भारतीय परिदृश्य में मात्र दो राजनैतिक विचारधारायें वंशवाद, परिवारवाद और भाई भतीजावाद से परे हैं एक है साम्यवादी पार्टियाँ दूसरी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनैतिक अनुभाग भारतीय जनता पार्टी। इन दोनों राजनैतिक दलों में शायद नैतिक पद आज भी जीवित है इस लिये इन दलों के कार्यकर्ता पारिवारिक वर्चश्व को हमेशा नकारते रहे हैं । कभी कभी पिता पुत्र , माता पुत्र की जुगलबन्दी दिख जाती है पर राजनैतिक दूरदर्शिता वाला नेता हीं टिक पाता है , ये दल राजनैतिक दर्शन को पारिवारिक सम्पत्ति बनने से हमेशा रोकते हैं।

पहली बार प्रकाश करात और वृन्दा करात जैसे दो सदस्य सीपीएम में दिखे पर दोनों के राजनैतिक टेम्परामेण्ट ने उन्हें एक हीं पार्टी के अन्दर सम्मानजनक स्थान दिलवाया किसी परिवारवादी प्रश्रय ने नहीं। आज दोनों नामचीन शख्शियतें कहाँ हैं ये येचुरी जी हीं बता सकते हैं।

जर्मनी ने रुडोल्फ़ हिटलर दिया और उसी देश ने कार्ल मार्क्स दिया पर दोनों को उसी देश में कोई विशेष आदर नहीं मिला शायद घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध। पर दोनों ने एक विशेष विचार को पैदा किया पहला था राष्ट्र के रूप में बढ़ने की चाहत और दूसरा समता मूलक समाज की स्थापना जिसमें श्रमजीवियों का हित सुरक्षित रहे।

हर युग में हर सम्प्रभु और मुक्तिकामी राष्ट्र में ये विचारधारायें प्रवाहित होती रही हैं कभी उन्मत्त तरंगिणी अलकनन्दा भागीरथी की तरह या कभी अन्तःसलिला सरस्वती की तरह। मध्यमार्ग सदैव यमुना की तरह त्रिवेणी संगम बनाता रहा है।

अपने भारत में तो केन्द्रीय सत्ता जब भी कभी कठोर निर्णय के लिये सन्नद्ध हुई है हिटलर शाही शब्द बेसाख्ता लबों पर आ गया है और सत्ता की आपने मुख़ालिफ़त की नहीं कि आपके नाम पर वामपन्थी शब्द चिपक जायेगा। अब ये बात और है कि कल के हिटलरी प्रतिभायें आज वामपन्थ का चूल्हा फूँक रही हैं और कल के सत्ता समालोचक या वामपन्थी आज उसी हिटलरी कोट पहनने को आतुर हैं या पहन चुके हैं। भारत इस मायने में अनोखा देश है जहाँ वामपन्थ मोर्चा बनाकर सत्ता पा लेता है पर अपना विपक्ष बर्दाश्त नहीं कर पाता है और उस सत्ता का विपक्ष लेफ़्ट ना कहला कर फ़ासिस्ट शक्तियाँ कहलाने लगता है।

ये भी अनोखा मुद्दा है कि फ़ासिज़्म वाले देश का डीएनए आज वामधड़े के साथ मिल कर संसद के एक सर्वमान्य निर्णय के खिलाफ़ एक मुहल्ले का नाकाबन्दी किये बैठा है।

यह भी अजीब है कि हिटलर तानाशाही का पर्याय बना है पर भारत में मुसोलोनी कभी उस नाम से चित्रित नहीं किया गया। शायद हम बेटे की ससुराल को कुछ ज़्यादा इज़्ज़त तो नहीं बख्श रहे हैं।

खैर अब मुड़ते हैं वामपन्थ के भटकाव की ओर। पहला भटकाव तो उसकी मूल कंकालीय संरचना के साथ है जो मज़दूरों का हित हमेशा अपनी प्राथमिकता में रखता है पर सदैव पूँजीवादियों से नफ़रत करता है। अब मज़दूरों को काम देगा कौन ? काम के बदले वेतन तो उद्योगपति या पूँजीवाद हीं देगा एक मजदूर तो बस सहयोग करेगा या सहयोग लेगा। मार्क्स ने भी पूँजी ( दास कैपिटल ) हीं लिखी & श्रम & शीर्षक देने में वे भी हिचकिचाये।

अब समस्या ये है कि पूँजीवाद खुद से नफ़रत करने वालों को अपने काम पर क्यों रखे और वेतन भी दे। और प्रत्यक्ष को प्रमाण कैसा? टाटा को भी वाम धरा पर नैनों वाला सपना नहीं दिखा और किसी फ़ासिस्ट शासित राज्य में हीं नैन मटक्का करना पड़ा। आज हर उद्योगपति की छाती पर कोई ना कोई मज़दूर संगठन मूँग दल रहा है और मज़दूर वैसे का वैसा पिस रहा है।

