने हम चुनेंगे।

छद्म निरपेक्षता वाले टिड्डे वो फसल खाएंगे,

और हम जैसी चींटियों को

बारम्बार मसल पाएंगे।

फसल कटने के बाद नरमुण्डों की

एक खरपतवार होगी,

और उन्हें ही दोषी ठहराने वालों की

लम्बी कतार होगी।

उन्हें जलाने पर उठा धुआँ

किसी को सहन न होगा,

खेत कभी था,

ये किसी की स्मृति में वहन न होगा।

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