आजकल यह सवाल बड़े जोरों से उठता है कि अफगानिस्तान की परिस्थितियों पर भारत सरकार का का आधिकारिक बयान क्यों नहीं आ रहा है ॽ
सारे भारतीयों की तरह मेरी भी इच्छा है कि वे बोलें और मेरी इच्छा इसीलिए है क्योंकि मुझे एक हेड लाइन चाहिए , मुझे ना अफगानिस्तान से मतलब है, ना तालिबान से मतलब है और ना वहां की औरतों की दुर्गति से मतलब है ।। हमें सुर्खियाँ चाहिए अखबारों में जो सुबह में चाय के साथ पड़ने पर बीकाजी की भुजिया वाली टेस्ट दे। मेरे जैसे कई बुद्धिजीवी यही सवाल सोच रहे होंगे पर जब भी मैं प्रधानमंत्री की स्थिति पर विचार करता हूं तो मुझे लगता है कि शायद आज की परिस्थिति में प्रधानमंत्री का यह सबसे बेहतरीन कदम है क्योंकि सच ना बोलना झूठ बोलना नहीं होता । मोदी जी खामोश हैं तो उसके कई कारण हैं।
आजकल जिसने जिंदगी में एक अखरोट भी ना खरीदा हो उसे भी ड्राई फ्रूट्स की बढ़ती हुई कीमतों पर रोना आ रहा है । जो ट्रिपल तलाक के भारतीय कानून के अनुसार लगभग निरस्त होने पर धार्मिक क्षेत्र भारतीय न्याय व्यवस्था की दखल का रोना रो रहे थे , वे भी अफगानिस्तान में शरिया कानून लगने पर खुद मौन हैं परंतु जवाब मोदी से चाहते हैं। गजब की दोगलई है। ये शायद वही लोग हैं जो कंधार वाले विमान अपहरण कांड में पहले तो यात्रियों की जान बचाने के लिए गला फाड़ रहे थे और जब बचा लिया गया तो आतंकियों को छोड़ने की घटना को सरकार की नाकामी बता रहे थे , वैसे रूबिया सईद के लिए छोड़े गए मासूम , अभाजपाई भारतीय सत्ता के शौर्य का प्रतीक हैं। मतलब चित भी मेरी पट भी मेरी।

मेरे विचार से सरकार का मौन कई वजहों से हो सकता है और सिर्फ भारत सरकार का नहीं बल्कि विश्व की सारी सरकारें ( अगर पाकिस्तान और चीन को छोड़ दिया जाए ) भी तो इन परिस्थितियों पर मौन हैं क्योंकि तालिबान की प्रशंसा आतंकवाद का समर्थन होगा और विरोध करना तो मान लीजिए कि अपने जिंदा देशवासियों की जान जोखिम डालने जैसा होगा।

कई विद्वान पत्रकार लिख चुके हैं कि अफगानिस्तान में भारतीयों की इमेज उनके परोपकारी स्वभाव के कारण बहुत आला दर्जे की है परंतु उनकी इस परोपकार से क्या तालिबान मुतास्सिर होगा या भारत सरकार के तालिबान विरोधी विचारों से नाराज होकर या खुन्नस निकालने के लिए किसी को भी ज़िन्दा छोड़ेगा। परंतु जिन्हें लाल माइक के बगैर सब कुछ सूना लगता है उन्हें तो सुर्खियां चाहिए, सुर्खियां सुर्ख और लाल रक्त की तरह भड़कीला लाल । शायद आपको पता हो कि साम्यवाद ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए मिखाइल गोर्वाचेव जैसे महामानव की बलि दे दी और तब से लेकर आज तक रूस अपनी वह गरिमा और अखंडता कभी बचा नहीं पाया, कभी अक्षय नहीं रख पाया । अफगानिस्तान हमारा पड़ोसी है । आमतौर पर हर सत्ता का पड़ोसी सत्ता से हर समय वार्तालाप होना चाहिए। आतंकवाद या उपद्रव किसी सत्ता को प्राप्त करने के मार्ग हो सकते हैं पर लक्ष्य नहीं । खिड़कियां बंद करने से कमरे के अंदर दम घुट सकता है। तालिबान के साथ भी दरवाजे भले बंद हो खिड़कियां बंद नहीं होनी चाहिए ।


वैसे ही पता होगा पर बताता चलूं कि आईसिस के साथ इतनी भयंकर लड़ाई लड़ने के बाद भी अमेरिका उसके द्वारा उत्पादित तेलों का एक खरीददार रहा। भारत को अपना निकटतम मित्र मानते हुए भी रूस ने पाकिस्तान को हथियार बेचे । यहूदियों से लड़ने के लिए भी इन जिहादियों ने इजराइल के हथियार खरीदे। जहां देश को या समूचे विश्व को व्यावसायिक ताकत ही चला रही हूँ, वहां पर कोरी भावुकता बहुत काम नहीं होती हो सकता है । भारत वैश्विक दबाव बनाकर अपने लोगों को वहां से वापस ले भी आए परंतु उन प्रोजेक्ट्स का क्या होगा जो लाखों डॉलर की कीमत की हैं और अभी तक अधूरी हैं। उन अल्पसंख्यक सिखों और हिंदुओं का क्या होगा जो वहीं रहना चाहते हैं । तो समझौते के लिए शांति जरूरी है और शान्ति के लिए मौन। एक मशहूर शेर है ….

एक बड़ा मशहूर शेर है ….
मेरे कलाम से बेहतर है मेरी खामोशी ,
न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली ll

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