एनाटामिक फ़ाल्ट वाला यह साम्यवाद अपना पैर मात्र उसी देश में फैलाता है जहाँ के लोग सहिष्णु और किसी भी उदात्त विचारधारा को उदारता पूर्वक स्वीकार करने वाले होते हैं। श्रमजीवियों का असन्तोष इनकी खुराक है जो इन्हें ऊर्जा देती है। समस्या इनको लोगों की सन्तुष्टि से होती है और संयोग से भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म ने सन्तोष करना सिखाया है, किसी को अल्लाह का सहारा है तो किसी को अपने भगवान का , कोई बुद्धं शरणम् गच्छामि में शान्ति और सन्तोष का बीज ढूँढ लेता है तो कोई वाहे गुरु दा खालसा वाहे गुरु दी फ़तह का उच्चारण करके अपनी तकलीफ़ों और मुसीबतों के बीच भी झल्लाता नहीं है। शायद यही वज़ह है कि एक अनदेखे और काल्पनिक डर के नाम पर शाहीन बाग़ सज जाता है और का का छी छी हो रहा है जबकि काश्मीरी पंडित दर ब दर होकर भी हथियार नहीं उठा रहे।

वामपन्थ की राह का रोड़ा दर असल सनातन धर्म है जिसकी वर्ण व्यवस्था भारतीय साम्यवाद की सबसे बड़ी मिसाल है। इस व्यवस्था के सबसे उच्च श्रेणी में प्रतिष्ठित ब्राह्मण और देवता शिव स्वयं हीं सबसे बड़े साम्यवादी हैं जो अपने लिये कोई भी आजीविका नहीं चाहते। सर्वे भवन्तु सुखिनः ही इनका ध्येय वाक्य है और विपन्नता हीं इनका स्वाभिमान है। विवाह से श्राद्ध तक इनकी एक समान उपस्थिति श्लाघ्य और स्तुत्य है। सनातन धर्म का समाज वर्णाश्रम पर टिका हुआ है । समाज का हर तबका एक रोजगार से जुड़ा है, सुनार, लुहार, कुम्हार , बढ़ई , नाई आदि को आज भी इस वर्ण व्यवस्था से कोई समस्या नहीं है पर इस वामपन्थ ने मनुवाद का बबंडर फैला कर और धर्म को कुरीतियों का मूल बता कर समाज में वो असहजता उत्पन्न कर दी है कि आज शिक्षा का प्रसार तो है पर बेरोजगारी का पहाड़ भी है। पहले सारे लोग शिक्षित तो नहीं थे पर बेरोजगार भी नहीं थे। जातियाँ तो थी हीं नहीं … बतायें अगर पता हो तो कि किसान किस जाति का होता था या बनियों की क्या जाति होती थी या राजा किस जाति का था। जाति वहीं थी जहाँ रोजगार मिलने की संभावना थी। आज पढ़ा लिखा कर आप जाति विहीन समाज की आधार शिला रख रहे हैं तो देखिये रोजगार को तरसते युवाओं की फ़ौज़ भी आप हीं बन चुके हैं।

और ये बेरोज़गारी असन्तोष पैदा करती है और असन्तोष साम्यवाद की खुराक़ है।

एक सवाल और कि वामपन्थ भारत में हमेशा मुसलमानों के साथ क्यूँ दिखता है तो जवाब साधारण सा है कि उसे हर उस चीज़ से नफ़रत है जो जनमानस में सन्तोष के बीज बोता है पर यहाँ तो सनातन धर्म से टकराना है तो इस्लाम का समर्थन चल रहा है वरना यही इस्लाम तो चीन में भी है। जिस साम्यवाद ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर भारत को असहिष्णुता का भूकम्प केन्द्र बता दिया गया उसी के शासित देश में थ्येन आन मन चौक भी तो हैं… मामला बस वही है कि आपके पैर पैर और हमारे चरण।

एक परिवारवादी पार्टी के खिलाफ़ चीख चिल्लाकर अस्तित्व में आई साम्यवादी पार्टियाँ आज उसी को छाता बनकर उसे सत्ताहीनता की धूप में बँचा रही हैं… यानी साम्यवाद का फ़ोकस सत्ता की मलाई के अभाव की आशंका से हीं बिगड़ जा रहा है।

एक वाम शासित राज्य में दलित पुजारी बनाने की घटना सामाजिक पुनर्जागरण का प्रतिविम्ब माना जा रहा है पर क्या वे किसी दलित को श्राद्ध कर्म कराने वाला महाब्राह्मण बनाने की कोशिश कर पायेंगे, क्या कोई मुस्लिम ग्रन्थी, किसी पंडित को पादरी , कोई सिख मौलवी या महिला मौलवी जो मस्जिद में अजान पढ़वाये, या एक जैन को किसी बौद्ध मठ का प्रबन्धक बना पायेंगे?

जनाब चारपाई पर तबला हर कोई ठोक लेता है मज़ा तो तब है कि तबले पर भी आपकी अंगुलियाँ उसी तरह थिरकें।

धर्म को अफ़ीम मानने वाला वामपन्थ दलितों को अफ़ीम पिला कर पुनर्जागरण ला रहा है।

यही इसका भटकाव है। समानता या समतामूलक समाज की स्थापना का ध्येय लिये यह साम्यवादी विचारधारा दरअसल सनातन धर्म की जड़ों पर प्रहार के काम में लग गया है। इसमें इसे इस्लाम की शह मिल रही है। इस्लाम का सपोर्ट उसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मिल रहा है पर इतिहास साक्षी है कि इस्लाम सेकुलरिज्म को तभी तक मानता है जब तक उसके अनुयायी अल्पसंख्यक हैं । जैसे हीं ये बहुसंख्यक हुए भारत का एक राष्ट्रीय धर्म होगा और वामपन्थ ज़ज़िया चुका रहा होगा और अगर सनातन समाप्त हो गया तो भारत साम्यवादी तानाशाही के हाथों मज़बूर सिसक रहा होगा और इस्लाम किसी डिटेन्सन कैम्प में अपने दिन गुज़र रहा होगा।

सनातन है तो इस्लाम भी है और वामपन्थ भी कारण आप भी जानते हैं कि ना किसी साम्यवाद शासित देश में इस्लाम की हनक बाकी है और ना किसी मुस्लिम देश में साम्यवादी कोरोना वायरस।

पर लेखक का यह मानना है कि साम्यवाद का नाश एक सात्विक राजनीति का नाश होगा, एक ऐसे राजनैतिक युग का अन्त होगा जहाँ धन विचारधारा पर हावी नहीं हो सकता है, एक ऐसी बौद्धिकता का अन्त होगा जो तटस्थ चिन्तन का मूल है और इसके लिये साम्यवाद को सनातन में निहित साम्यवाद के डीएनए को पहचानना होगा। भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्म को नकार कर या धिक्कार कर तटस्थ राजनीति करना बन्द करना होगा।

साम्यवाद को सोचना होगा कि क्यों लेनिनग्राद सेंट पीटर्सवर्ग में फिर बदल गया ? वहाँ कौन सा फ़सिस्ट था ? वज़ह साफ़ है कि सेण्ट पीटर एक धर्म का द्योतक है मानव का निरपेक्ष मन लेनिन को सेण्ट पीटर के समकक्ष नहीं रख सकता है। जब एक परमपिता , उनका बेटा और कुछ सेण्ट साम्यवाद को नेश्तनाबूद कर सकते हैं तो भारत में तो ३३ करोड़ देवी देवता, अनगिनत कुलदेवता और ग्राम देवता , अल्लाह और सैकड़ों सूफ़ी दरगाहें, दस सिख गुरू और हज़ारों गुरुद्वारे, बुद्ध और उनका विस्तृत संघ, २४ तीर्थंकर और जैन समागम, पारसियों , यहूदियों के ईश्वर के साथ साथ वह परमपिता और उसका समूह तो है हीं… कबतक धर्म को अफ़ीम कह कर बेचियेगा जनाब, जिस दिन ये अफ़ीमची आपके पीछे पड़ गये उस दिन आपको चीन , वियतनाम , लाओस , उत्तर कोरिया, क्यूबा जैसे भाई लोग भी नहीं बचा पायेंगे।

इस लिये हे साम्यवाद पुरोधा ! धर्मनिरपेक्षता की गलियों में भटकना छोड़िये, हर धर्म या सम्प्रदाय में छिपे साम्यवाद के अणु की पहचान कीजिये, उसकी सड़ी गली कुरीतियों पर जरूर प्रहार कीजिये, वर्ग संघर्ष के बदले वर्ग समरसता पर ध्यान दीजिये, श्रमजीवियों को पूँजी का प्रतिस्पर्धी बनाने के बदले सहयात्री बनाइये तो जरूर आप भारतीय राजनीति को एक निष्कलंक विचारधारा से आलोकित कर पायेंगे पर अगर आपने अपनी लगाओ भिड़ाओ नीति का षडयन्त्र नहीं छोड़ा तो

” तुम्हारी दास्ताँ तक भी ना होगी दास्तानों में “

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